बौद्ध धर्म में कर्म

कर्म भगवान् बुद्ध के नैतिक आदर्शवाद की आधारशिला है।

बुद्ध शासन कर्म पर ही आधारित है।

कर्म और विपाक के पारस्परिक संबंध एवं अन्योन्याश्रित स्वरूप से ही यह संसार-चक्र चलता है—

कमा विपाका वर्तति विपाकों कम संभवो

कमा पुनब्भवो होति एवं लोको पवतति।

कर्म से विपाक प्रवर्तित होते हैं और स्वयं विपाक कर्म से संभव है।

कर्म से पुनर्जन्म होता है, इस प्रकार यह संसार प्रवर्तित होता है।

भगवान् बुद्ध के कर्म शील पर आधारित हैं।

वे मैत्री, करुणा और दया से परिपूर्ण होते हैं।

क्रोध-लोभजन्य कर्मों का कोई स्थान नहीं।

भगवान् बुद्ध जानते थे कि कर्मों का फल अवश्य मिलेगा।

शुभ कर्मों का शुभ एवं अशुभ कर्मों का अशुभ फल प्राप्त होगा।

एक बार उन्होंने भिक्षुओं से प्रवचन के दौरान

कहा—

भिक्षुओ, क्रोध को छोड़ो, लोभ को छोड़ो, द्वेष को छोड़ो।

मैं तुम्हारा जामिन बनता हूँ, तुम्हें फिर इस संसार में नहीं आना पड़ेगा।

कर्म के तीन स्वरूप होते हैं— कायिका, वाचसिक एवं मानसिक।

बौद्ध धर्म में दस अकुशल कर्मों का प्रतिपादन है। ये हैं, कायिक—प्राणतिपात, प्राणिहत्या, अदतादान-चोरी, कामेसु भिच्छाचार, कामभोग संबंधी दुराचार।

वाचसिक—मुसावाद-मिथ्या भाषण, पिशुनावाचा-पिशुन वचन, पुरुषा

वाचा-कठोर वचन, सफ लाफ-व्यर्थ आलाप ।

मानसिक—अभिबजा-लोभ, व्यापाद-मानसिक हिंसा, मिच्छादिष्टि ।

भगवान् बुद्ध की इन शिक्षाओं का मुख्य लक्ष्य दुःख निवृत्ति है। उन्होंने इन बातों को चार भागों में विभक्त किया है। इन्हीं को चार आर्य- सत्य कहते हैं—

दुःख–जीवन दुःखों से भरा है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, प्रिय-वियोग, अप्रिय की प्राप्ति आदि सभी दुःख हैं।

दुःख - समुदाय - दुःख किसी कारण से उत्पन्न होते हैं।

दुःख-निरोध-

- उनका अंत हो सकता है।

दुःख–निरोध मार्ग-उनके अंत का उपाय है।

जीवन में प्रगति के लिए इन चारों बातों को मानना आवश्यक है।

जो व्यक्ति दुःख का अस्तित्व ही नहीं मानता, वह उनका अंत करने के लिए प्रयत्न ही क्यों करेगा?

इसी प्रकार यदि दुःख बिना कारण के उत्पन्न हो जाते हैं तो उनका अंत होना असंभव है।

साधना के लिए वह विश्वास भी आवश्यक है कि दुःखों का अंत हो सकता है और उसका उपाय है।

दु:ख को बताने के लिए बौद्ध धर्म में एक चक्र का प्रतिपादन किया गया है, जिसमें बारह आरे, अर्थात् बातें हैं।

एक बात से दूसरी बात उत्पन्न होती है और चक्र चलता रहता है।

जरा-मरण (1) आदि दु:ख तभी होते हैं, जब जाति (2) अर्थात् जन्म होता है, जाति तब होती है,

