अशोक सिद्ध हुए सच्चे उत्तराधिकारी

मौर्य सम्राट् बिंदुसार अपने बड़े पुत्र को राजगद्दी का उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहते थे।

उनकी इच्छा थी कि उनके सभी पुत्रों की योग्यता की परीक्षा ली जाए और जो शत-प्रतिशत इस परीक्षा

में खरा उतरे, उसे उनका उत्तराधिकारी बनाया जाए।

उनके परिजन और राज्य के अधिकारी उनसे सहमत थे।

बहुत विचार-विमर्श के बाद सम्राट् बिंदुसार ने महात्मा पिंगलवत्सजीव को यह दायित्व सौंपा कि वे उनके सभी पुत्रों को

परख कर उत्तराधिकारी तय करें।

पिंगलवत्सजीव ने सभी राजकुमारों को एक निश्चित दिन तय कर अपने पास बुलाया।

सभी राजकुमार पिंगलवत्सजीव के पास पहुँचे।

अशोक को छोड़कर शेष सारे राजकुमार अतिरिक्त रूप से सज-सँवरकर, महात्मा पिंगलवत्सजीव के सामने उपस्थित हुए।

अशोक नितांत साधारण वेशभूषा में था।

पिंगलवत्सजीव ने अलग-अलग सभी को बुलाया और सभी से एक ही प्रश्न पूछा, "तुमने क्या-क्या पढ़ा-सीखा है?"

सभी ने राजसी अहंकार के साथ विविध विधाओं में अपनी दक्षता का बखान किया, किंतु अशोक ने विनम्रता से कहा, 'भगवन्!

वैसे तो मैंने बहुत कुछ पढ़ा है, लेकिन सबका सार यही पाया है कि दीन दुःखियों की सेवा और

बड़ों का आदर-सत्कार करना हमारा मूल धर्म है।

मैंने तय किया है कि सदा इस धर्म का पालन करूँगा।

यही मेरे जीवन का उद्देश्य है।”

अशोक का उत्तर सुनकर पिंगलवत्सजीव ने उसे उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और भविष्य में सम्राट् अशोक ने अपने सत्कर्मों से उनके निर्णय

को सही साबित कर दिया। सच्ची शिक्षा

है, जो मानवीय धर्म सिखाए

और सच्चा शिक्षित वही है, जो इस धर्म को अपनी वाणी व आचरण में समूचा

उतारकर अपने मानव होने को सिद्ध करे। आगे चलकर सम्राट्

अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और वे भिक्षु बन गए ।