एक बार गौतम बुद्ध से अभय राजकुमार ने प्रश्न किया कि क्या श्रमण गौतम कभी कठोर वचन कहते हैं ?
उसने सोच रखा था कि नहीं कहने पर वह बताएगा कि एक बार उन्होंने देवदत्त को नरकगामी कहा था और यदि हां कहे तो उसने पूछा जा सकता है कि जब आप कठोर शब्दों का प्रयोग करने से स्वयं को रोक नहीं पाते, तब दूसरों को ऐसा उपदेश कैसे देते हैं ?
बुद्ध ने अभय के प्रश्न का आशय जान लिया।
उन्होंने कहा, इसका उत्तर न तो हां में दिया जा सकता है और न नहीं में।
अभय की गोद में उस समय एक छोटा बालक था।
उसकी ओर इशारा करते हुए बुद्ध ने पूछा, 'राजकुमार, यदि दाई के अनजाने में यह बालक अपने मुख में काठ का टुकड़ा डाल ले, तब तुम क्या करोगे ?'
'मैं उसे निकालने का प्रयास करूंगा।'
'यदि वह आसानी से न निकल सकता हो तो ?''तो बाएं हाथ से उसका सिर पकड़कर दाहिने हाथ की उंगली को टेढ़ा करके उसे निकालूंगा।'
'यदि खून निकलने लगे तो ?'
'तो भी मेरा यही प्रयास रहेगा कि वह काठ का टुकड़ा किसी न किसी तरह बाहर निकल आए।'
'ऐसा क्यों ?'
'इसलिए कि भंते, इसके प्रति मेरे मन में अनुकंपा है।'
'राजकुमार, ठीक इसी तरह तथागत जिस वचन के बारे में जानते हैं कि यह मिथ्या या अनर्थकारी है और उससे दूसरों के हृदय को ठेस पहुंचती है, तब उसका वे कभी उच्चारण नहीं करते।
पर इसी तरह जो वचन उन्हें सत्य और हितकारी प्रतीत होते हैं तथा दूसरों को प्रिय लगते हैं, उनका वे सदैव उच्चारण करते हैं।
इसका कारण यही है कि तथागत के मन में सभी प्राणियों के प्रति अनुकंपा है।'