एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे।
समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था।
ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की।
संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुँचा।
गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, 'तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो।
तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है।
तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।'
शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे।
वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा।
कई हजार पृष्ठ भर गए | पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, 'यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया।
मेरी मृत्यु करीब है।
इतना न पढ़ सकूंगा।
तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।'
पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गए।
अब केवल सौ पृष्ठ थे।
गुरू ने कहा, मैं 'यह भी ज्यादा है।
इसे और संक्षिप्त कर लाओ।' कुछ समय बाद शिष्य लौटा।
एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे।
कहा, तुम्हारे लिए ही रूका हूँ। तुम्हें समझ कब आएगी ?
और संक्षिप्त कर लाओ।' शिष्य को होश आया।
भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया।
गुरू के हाथ में खाली कागज दिया।
गुरू ने कहा, अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।'
कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूँ। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।
निष्कर्ष :
गुरू तो ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत है, उसे अज्ञानी बनकर ही हासिल किया जा सकता है।
पंडित बनने से गुरू नहीं मिलते।