घड़े-पत्थर का न्याय

बलवन्तं रिपु दृष्ट्वा न वाऽऽमान प्रकोपयेत्

शत्रु अधिक बलशाली हो तो क्रोध प्रकट न करे, शान्त हो जाए।

समुद्र तट के एक भाग में एक टिटिहरी का जोड़ा रहता था।

अण्डे देने से पहले टिटिहरी ने अपने पति को किसी सुरक्षित प्रदेश की खोज करने के लिए कहा।

टिटिहरे ने कहा-यहाँ सभी स्थान पर्याप्त सुरक्षित हैं, तू चिन्ता न कर।

टिटिहरी-समुद्र में जब ज्वार आता है तो उसकी लहरें मतवाले हाथी को भी खींचकर ले जाती हैं, इसलिए हमें इन लहरों से दूर कोई स्थान देख रखना चाहिए।

टिटिहरा-समुद्र इतना दुस्साहसी नहीं है कि वह मेरी सन्तान को हानि पहुँचाए। वह मुझसे डरता है।

इसलिए तू निःशंक होकर यहीं तट पर अण्डे दे।

समुद्र ने टिटिहरी की ये बातें सुन लीं।

उसने सोचा, यह टिटिहरा बहुत अभिमानी है।

आकाश की ओर टाँगे करके भी इसीलिए सोता है कि इन टाँगों पर गिरते हुए आकाश को थाम लेगा।

इसका अभिमान भंग होना चाहिए।

यह सोचकर उसने ज्वार आने पर टिटिहरी के अण्डों को लहरों में बहा दिया।

टिटिहरी जब दूसरे दिन आई तो अण्डों को बहता देखकर रोती-बिलखती टिटिहरे से बोली-मूर्ख! मैंने पहले ही कहा था कि समुद्र की लहरें इन्हें बहा ले जाएँगी, किन्तु तूने अभिमानवश मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया।

अपने प्रियजनों के कथन पर भी जो कान नहीं देता उसकी वही दुर्गति होती है जो उस मूर्ख कछुए की हुई थी।

जिसने रोकते-रोकते भी मुख खोल दिया थ।

टिटिहरे ने टिटिहरी से पूछा-कैसे? टिटिहरे ने तब मूर्ख कछुए की कहानी सुनाई :