बोद्ध-भिक्षुओं की जिज्ञासा

भगवान बुद्ध से एक भिक्षु ने पूछा कि मैं सुखी होना चाहता हूँ, क्या करूँ ?

बुद्ध ने कहा कि तुम अपने मन से भोगों को निकाल दो।

भोगों का लगाव तुम्हें सुखी होने नहीं देगा। भोगों से मित्रता मत करो।

उनकी मित्रता तुमको नरक की ओर ले जाएगी। संसार के भोग, चोर के समान हैं।

ये चोर तुम्हारी आयु को धीरे-धीरे नष्ट करते रहेंगे।

अपने मन से स्वार्थ की भावना को बिल्कुल निकाल दो। ऐसा करने से तुम्हारे मन में सम्यक्‌-ज्ञान उत्पन्न होगा।

उस ज्ञान के सहारे तुम धीरे- धीरे वैराग्य को प्राप्त कर लोगे। वैराग्य सर्व सुखों का खजाना है।

एक भिक्षु ने पूछा कि मैं लोभ को मिटा नहीं पा रहा, भगवन्‌! मैं क्या करूँ ?

बुद्ध ने कहा कि तुम लोभ को एक सीमा में बाँध दो। इस अंकुश से उसकी शक्ति कम हो जाएगी।

अगर लोभ से सावधान नहीं होगे तो जीवन दुःखों से भर जाएगा। लोभ एक प्रकार का फटा हुआ थैला है। उसको जितना भी भरोगे, वह भर नहीं पाएगा।

लोभ एक प्रकार का नशा है। तुम कितना भी संग्रह करो, फिर भी तुम्हारा मन तृप्त नहीं हो सकता। लोभी- मन की भूख कभी भी मिट नहीं सकती।

संग्रह करना छोड़ दो, क्योंकि साथ में कुछ भी नहीं जाता है। बाँटना प्रारंभ कर दो।

जितना-जितना बाँटते जाओगे, उतनी-उतनी शांति तुम्हारे पास आती जाएगी।

एक भिक्षु ने पूछा कि आत्मा कैसा है ? बुद्ध ने कहा कि आत्मा आनंद है, आत्मा प्रेम है, आत्मा शांति है, आत्मा पूर्ण है, आत्मा निराकार है, आत्मा सर्व व्यापक है, आत्मा तीनों कालों में नित्य है, आत्मा अजर- अमर है, आत्मा अद्वितीय है, आत्मा पुरातन है अर्थात्‌ पुराने से भी पुराना होते हुए, नए से भी नया है।

आत्मा स्त्री-पुरुष और पशु-पक्षी आदि सब जीवों में समाया हुआ है। वह सबका चेतन और सबका साक्षी है।

आत्मा सबका द्रष्टा है। आत्मा सब जीवों में विद्यमान है। वह सब जीवों का जन्म और मृत्यु भी देखता है। शरीर का बचपन, यौवन और बुढ़ापा भी देखता है।

आत्मा स्वयं प्रकाश है, उसको किसी अन्य प्रकाश की जरूरत नहीं है। आत्मा निरंजन है, जिसमें नाम मात्र का भी मैल नहीं है। आत्मा विकारों से रहित है। आत्मा अविनाशी है और वह जन्म-मरण से रहित है। वह शाश्वत्‌ है, अर्थात्‌ सदा है।

आत्मा न तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाती है। आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको पानी नहीं डुबो सकता और वायु नहीं सुखा सकता। आत्मा सनातन है अर्थात्‌ वह सदा रहनेवाला अनादि है।

आत्मा तटस्थ है, आत्मा पूर्ण है और तृप्त है। आत्मा परम्‌ पवित्र है। आत्मा को इंद्रियाँ, मन और बुद्धि नहीं जान सकते, इसलिए वह अव्यक्त है।

आत्मा तो इन सबसे दूर है, इसलिए वह अचिंत्य है।

आत्मा आश्चर्यमय है, क्योंकि उसको कोई विरला ही जान पाता है।

आत्मा का अनुभव करना सबसे बड़ा कार्य है। आत्मा अवध्य है, क्योंकि उसका कभी भी किसी भी साधन से कोई भी नाश नहीं कर सकता।

आत्मा सदा भरपूर और पूर्ण है। उसका जो अनुभव कर लेता है, वह आनंद को प्राप्त कर लेता है।