बुद्ध ने सेठ को ज्ञान दिया

गौतम तम बुद्ध संन्यास ग्रहण कर चुके थे और उन्होंने

अपना जीवन दूसरों की सेवा तथा जनकल्याण को समर्पित कर दिया था ।

गौतम बुद्ध अनेक स्थानों की यात्रा करते और अपने अनमोल उपदेशों से लोगों का नैतिक जीवन सुधारने का प्रयास करते ।

बुद्ध अनेक कथाओं और उदाहरणों के माध्यम से अपनी बात जनता के समक्ष रखते,

जो सीधे उसके हृदय में उतर जाती।

स्वयं अपना जीवन भी गौतम बुद्ध ने इतना आदर्श बना लिया था

कि सादगी और समानता का वे प्रत्यक्ष उदाहरण बन गए थे ।

एक बार एक धनी सेठ ने उनसे भिक्षाटन हेतु अपने घर आने का आग्रह किया।

बुद्ध ने सहर्ष इस प्रस्ताव को मान लिया।

सेठ ने मेवों की खीर बनवाई थी।

गौतम बुद्ध उसके घर पहुँचे और गोबर से भरा कमंडल आगे बढ़ाते हुए खीर उसमें डालने के लिए कहा।

अस्वच्छ कमंडल देख सेठ ने उसे पहले धोया और फिर उसमें खीर भरकर बुद्ध के हाथ में दे दिया।

यह देख बुद्ध ने सेठ से कहा, “हमारे आशीर्वाद को भी यदि आप खीर जितना ही मूल्यवान समझते हो तो उसे रखने के लिए मन रूपी पात्र को

भी शुद्ध व पवित्र करो ।

गोबर जैसी मलिनता अपने अंतस के भीतर भरे रखने पर ये दान-धर्म आपके किसी काम न आ सकेगा।"

यह सुनकर सेठ की आँखें खुल गईं और उसने अपने पात्र अर्थात् अंतर्मन में भरे दुर्गुणों से मुक्ति पाने का निश्चय किया ।

सार यह है कि धार्मिक कर्मकांड, तीर्थस्थलों की यात्रा, व्रत-उपवास

और दानादि तभी सार्थक व पुण्यदायी होते हैं, जबकि मन विकार रहित और भावना शुद्ध हो ।