बौद्ध धर्म में निर्वाण अंतिम लक्ष्य, अमृत पद माना गया है।
बौद्ध धर्म के अनुसार राग, द्वेष और मोह संसार की समस्त बुराइयों, समस्त दु:खों की जड़ है।
इनसे ग्रस्त व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता।
राग, द्वेष, मोह से मुक्ति का नाम ही निर्वाण है।
भगवान् बुद्ध ने और बाद में उनके शिष्यों और अनुयायियों ने बारंबार निर्वाण की प्रशंसा की है।
धीरा नामक भिक्षुणी से भगवान् बुद्ध ने कहा था, 'धीरे, तू निर्वाण की आराधना कर, जो अद्वितीय योगक्षेम है।"
भगवान् बुद्ध ने निर्वाण को 'महासुख' भी कहा है और अहंभाव को विसर्जित करनेवाला व्यक्ति इस महासुख की अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
निर्वाण दु:ख-विमुक्ति की अवस्था है और इसलिए वह परमसुख भी है, ऐसा परमसुख जो निरामिष, आलंबन की अपेक्षा से रहित है।
इस निर्वाण को भगवान् बुद्ध द्वारा निर्देशित अष्टांगिक मार्ग पर चलकर उपलब्ध किया जा सकता है।
प्रारंभिक बौद्ध साधना में निर्वाण एक उच्चतमं आध्यात्मिक अनुभव था।
यह अनुभव उच्चतम साधना की अवधि में ही प्राप्त होता है।
यह उच्चतम साधना अहंभाव का विसर्जन करती थी, नाश करती थी,
और फलतः व्यक्ति भवसागर पार कर जाता था।
पर इसके लिए 'यह मैं हूँ' का भ्रम दूर करना अनिवार्य था ।