बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म भ्रमण करते हुए एक गाँव में पहुँचे। लोग उनका
बहुत आदर करते थे। बोधिधर्म व उनके शिष्यों का ग्रामीणों ने हार्दिक
सत्कार किया और फिर उनके पवित्र वचनों को सुनने के लिए उनके आस- पास एकत्रित हो गए।
बोधिधर्म लोगों को धर्म और आचरण विषयक अच्छी बातें सरल भाषा में समझाने लगे, तभी वहाँ
एक व्यक्ति आया और बोधिधर्म को अपशब्द कहने लगा।
उपस्थित जनसमूह ने उसे रोकने का बहुत प्रयास किया, किंतु वह नहीं माना तथा अनवरत बोधिधर्म को बुरा-भला कहता रहा।
लोगों ने कहा कि महाराज !
यह व्यक्ति कितना उद्दंड है, निरर्थक ही आपको अपशब्द कह रहा है।
बोधिधर्म उस व्यक्ति के इस आचरण पर कदापि क्रोधित नहीं हुए और लोगों से बोले कि यह भविष्य में मेरा सबसे बड़ा भक्त बनने वाला है ।
लोगों ने पूछा कि कैसे? बोधिधर्म ने उत्तर दिया,
“कोई कुम्हार के यहाँ घड़ा लेने जाता है तो घड़े को बजाकर देखा जाता है कि वह फूटा हुआ तो नहीं है।
जब एक-दो रुपए के घड़े की कोई इतनी परखकर सकता है तो भला जिसे गुरु मानना है,
उसे दस-बीस गालियाँ दिए बगैर कैसे पहचानेगा?
पहले वह परीक्षा लेगा कि गुरु में धैर्य, आक्रोश व समता भाव कितना है।
यह जानने के बाद ही तो वह गुरु को स्वीकारेगा, इसलिए यह व्यक्ति मुझे निरर्थक ही अपशब्द नहीं कह रहा है"
और आगे चलकर वास्तव में वह व्यक्ति बोधिधर्म का सबसे बड़ा भक्त बना ।
किसी को शिक्षा देने से पूर्व स्वयं का आचरण भी तदनुरूप होना चाहिए,
तभी गुरु का महान् पद मिलता है।
वस्तुतः गुरु की गुरुता तभी स्वीकारी जाती है,
जबकि उसमें सदाचरण के सभी लक्षण मौजूद हों।