गौतम बुद्ध के समय बौद्ध विहारों की व्यवस्था के लिए सूत्राचार्य (भिक्षुओं के वचनों को कंठस्थ करने वाले) एवं शीलाचार्य
(भिक्षुओं के लिए निर्धारित पंचशीलों व दशशीलों के विशेषज्ञ आचार्य) होते थे।
एक बार गोशिरा विहार के एक सूत्राचार्य हाथ धोने का पात्र साफ करना भूल गए।
इस पर एक शीलाचार्य ने आपत्ति जताई।
अहंकारवश सूत्राचार्य ने तर्क दिया कि जान-बूझकर पात्र अस्वच्छ नहीं छोड़ा था, अतः दोषी नहीं हूँ।
शीलाचार्य ने गलती मानने के लिए जोर दिया तो सभी भिक्षुओं में विवाद छिड़ गया।
जब बात बुद्ध तक पहुँची तो उन्होंने दोनों को समझाते हुए कहा कि अपने दृष्टिकोण से बँधने की बजाय दूसरे के दृष्टिकोण को समझकर मध्य मार्ग अपनाना चाहिए ताकि संघ में शांति व एकता रहे।
हालाँकि दोनों पक्षों का अहंकार चरम पर था, इसलिए बुद्ध की बात किसी ने नहीं सुनी।
तब बुद्ध एकांतवास के लिए रक्षित वन चले गए।
जब एक साल, चार महीने बाद बुद्ध लौटे तो उनके प्रिय शिष्य आनंद ने विवाद करने वाले सूत्राचार्य व शीलाचार्य से बात को। तब तक दोनों अपनी गलती मान चुके थे।
अतः सूत्राचार्य ने शीलाचार्य को नमनकर कहा, “मैंने एक शील का उल्लंघन किया है।
मुझे क्षमा करें।'” शीलाचार्य ने प्रत्युत्तर में कहा, “मुझमें विनम्रता कौ कमी थी। मेरा हार्दिक खेद स्वीकार करें।'' तब बुद्ध ने कहा, “क्रोध और अहंकार से साधना भंग होती है और संघ में विभाजन होता है।
स्नेह और एकता से रहेंगे, तो ही हम लक्ष्य को उपलब्धि कर पाएँगे।
इसलिए परिवार हो या संगठन, अहंकार से दूर रहकर निष्पक्ष भाव से संचालन करने पर ही अच्छे परिणाम मिलते हैं।
अहंकार से एकता छिन्न भिन्न हो जाती है।