एक बार गौतम बुद्ध सिंसवा वन में पर्ण-शय्या पर विराजमान थे कि हस्तक आलबक नामक एक शिष्य ने वहाँ आकर उनसे पूछा, ''भंते, कल आप सुखपूर्वक सोए ही होंगे ?"
“हाँ, कुमार, कल मैं सुख की नींद सोया।"
“किंतु भगवन् ! कल रात तो हिमपात हो रहा था और ठंड भी कड़ाके की थी।
आपके पत्तों का आसन तो एकदम पतला है, फिर भी आप कहते हैं कि आप सुख की नींद सोए ?''
“अच्छा कुमार, मेरे प्रश्न का उत्तर दो।
मान लो, किसी गृहपति के पुत्र का कक्ष वायुरहित और बंद हो, उसके पलंग पर चार अंगुल की पोस्तीन बिछी हो, तकिया कालीन का हो तथा ऊपर वितान हो और सेवा के लिए चार भार्याएँ तत्पर हों, तब क्या वह गृहपति पुत्र सुख से सो सकेगा ?”
'हाँ भंते, इतनी सुख- सुविधाएँ होने पर भला वह सुख से क्यों न सोएगा ? उसे सुख की नींद ही आएगी।'
“किंतु कुमार, यदि उस गृहपति-पुत्र को रोग से उत्पन्न होने वाला शारीरिक या मानसिक कष्ट हो, तो क्या वह सुख से सोएगा ?''
“नहीं भंते, वह सुख से नहीं सो सकेगा।''
“और यदि उस गृहपति-पुत्र को द्वेष या मोह से उत्पन्न शारीरिक या मानसिक कष्ट हो, तो क्या वह सुख से सोएगा ?''
“नहीं भंते, वह सुख से नहीं सो सकेगा।''
“कुमार तथागत की राग, द्वेष और मोह से उत्पन्न होने वाली जलन जड़ मूल से नष्ट हो गई है, इसी कारण सुख की नींद आई थी।"
“वास्तव में नींद को अच्छे आस्तरण की आवश्यकता नहीं होती । तुमने यह तो सुना ही होगा कि सूली के ऊपर भी अच्छी नींद आ जाती है।
सुखद नींद के लिए चित्त का शांत होना परम आवश्यक है और यदि सुखद आस्तरण हो तब तो बात ही क्या? सुखद नींद के लिए वह निश्चय ही सहायक होगा।''