बौद्ध धर्म का मूल

प्रतीत्य समुत्पाद

है- प्रतीत्य

समुत्पाद। इसका अर्थ है - प्रत्ययों से उत्पत्ति का नियम। कहा जाता है, सम्यक् संबोधि प्राप्त कर समय ही भगवान् बुद्ध को इस महान् सत्य का साक्षात्कार हुआ था। भगवान् बुद्ध इसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानते थे। धर्म और प्रतीत्य समुत्पाद की एकता दिखाते हुए उन्होंने कहा था, “जो कोई प्रतीत्य समुत्पाद को देखता है, वह धर्म को देखता है और जो कोई धर्म को देखता है, वह प्रतीत्य समुत्पाद को देखता है।"

भगवान् बुद्ध का अभिप्राय था कि समस्त विश्व कार्य-कारण परंपरा का परिणाम है। प्रत्येक घटना पूर्व घटना का परिणाम होती है। इसी प्रकार, प्रत्येक वस्तु से दूसरी वस्तु उत्पन्न होती है। सभी वस्तुएँ सापेक्ष हैं। वे क्रमशः नष्ट और उत्पन्न होती रहती हैं। इस भाँति कार्य-कारण परंपरा का प्रवाह चलता रहता है। यही जगत् है। यहाँ नित्य कुछ भी नहीं। भगवान् बुद्ध चेतना को मानते हैं, लेकिन वह स्थायी नहीं है। पाँच स्कंधों, अर्थात् रूप, वेदना, विज्ञान, संस्कार और संज्ञा का संघात ही आत्मा है।

बौद्ध धर्म की स्थविरवाद परंपरा के अनुसार प्रतीत्य समुत्पाद का विवरण इस प्रकार है-

1-2 अविद्या के प्रत्यय से संस्कार

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2-3 संस्कारों के प्रत्यय से विज्ञान

3-4 विज्ञान के प्रत्यय से नामरूप

4-5 नामरूप के प्रत्यय से षडायतन

महात्मा बुद्ध की कहानियाँ

5-6 षडायतन के प्रत्यय से स्पर्श 6-7 स्पर्श के प्रत्यय से वेदना

7-8 वेदना के प्रत्यय से तृष्णा

8-9 तृष्णा के प्रत्यय से उपादान

9-10 उपादान के प्रत्यय से भव

10-11 भव के प्रत्यय से जाति (जन्म)

11-12 जाति के प्रत्यय से जरा-मरण, शोक, परिदेव, दुःख, दौर्मनस्य।

जीवन की इन बारह कड़ियों को द्वादश निदान की संज्ञा दी गई है।

इसी द्वादश निदान के अनुसार, भूत संस्कार या भूत जीवन अथवा अतीत से अर्थात् अविद्या एवं संस्कार से वर्तमान जीवन की अर्थात्

भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप विज्ञान की घटनाएँ घटती हैं।

ये आठ निदान अथवा अंग भव कहलाते हैं।

जन्म लेने को जाति की संज्ञा दी गई है और जन्म के साथ ही जरा-मरण और दुःख जुड़ा हुआ है।

प्रतीत्य समुत्पाद के अनुसार, कोई भी घटना बिना किसी कारण नहीं घट सकती और यह कारण या कार्य नित्य नहीं रहता।

कारण के हटते ही कार्य समाप्त हो जाता है। आत्मा अथवा अहम् भाव भी क्षणिक कारणों तथा नित्य परिवर्तनशील घटनाओं के प्रवाह की संतति से होता है।

प्रतीत्य समुत्पाद को जीवन के विकास का क्रम कहा गया है।

उसे दुःख निरोधगामी अष्टांगिक मार्ग की तात्त्विक व्याख्या बताया गया है।

प्रतीत्य समुत्पाद यह बताता है कि प्राणी किस प्रकार अविद्या के कारण नाना अनुभवों और चेतनाओं की अवस्था में भ्रमण करता है।

दुःख का आधिक्य ही प्राणी को दुःख निरोध की ओर ले जाता है।