एक और एक ग्यारह

बहूनामप्यसाराणां समवायो हि दुर्जयः।

छोटे और निर्बल भी संख्या में बहुत होकर दुर्जेय हो जाते हैं।

जंगल में वृक्ष की एक शाखा पर चिड़ा-चिड़ी का जोड़ा रहता था।

उनके अण्डे भी उसी शाखा पर बने घोंसले में थे।

एक दिन मतवाला हाथी वृक्ष की छाया में विश्राम करने आया।

वहाँ उसने अपनी सूंड में पकड़कर वही शाखा तोड़ दी जिस पर चिड़ियों का घोंसला था।

अण्डे ज़मीन पर गिरकर टूट गए।

चिड़िया अपने अण्डों के टूटने से बहुत दुःखी हो गई।

उसका विलाप सुनकर उसका मित्र कठफोड़ा आ गया।

उसने शोकातुर चिड़ा-चिड़ी को धीरज बँधाने का बहुत यत्न किया, किन्तु उसका विलाप शान्त नहीं हुआ।

चिड़िया ने कहा-यदि तू हमारा सच्चा मित्र है तो मतवाले हाथी से बदला लेने में हमारी सहायता कर।

उसको मारकर ही हमारे मन को शान्ति मिलेगी।

कठफोड़ ने कुछ सोचने के बाद कहा-यह काम हम दोनों का ही नहीं है।

इसमें दूसरों से भी सहायता लेनी पड़ेगी।

एक मक्खी मेरी मित्र है; उसकी आवाज़ बहुत सुरीली है, उसे भी बुला लेता हूँ।

मक्खी ने भी जब कठफोड़े और चिड़िया की बात सुनी तो वह मतवाले हाथी को मारने में उनको सहयोग देने को तैयार हो गई।

किन्तु उसने भी कहा कि यह काम हम तीन का ही नहीं, हमें औरों की भी सहायता ले लेनी चाहिए।

मेरा मित्र एक मेढक है, उसे भी बुला लाऊँ।

तीनों ने जाकर मेघनाद नाम के मेढक को अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई।

मेढक उनकी बात सुनकर मतवाले हाथी के विरुद्ध षड्यन्त्र में शामिल में हो गया।

उसने कहा-तभी तो मैं कहती हूँ कि छोटे और निर्बल भी मिल-जुलकर बड़े-बड़े जानवरों को मार सकते हैं।

टिटिहरा-अच्छी बात है।

मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुद्र को सुखाने का यत्न करूँगा।

यह कहकर उसने बगुले, सारस, मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुःख-कथा सुनाई।

उन्होंने कहा-हम तो अशक्त हैं; किन्तु हमारा राजा गरुड़ अवश्य इस सम्बन्ध में हमारी सहायता कर सकता है।

तब सब पक्षी मिलकर गरुड़ के पास जाकर रोने और चिल्लाने लगे-गरुड़ महाराज! आपके रहते पक्षिकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया।

हम इसका बदला चाहते हैं।

आज उसने टिटिहरी के अण्डे नष्ट किए हैं, कल वह दूसरे पक्षियों के अण्डों का बहा ले जाएगा।

इस अत्याचार की रोकथाम होनी चाहिए, अन्यथा सम्पूर्ण पक्षिकुल नष्ट हो जाएगा।

गरुड़ ने पक्षियों का रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया।

उसी समय उसके पास भगवान् विष्णु का दूत आया। उस दूत द्वारा भगवान् विष्णु ने उसे सवारी के लिए बुलाया था।

गरुड़ ने दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि वह विष्णु भगवान् को कह दे कि वे दूसरी सवारी का प्रबन्ध कर लें।

दूत ने गरुड़ के क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा सुनाई!

दूत के मुख से गरुड़ के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान् विष्णु स्वयं गरुड़ के घर गए।

वहाँ पहुँचने पर गरुड़ ने प्रणामपूर्वक विनम्र शब्दों में कहा :

भगवान्! आपके आश्रय का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अण्डों का अपहरण कर लिया है।

इस तरह मुझे भी अपमानित किया है। मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता हूँ।

भगवान् विष्णु बोले-गरुड़! तुम्हारा क्रोध युक्तियुक्त है। समुद्र को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था।

चलो, मैं समुद्र से उन अण्डों को वापस लेकर टिटिहरी को दिलवा देता हूँ।

उसके बाद हमें अमरावती जाना है

तब भगवान् ने अपने धनुष पर आग्नेय बाण को चढ़ाकर समुद्र से कहा-दुष्ट, अभी सब उन अण्डों को वापस दे दे, नहीं तो तुझे क्षण-भर में सुखा दूंगा।

भगवान् विष्णु के भय से समुद्र ने उसी क्षण अण्डे वापस दे दिए।

दमनक ने इन कथाओं को सुनाने के बाद संजीवक से कहा-इसीलिए मैं कहता हूँ कि शत्रुपक्ष का बल जानकर ही युद्ध के लिए तैयार होना चाहिए।

संजीवक-दमनक! यह बात तो सच है, किन्तु मुझे यह कैसे पता लगेगा कि पिंगलक के मन में मेरे लिए हिंसा के भाव हैं।

आज तक वह मुझे सदा स्नेह की दृष्टि से देखता रहा है।

उसकी वक्रदृष्टि का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। मुझे उसके लक्षण बतला दो तो मैं उन्हें जानकर आत्मरक्षा के लिए तैयार हो जाऊँगा।

दमनक-उन्हें जानना कुछ भी कठिन नहीं है।

यदि उसके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी आँखें लाल हो जाएँगी, भवें चढ़ जाएँगी और वह होंठों को चाटता हुआ तुम्हारी ओर क्रूर दृष्टि से देखेगा।

अच्छा तो यह है कि तुम रातोंरात चुपके से चले जाओ। आगे तुम्हारी इच्छा।

यह कहकर दमनक अपने साथी करटक के पास आया। करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा-कहो दमनक! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में ?

दमनक-मैंने तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था, कर दिया, - आगे सफलता दैव के अधीन है।

पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्यसिद्धि न हो तो हमारा दोष नहीं। करटक-तेरी क्या योजना है ?

किस तरह नीतियुक्त काम किया है तूने ? मुझे भी बता।

करटक-मैंने झूठ बोलकर दोनों को एक-दूसरे का ऐसा बैरी बना दिया है कि वे भविष्य में कभी एक-दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे।

करटक-यह तूने अच्छा नहीं किया, मित्र! दो स्नेही हृदयों में द्वेष का बीज बोना बुरा काम है।

दमनक-करटक! तू नीति की बातें नहीं जानता, तभी ऐसा कहता है। संजीवक ने हमारे मन्त्रिपद को हथिया लिया।

वह हमारा शत्रु था। शत्रु को परास्त करने में धर्म-अधर्म नहीं देखा जाता। आत्मरक्षा सबसे बड़ा धर्म है।

स्वार्थ-साधन ही सबसे महान कार्य है। स्वार्थ-साधन करते हुए कपट-नीति से ही काम लेना चाहिए, जैसे चतुरक ने लिया था।

करटक ने पूछा-कैसे ? दमनक ने तब चतुरक गीदड़ और शेर की यह कहानी सुनाई :