जब भव (3) अर्थात् उसे ग्रहण करने की इच्छा हो।

यह इच्छा उपादान (4) अर्थात् आसक्ति के कारण होती है।

उत्पादन का कारण है तृष्णा (5) अर्थात् बाह्य विषयों की लालसा ।

तृष्णा वेदना (6) अर्थात् अनुकूल या प्रतिकूल की अनुभूति से उत्पन्न होती है।

वेदना स्पर्श (7) अर्थात् इंद्रिय और विषयों के परस्पर-संबंध से उत्पन्न होती है।

स्पर्श का कारण है षडायतन (8) अर्थात् इंद्रियाँ। षडायतन का आधार नामरूप (9) अर्थात् शरीर और चेतना का गर्भ के रूप में प्रथम संबंध है।

यह संबंध विज्ञान (10) अर्थात् मूल अनुभूति के कारण होता है।

विज्ञान का कारण पूर्वजन्म के संस्कार ( 11 ) और संस्कारों का कारण अविद्या (12) है।

यह क्रम सर्वत्र एक सा नहीं है। बुद्ध ने अपने उपदेशों में बार-बार इसका उल्लेख किया है।

इनको निदान (संसार का कारण) और भव-चक्र शब्द से भी प्रकट किया है।

श्रद्धालु बौद्ध बारह मणियों की माला रखते हैं और उसे घुमाते रहते हैं।

वह इसी चक्र का प्रतीक है।

दुःख का इस प्रकार निदान हो जाने के पश्चात् उसके निरोध (निर्वाण) का मार्ग ढूँढ़ना और उसका अनुसरण करना चाहिए।

इसी मार्ग को ‘निरोधगामिनी प्रतिपदा' (मध्यम) कहते हैं। यह अष्टांग भी कहलाता है। आठ अंग निम्नलिखित हैं-

(1) सम्यक् दृष्टि (जीवन में यथार्थ दृष्टिकोण)

(2) सम्यक् संकल्प (यथार्थ दृष्टिकोण से यथार्थ विचार) (3) सम्यक् वाचा (यथार्थ विचार से यथार्थ कर्म)

(4) सम्यक् कर्मांत (यथार्थ वचन से यथार्थ कर्म)

(5) सम्यक् आजीव (यथार्थ कर्म से उचित जीविका ) (6) सम्यक् व्यायाम (उचित जीविका के लिए उचित प्रयत्न) (7) सम्यक् स्मृति (उचित प्रयत्न से उचित स्मृति)

(8) सम्यक् समाधि (सम्यक् स्मृति से सम्यक् जीवन का संतुलन) । बुद्ध का मुख्य बल जीवन को सुधारने पर था ।

तृष्णा, मोह आदि जिन कारणों से मनुष्य दुःखी होता है, उनका विश्लेषण और उनसे ऊपर उठने का उपाय बताना ही उनका लक्ष्य था ।

जब कोई व्यक्ति उनसे आत्मा, परलोक, विश्व का मूल कारण आदि दार्शनिक बातों के विषय में पूछता तो वे इस चर्चा को व्यर्थ कहकर टाल देते थे।

उनका कहना था कि जिस व्यक्ति की छाती में तीर घुसा हुआ है और रक्त बह रहा है, उसका पहला काम तीर को निकालना है,

न कि इस आशय की जानकारी प्राप्त करना कि वह तीर किसने बनाया, किसने उसे चलाया और वह किस धातु का बना

हुआ था। उनका मानना था कि इन प्रश्नों की चर्चा में पड़ना मूर्खता है।

बुद्ध ने दस बातों को ‘अव्याकृत' बताया है, अर्थात् इनके विषय में कोई निश्चित बात नहीं कही जा सकती,

इनकी चर्चा को व्यर्थ बताया है (1) क्या विश्व अनादि है ?

(2) क्या विश्व सादि है? (3) क्या यह अनंत है?

(4) क्या वह शांत है ? (5) क्या शरीर और आत्मा एक है?

(6) क्या वे परस्पर भिन्न हैं? (7) क्या बुद्ध मृत्यु के पश्चात् रहते हैं?

(8) क्या वे नहीं रहते? (9) क्या वे रहते और नहीं भी रहते?

(10) क्या वे नहीं रहते हैं और न नहीं भी रहते हैं?

यद्यपि, संयुक्त निकाय में इन प्रश्नों को ‘अव्याकृत' कहा गया है,

फिर भी बौद्ध दार्शनिकों ने इन बातों को लेकर पर्याप्त चर्चा की है।