फूंक-फूंककर पग धरो

सेवाधर्मः परमगहनो... सेवाधर्म बड़ा कठिन धर्म है।

एक जंगल में मदोत्कट नाम का शेर रहता था।

उसके नौकर-चाकरों में कौवा, गीदड़, बाघ, चीता आदि अनेक पशु थे।

एक दिन वन में घूमते-घूमते एक ऊंट वहाँ आ गया।

शेर ने ऊँट को देखकर अपने नौकरों से पूछा-यह कौन-सा पशु है ?

जंगली है या ग्राम्य ?

कौवे ने शेर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-स्वामी, यह पशु ग्राम्य है और आपका भोज्य है।

आप इसे खाकर भूख मिटा सकते हैं।

शेर ने कहा-नहीं, यह हमारा अतिथि है; घर आए को मारना उचित नहीं।

शत्रु भी अगर घर आए तो उसे नहीं मारना चाहिए।

फिर, यह तो हम पर विश्वास करके हमारे घर आया है।

इसे मारना पाप है। इसे अभय-दान देकर मेरे पास लाओ।

मैं इससे वन में आने का प्रयोजन पूलूंगा।

शेर की आज्ञा सुनकर अन्य पशु ऊँट को, जिसका नाम क्रथनक था, शेर के दरबार में लाए।

ऊँट ने अपनी दुःख-भरी कहानी सुनाते हुए बतलाया कि वह अपने साथियों से बिछुड़कर जंगल में अकेला रह गया है।

शेर ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा-अब तुझे ग्राम में जाकर भार ढोने की कोई आवश्यकता नहीं है।

जंगल में रहकर हरी-भरी घास से सानन्द पेट भरो और स्वतन्त्रतापूर्वक खेलो-कूदो।

शेर का आश्वासन मिलने पर ऊंट जंगल में आनन्द से रहने लगा।

कुछ दिन बाद उस वन में एक मतवाला हाथी आ गया।

मतवाले हाथी से अपने अनुचर पशुओं की रक्षा करने के लिए शेर को हाथी से युद्ध करना पड़ा।

युद्ध में जीत तो शेर की ही हुई, किन्तु हाथी ने भी जब एक बार शेर को सूंड़ में लपेटकर घुमाया तो उसका अस्थि-पंजर हिल गया।

हाथी का एक दाँत भी शेर की पीठ में चुभ गया था।

इस युद्ध के बाद शेर बहुत घायल हो गया था, और नए शिकार के योग्य नहीं रहा था।

शिकार के अभाव में उसे बहुत दिन से भोजन नहीं मिला था।

उसके अनुचर भी, जो शेर के अवशिष्ट भोजन से ही पेट पालते थे, कई दिनों से भूखे थे।

एक दिन उन सबको बुलाकर शेर ने कहा-मित्रो! मैं बहुत घायल हो गया हूँ, फिर भी यदि कोई शिकार तुम मेरे पास तक ले जाओ, तो मैं उसको मारकर तुम्हारे पेट भरने योग्य मांस अवश्य तुम्हें दे दूंगा।

शेर की बात सुनकर चारों अनुचर ऐसे शिकार की खोज में लग गए; किन्तु कोई फल न निकला।

तब कौवे और गीदड़ में मन्त्रणा हुई। गीदड़ बोला-काकराज! अब इधर-उधर भटकने का क्या लाभ क्यों न इस ऊँट कथनक को मारकर ही भूख मिटाएँ ?

कौवा बोला-तुम्हारी बात तो ठीक है, किन्तु स्वामी ने उसे अभय-वचन है।

दिया हुआ गीदड़-मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे स्वामी उसे मारने को तैयार हो जाएँ।

आप यहीं रहें, मैं स्वयं जाकर स्वामी से निवेदन करता हूँ।

गीदड़ ने तब शेर के पास जाकर कहा-स्वामी! हमने सारा जंगल छान मारा है, किन्तु कोई भी पशु हाथ नहीं आया।

अब तो हम सभी इतने भूखे-प्यासे हो गए हैं कि एक कदम आगे नहीं चला जाता।

आपकी भी दशा ऐसी ही है। आज्ञा दें तो क्रथनक को ही मारकर उससे भूख शान्त - की जाए।

गीदड़ की बात सुनकर शेर ने क्रोध से कहा-पापी! आगे कभी यह बात मुख से निकाली तो उसी क्षण तेरे प्राण ले लूँगा।

जानता नहीं कि उसे मैंने अभय वचन दिया है।

गीदड़-स्वामी! आपको वचन-भंग के लिए नहीं कह रहा। आप उसका स्वयं वध न कीजिए, किन्तु यदि वही स्वयं आपकी सेवा में प्राणों की भेंट लेकर आए तब तो उसके वध में कोई दोष नहीं है।

यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो हममें से सभी आपकी सेवा में अपने शरीर की भेंट लेकर आपकी भूख शान्त करने के लिए आएँगे।

जो प्राण स्वामी के काम न आएँ उनका क्या उपयोग ? स्वामी के नष्ट होने पर अनुचर स्वयं नष्ट हो जाते हैं। स्वामी की रक्षा करना उनका धर्म है।

मद्रोत्कट-यदि तुम्हारा यही विश्वास है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं।

शेर से आश्वासन पाकर गीदड़ अपने अन्य अनुचर साथियों के पास आया और उन्हें लेकर फिर शेर के सामने उपस्थित हो गया।

वे सब अपने शरीर के दान से स्वामी की भूख शान्त करने आए थे। गीदड़ उन्हें यह वचन

देकर लाया था कि शेर शेष सब पशुओं को छोड़कर ऊँट को ही मारेगा।

सबसे पहले कौवे ने शेर के सामने जाकर कहा-स्वामी! मुझे खाकर अपनी जान बचाइए, जिससे मुझे स्वर्ग मिले।

स्वामी के लिए प्राण देने वाला स्वर्ग जाता है, वह अमर हो जाता है।

गीदड़ ने कौवे से कहा-अरे कौवे, तू इतना छोटा है कि तेरे खाने से स्वामी की भूख बिल्कुल शान्त नहीं होगी।

तेरे शरीर में माँस ही कितना है जो कोई खाएगा ? मैं अपना शरीर स्वामी को अर्पण करता हूँ।

गीदड़ ने जब अपना शरीर भेंट किया तो बाघ ने उसे हटाते हुए कहा-तू भी बहुत छोटा है।

तेरे नख इतने बड़े और विषैले हैं कि जो खाएगा उसे ज़हर चढ़ जाएगा। इसीलिए तू अभक्ष्य है। मैं अपने को स्वामी को अर्पण करूँगा। मुझे खाकर वे अपनी भूख शान्त करें।

उसे देखकर क्रथनक ने सोचा कि वह भी अपने शरीर को अर्पण कर दे। जिन्होंने ऐसा किया था, उसमें से शेर ने किसी को भी नहीं मारा था, इसलिए उसे भी मरने का डर नहीं था।

यही सोचकर क्रथनक ने भी आगे बढ़कर बाघ को एक ओर हटा दिया और अपने शरीर को शेर को अर्पण किया।

तब शेर का इशारा पाकर गीदड़, चीता, बाघ, आदि पशु ऊँट पर टूट पड़े और उसका पेट फाड़ डाला। सबने उसके माँस से अपनी भूख शान्त की।

संजीवक ने दमनक से कहा-तभी मैं कहता हूँ कि छल-कपट से भरे वचन सुनकर किसी को उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और यह कि राजा के अनुचर जिसे मरवाना चाहें उसे किसी न किसी उपाय से मरवा ही देते हैं।

निस्सन्देह किसी नीच ने मेरे विरुद्ध राजा पिंगलक को उकसा दिया है। अब दमनक भाई! मैं एक मित्र के नाते तुझसे पूछता हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए।

दमनक-मैं तो समझता हूँ कि ऐसे स्वामी की सेवा का कोई लाभ नहीं है। अच्छा है कि तुम यहाँ से जाकर किसी दूसरे देश में घर बनाओ।

ऐसी उल्टी राह पर चलने वाले स्वामी का परित्याग करना ही अच्छा है। संजीवक-दूर जाकर भी अब छुटकारा नहीं है।

बड़े लोगों से शत्रुता लेकर कोई कहीं शान्ति से नहीं बैठ सकता। अब तो युद्ध करना ही ठीक

जंचता है। युद्ध में एक बार ही मौत मिलती है, किन्तु शत्रु से डरकर भागने वाला तो प्रतिक्षण चिन्तित रहता है।

उस चिन्ता से एक बार की मृत्यु कहीं अच्छी है।

दमनक ने जब संजीवक को युद्ध के लिए तैयार देखा तो वह सोचने लगा, कहीं ऐसा न हो, यह अपने पैने सींगों से स्वामी पिंगलक का पेट फाड़ दे।

ऐसा हो गया तो महान् अनर्थ हो जाएगा। इसीलिए वह फिर संजीवक को देश छोड़कर जाने की प्रेरणा करता हुआ बोला-मित्र! तुम्हारा कहना भी सच है।

किन्तु स्वामी और नौकर के युद्ध से क्या लाभ ?

विपक्षी बलवान् हो तो क्रोध को पी जाना ही बुद्धिमत्ता है। बलवान् से लड़ना अच्छा नहीं।

अन्यथा उसकी वही गति होती है जो टिटिहरे से लड़कर समुद्र की हुई थी।

संजीवक ने पूछा-कैसे ? दमनक ने तब टिटिहरे की यह कथा सुनाई :