अशोक के भीतर का इनसान जाण उठा

मगध के सम्राट्‌ अशोक अपने विजय अभियान को कलिंग तक बढ़ा चुके थे।

अपने शिविर में विचारमग्न बैठे अशोक को उनके सेनापति जयगुप्त ने आकर कहा, “सम्राट्‌ की जय हो ! कलिंग युद्ध में हमारी विजय हुई।

सेनापति के मुख से यह शुभ समाचार सुनकर सम्राट्‌ अशोक के हर्ष की सीमा न रही ।

जयगुप्त ने उनसे जाने की आज्ञा ली।

वह जाने के लिए पलटा ही था कि बौद्ध भिक्षु से उसका सामना हुआ।

भिक्षु ने सम्राट्‌ अशोक से कहा, “महाराज! कलिंग के युद्ध में आपकी विजय नहीं, बल्कि पराजय हुई है।

सम्राट्‌ आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने जयगुप्त को प्रश्नसूचक मुद्रा में देखा तो वे बोले, “मैंने असत्य नहीं कहा, सम्राट ! आपको विजयश्री ही प्राप्त हुई है।

भिक्षु ने कहा, “सम्राट! आप मेरे साथ रणभूमि में चलकर देखिए कि हार हुई या जीत?” रणभूमि पहुँचकर उन्होंने चारों ओर व्याप्त रुदन और चीखें सुनीं।

भिक्षु बोला, “आपके इस युद्ध ने गाँव उजाड़ दिए। किसी का पति तो किसी का पुत्र मारा गया ।

कोई अपना भाई खो बैठा है तो . कोई अपना पिता।” सम्राट्‌ यह दृश्य देखकर दुःखी हो गए। चारों ओर फैले भयावह मातम के बीच साधु ने पूछा, “आप इसे विजय मानते हैं या पराजय ?

अशोक बोले, “आप सच कहते हैं। नरसंहार को देखकर लगता है कि मेरी भीषण पराजय हुई है।

सम्राट्‌ तो जीत गया, किंतु इनसान हार गया।

आज से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में कभी युद्ध नहीं करूँगा।'' उन्होंने भगवान्‌ बुद्ध से दीक्षा लेकर अपना समस्त जीवन मानवता को सेवा हेतु समर्पित कर दिया। विजय स्नेह और उदारता से भी पाई जा सकती है। बलपूर्वक पाई गई जीत क्षणभंगुर होती है।