बौद्ध धर्म का आज समूचे विश्व में पुनः प्रचार और प्रसार हो रहा है।
संभवत: भारतीय धर्मों में बौद्ध धर्म के ही अनुयायियों ने सर्वप्रथम विदेशों में अपने
शास्त्र के उपदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों और सागर-पार की यात्राएँ कीं।
एक ओर तिब्बत, चीन, जापान तो दूसरी ओर सुदूर पूर्व एशिया के देशों सहित दक्षिण में
श्रीलंका तक बौद्ध भिक्षु भगवान् बुद्ध के संदेशों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए स्वदेश से बाहर निकले ।
उत्तर-पश्चिम में वे अफगानिस्तान और उससे आगे भी पहुँचे।
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्धदेव का जन्म और उनके द्वारा चलाए गए धर्म का उत्थान कोई आकस्मिक घटना नहीं थी।
वस्तुतः बौद्ध धर्म उस विचारधारा का स्वाभाविक परिणाम था, जो कर्मकांड,
हिंसायुक्त यज्ञ के आडंबर और पुरोहितवाद के विरुद्ध पहले से ही बहती आ रही थी।
तत्कालीन समाज एक प्रकार से बौद्धिक संकट से ग्रस्त था।
जन-साधारण की कठिनाई यह थी कि यज्ञ को छोड़कर उसके आगे धर्म का कोई और मार्ग नहीं था।
किंतु समाज प्रायः यज्ञ के विरुद्ध होता जा रहा था और सामान्य गृहस्थ भी यह महसूस करने लगे थे
कि यज्ञों के आलोचक सच ही तो कह रहे हैं।
उधर, उपनिषदों से जो ज्ञान आ रहा था, उस तक सामान्य जन की पहुँच नहीं थी।
ऐसी स्थिति में जनता किसी ऐसे धर्म की प्रतीक्षा में थी जो जटिल न होकर सुबोध हो,
आडंबर से मुक्त होकर सुगम हो ।
जनता किसी व्यावहारिक् धर्म की तलाश में थी और बुद्धदेव ने वही उसे दिया ।
लगभग बारहवीं शती तक बौद्ध धर्म भारत में बना रहा।
नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला के विश्वविद्यालयों में देश एवं विदेशों के लोग बौद्ध धर्म का अध्ययन करते थे।
उसी काल में बौद्ध धर्म का दुर्गम तिब्बत सहित चीन, जापान, बर्मा,
थाईलैंड, श्रीलंका आदि में व्यापक प्रचार हुआ।