बौद्ध धर्म में भक्ति

पने आराध्य की आराधना, पूजा और भक्ति मनुष्य के स्वभाव की

अपने

विशेषता है, फिर वह आराध्य चाहे, 'परंब्रह्म' की भाँति अनादि, अनंत और इंद्रियातीत हो अथवा

भगवान् बुद्ध एवं आराध्य महावीर या यीशु मसीह की तरह देहधारी।

अपने आराध्य की भक्ति में मनुष्य को न केवल आत्मिक सुख प्राप्त होता है,

वरन् वह इस भक्ति से आत्मिक बल एवं दिव्य ऊर्जा भी पाता है।

भक्ति के लिए कोई-न-कोई आलंबन जरूरी है।

मनुष्य इस आलंबन के बिना नहीं रह सकता, चाहे वह मूर्तिपूजक हो अथवा मूर्तिपूजा का विरोधी ।

बौद्ध धर्म में भगवान् बुद्ध के प्रति आत्मार्पण एवं भक्ति उनके जीवन- काल में ही प्रारंभ हो गई थी।

महायान ने इस सहज प्रवृत्ति को व्यवस्थित रूप दिया।

महायान के आचार्य, जो पूर्व में विद्वान् ब्राह्मण थे, भक्ति की यह भावना, जो स्तुति रूप में ऋग्वैदिक काल से चली आ रही थी, बौद्ध धर्म में और भी प्रबल रूप से ले आए।

महायान के उद्भव और विकास के समय भारत में वासुदेव की पूजा प्रचलित थी।

उसके साथ-साथ शैवसाधना भी विकसित हो रही थी।

फलतः, इन सबके प्रभाव से महायानी आचार्य असंपृक्त न रह सके।

डॉ. हरदयाल का मत है कि 'पूर्वतम काल से भक्ति बौद्ध आदर्श का अविभाज्य अंग थी।

' महायान ने इस भक्तिभाव को और पुष्ट किया।

फलतः, भगवान् बुद्ध के प्रति पूर्णत: शरणागत हो भिक्षु एवं गृहस्थ भी उनके नाम का जप करने लगे।

'शिक्षा समुच्चय' और

'बौद्धचर्यावतार' में बोध-चित की उत्पत्ति के लिए वंदना-पूजा, शरणागति,

पाप देशना अर्थात् अपने पापों की स्वीकृति, उनका उद्घाटन, प्रार्थना- याचना को आवश्यक बताया गया है।

भिक्षु धर्मों के साथ सेवाकार्य का सम्मिश्रण बौद्ध धर्म की विशिष्ट देन है।