बौद्ध धर्म का दर्शन

भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद वैशाली में आयोजित बौद्ध संघ

भगवा

की द्वितीय संगति के परिणामस्वरूप महासांघिकों की एक अलग सभा का एक प्रभावशील वर्ग स्थविरवाद परंपरा से अलग हो गया था।

व’' शब्द अनेक बार आया है। भगवान् बुद्ध जब अपने पूर्व जन्मों में बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए साधना कर रहे थे, तब वह बोधिसत्व ही भविष्य का बुद्ध है।

महायान का सर्वकल्याणकारी महान् सिद्धांत यह है कि बोधिसत्व वह महाप्राणी है, जो विश्व के समस्त प्राणियों की मुक्ति की उपलब्धि तक अपने व्यक्तिगत निर्वाण को स्वीकार नहीं करता। इस तरह दूसरों की विमुक्ति के लिए, पर मुक्ति के लिए, अपनी आत्म-मुक्ति की बलि चढ़ा देता है। यह एक महान् त्याग है। एक तरह से यह मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है। बोधिसत्व व्यक्तिगत निर्वाण को त्यागकर परसेवा में तल्लीन रहते हैं। वे दुःखपूर्ण संसार का मार्गदर्शन करते हैं, उसे दुःखों से मुक्ति दिलाते हैं। उन्हें अपने व्यक्तिगत निर्वाण की चिंता नहीं होती । स्वयं भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं से बारंबार जोर देकर कहा था, "बहुजन के हितार्थ, भिक्षुओ ! घूमो बहुजन के सुखार्थ।"

जातकट्ट-कथा (जातक कथा) – निदान कथा में बोधिसत्व का कथन है, “मुझ शक्तिशाली पुरुष के लिए अकेले तर जाने से क्या लाभ? मैं तो सर्वज्ञता को प्राप्त कर देवता सहित इस सारे लोक को तारूँगा।"

'बोधिचर्यावतार' में आचार्य शांतिदेव (सातवीं शती) कहते हैं,

"प्राणियों की विमुक्ति के समय जो आनंद उमड़ते हैं, वही पर्याप्त हैं, रस- विहीन मोक्ष का क्या करना?"

‘शिक्षासमुच्चय' में बोधिसत्व की घोषणा है, "मैं सब प्राणियों को मुक्ति दिलवाऊँगा। जब तक एक भी प्राणी बाकी है, मैं बिना निर्वाण प्राप्त किए ठहरा रहूँगा।”

बोधिसत्व संबंधी इस विचार के विकास की मुख्य छह अवस्थाएँ मानी गई हैं।

सर्वप्रथम, अवलोकितेश्वर बोधिसत्व का आविर्भाव हुआ। वे भगवान् बुद्ध की करुणा के प्रतीक थे।

उनके बाद मंजुश्री बोधिसत्व आए। वे भगवान् बुद्ध की प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करते थे। प्रज्ञा का स्थान करुणा से ऊपर था। कालांतर में करुणा ने प्रज्ञा से वरीयता प्राप्त कर ली।

अन्य प्रमुख बोधिसत्व हैं—समंतभद्र, वज्रपाणि, वज्रगर्भ, क्षितिगर्भ, रत्नगर्भ, सर्वावरणविष्कभिन् और मैत्रेय । बौद्ध धर्म में करुणा का स्थान सर्वोपरि होता गया।

पीड़ित, दु:खी लोगों की सेवा निर्वाण से अधिक जरूरी और महत्त्वपूर्ण हो गया। फलतः करुणा के प्रतीक अवलोकितेश्वर बोधिसत्व को भी बोधिसत्वों की परंपरा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया। अवलोकितेश्वर का ही विश्वप्रसिद्ध मंत्र है, “ॐ मणि पद्मे हुँ।”