क्रोध के सामने शांत-भाव रखें

बुद्ध एक दिन वैशाली में प्रवचन दे रहे थे।

विशाल जनसमूह

उन्हें अत्यंत शांति और तन्मयता से सुन रहा था।

कहीं कोई शोर नहीं

था, मात्र बुद्ध की वाणी गूँज रही थी।

बुद्ध के शिष्यों के साथ उपस्थित लोग

बुद्ध के अमृत वचनों का पान पूर्ण एकाग्रता से कर रहे थे।

तभी उस शांत

वातावरण में खलल उत्पन्न करती एक व्यक्ति की जोरदार आवाज आई,

“आज मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्‍यों नहीं दी गई?

'' बुद्ध उस व्यक्ति

का चिल्लाना सुनकर भी मौन रहे | उस व्यक्ति ने पुन: चिल्लाकर यही प्रश्न

पूछा। बुद्ध ने नेत्र बंद कर लिये। उनका एक शिष्य बोल उठा, “भगवान्‌ !

बाहर खड़े अपने इस शिष्य को अंदर आने की अनुमति दीजिए।/' बुद्ध ने.

नेत्र खोलकर कहा, “नहीं, यह अस्पृश्य है।”' शिष्यगण बुद्ध के मुँह से अस्पृश्य

शब्द सुनकर विस्मित हुए और उन्होंने पूछा, “वह अस्पृश्य क्यों?

कैसे?

भगवन्‌! आपके धर्म में तो जात-पाँत का भेद नहीं है।'' बुद्ध बोले, '' आज

यह क्रोध में आया है

क्रोध से जीवन की एकता भंग होती है।

क्रोधी मानसिक

हिंसा करता है। किसी भी कारण से क्रोध करनेवाला अस्पृश्य है।

उसे कुछ

देर तक स्मरण कर लेना चाहिए कि अहिंसा परम धर्म है।''

कथा का उपदेश यह है कि क्रोध एक असात्विक भाव है, जो कर्ता

और भोकक्‍ता दोनों के लिए हानिकारक होता है। अत: इससे बचते हुए शांति

से विचारने व कार्य करने की प्रवृत्ति अपनानी चाहिए। शांत मन और

मस्तिष्क ही विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम होते हैं।