तम बुद्ध ने जिस दिन से संन्यास ग्रहण किया, उसी दिन से स्वयं का
संपूर्ण जीवन समाज के कल्याण हेतु समर्पित कर दिया था।
संन्यास पथ पर निरंतर चलते हुए उन्हें गया में निरंजना नदी के किनारे ज्ञान की प्राप्ति हुई।
उनके पवित्र जीवन उद्देश्य को लाखों लोगों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर अपनाया
और अपना सबकुछ जन-लाभार्थ अर्पित कर दिया।
जब बुद्ध का अंतकाल निकट आया तो वे कुछ अस्वस्थ हो चले थे।
इस कारण लोगों से भेंट करना उन्होंने बंद कर दिया था।
उनके शिष्य चौबीस घंटे उनकी परिचर्या करते और किसी भी बाहरी व्यक्ति को उनसे नहीं मिलने देते थे।
उन सभी को बुद्ध के स्वास्थ्य की बहुत चिंता थी।
ऐसे समय एक दिन सुभद्र वहाँ आए और बुद्ध के शिष्यों से आग्रह किया कि बुद्ध से मुझे मिलने दिया जाए,
क्योंकि उनसे भावी परिस्थितियों के विषय में आवश्यक चर्चा करनी है।
शिष्यों ने बुद्ध की अस्वस्थता के बारे में बताकर सुभद्र को अंदर जाने से रोक दिया।
बुद्ध ने जब यह चर्चा सुनी, तो उन्होंने सुभद्र को अंदर बुलाया और अपने परम शिष्य आनंद से कहा,
"मैं भले ही अस्वस्थ हूँ, किंतु लोकमंगल की भावना से मेरे पास आए सुभद्र से न मिलूँ तो अपना जीवन सार्थक कैसे कर पाऊँगा?"
सुभद्र बुद्ध की ऐसी श्रेष्ठ भावना देखकर श्रद्धा से अभिभूत हो —गए।
बुद्ध ने उनकी सभी शंकाओं का समाधान किया ।
बुद्ध से हुई इस भावपूर्ण भेंट से सुभद्र इतना प्रभावित हुए कि अपना सर्वस्व त्यागकर भिक्षु
बन गए और बौद्ध धर्म के प्रचार में भरपूर योगदान दिया।
बुद्ध के अंतिम शिष्य सुभद्र ही थे।
वस्तुतः यदि जीवन में लोकमंगल की भावना को
जिएँ तो सामाजिक कल्याण सही अर्थों में साकार हो उठता है ।