एक दिन बहुत से भिक्षु बैठे बात कर रहे थे कि संसार में सबसे बड़ा सुख क्या है ?
अगर संसार में सुख ही था तो छोड़कर आए क्यों ?
जब संसार में दुःख ही दुःख रह जाए, तभी तो कोई संन्यस्त होता है।
जब यह समझ में आ जाए कि यहाँ कुछ भी नहीं है ।
खाली पानी के बबूले हैं, आकाश में बने इंद्रघनुष हैं, आकाश कुसुम है, यहाँ कुछ भी नहीं है, तभी तो कोई संन्यासी होता है ।
संन्यास का अर्थ ही है, संसार व्यर्थ हो गया है-- जानकर, अनुभव से अपने ही साक्षात्कार से ।
ये भिक्षु ऐसे ही भागकर चले आए होंगे। किसी की पत्नी मर गई होगी। संन्यासी हो गया। किसी का दिवाला निकल गया तो संन्यासी हो गया।
अब तुम देखना बहुत से लोग संन्यासी होंगे। फिर कुछ और बचता भी नहीं।
तब बुद्ध भगवान् अचानक आ गए।
पीछे खड़े होकर उन्होंने भिक्षुओं की बातें सुनीं। चौंके ! फिर कहा, ''भिक्षुओ, भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो ।
यह सारा संसार दुःख में है। इसमें तुम बता रहे हो। कोई कह रहा है राज्य-सुख कोई कहता है काम सुख-दुःख में है।
इसमें तुम बता रहे हो, कोई कह रहा भोजन-सुख। स्वाद सुख; यह सब तुम जो कह रहे हो क्या कह रहे हो ?
यह सुनकर मुझे आश्चर्य होता है। अगर इस सब में सुख है तो तुम यहाँ आ क्यों गए। सुख भी आभास है ।” बुद्ध ने कहा, ' “दुःख सत्य है।
और सुख नहीं है ऐसा नहीं। पर संसार में नहीं है। संसार का अर्थ ही है, जहाँ सुख दिखाई पड़ता है। और है नहीं।
जहाँ आभास होता है, प्रतीति होती है, इशारे मिलते हैं कि है। लेकिन जैसे-जैसे पास जाओ, पता चलता है, नहीं है ।”
“फिर सुख कहाँ है ?” बुद्ध ने कहा, ''बुद्धोत्पाद में सुख है। तुम्हारे भीतर बुद्ध का जन्म हो जाए, तो सुख है । तुम्हारे भीतर बुद्ध का अवतरण हो जाए तो सुख है ।
बुद्धोत्पाद, यह बड़ा अनूठा शब्द है । तुम्हारे भीतर बुद्ध उत्पन्न हो जाएँ। तो सुख है। तुम जब जाओ तो सुख है। सोने में दुःख है, मूर्च्छा में दुःख है जागने में सुख है।
धर्म श्रवण सुख है। तो सबसे परम सुख तो है, बुद्धोत्पाद; कि तुम्हारे भीतर बुद्धत्व पैदा हो जाए।
अगर अभी यह नहीं हुआ तो नंबर दो का सुख है-जिनका बुद्ध जाग गया उनकी बात सुनने में सुख है । धर्म श्रवण में सुख है।
“तो सुनो उनकी, जो जाग गए हैं । जिन्हें कुछ दिखाई पड़ा है । गुणों उनकी । लेकिन उसी सुख पर रुक मत जाना, सुन सुनकर अगर रुक गए तो एक तरह का सुख तो मिलेगा, लेकिन यह भी बहुत दूर जानेवाला नहीं है।
” इसलिए बुद्ध ने कहा, “समाधि में सुख है। बुद्धोत्पाद में सुख है, यह तो परम व्याख्या हुई सुख की ।
फिर यह भी तो हुआ नहीं है। तो उनके वचन सुनो, उनके पास उठो-बैठो, जिनके भीतर यह क्रांति घटी है। जिनके भीतर यह सूरज निकला है। जिनका प्रभात हो गया है।
जहाँ सूर्योदय हुआ है, उनके पास रमो, इसमें सुख है। मगर इसमें ही रुक मत जाना। ध्यान रखना कि जो उनको हुआ है, वह तुम्हें भी करना है।
उस करने के उपाय का नाम समाधि है | सुनो बुद्धों को और चेष्टा करो बुद्धों जैसे बनने की । उस चेष्टा का नाम समाधि है।
उस चेष्टा का फल है बुद्धोत्पोद ।
सुनो बुद्धों के वचन, फिर बुद्धों जैसे बनने की चेष्टा में लगना-ध्यान, समाधि, योग। और जिस दिन बन जाओ, उस दिन परम सुख ।”