गौतम बुद्ध उन दिनों संन्यासी नहीं हुए थे।
उनका नाम सिद्धार्थ था।
एक राजकुमार के रूप में सिद्धार्थ तनिक भी अहंकारी नहीं थे।
वे सभी से स्नेहपूर्वक मिलते, बातचीत करते ।
जहाँ किसी को कष्ट में देखते, तत्काल सहायता हेतु तत्पर हो जाते।
सिद्धार्थ का चचेरा भाई था - देवदत्त।
सिद्धार्थ जितने दयालु और करुणावान् थे, देवदत्त उतना ही दुष्ट था।
एक दिन दोनों भ्रमण कर रहे थे । देवदत्त के पास धनुष था ।
अचानक उसे एक पक्षी दिखाई दिया।
उसने तत्काल तीर चला दिया।
पक्षी घायल होकर सिद्धार्थ की गोद में आ गिरा। सिद्धार्थ ने पक्षी को अपने हाथों में उठाकर पानी पिलाया।
उसके घाव पर मरहम लगाया।
फिर उसे स्नेह से सहलाने लगे।
पक्षी उनके स्नेह व सेवा से स्वस्थ हो गया।
तभी देवदत्त ने सिद्धार्थ के पास आकर नाराजगी से कहा, "यह पक्षी मेरा शिकार है।
इसे मुझे दे दो।” देवदत्त की दुष्टता को देखकर सिद्धार्थ पक्षी देने के लिए राजी नहीं हुए।
देवदत्त ने न्यायालय में उनकी शिकायत की।
सिद्धार्थ ने न्यायाधीश से निवेदन किया कि मैंने पक्षी के प्राण बचाए, इसलिए वह मेरा है,
जबकि देवदत्त का तर्क था कि पक्षी पर निशाना मैंने साधा, इसलिए वह मुझे मिलना चाहिए।
न्यायाधीश ने निर्णय लिया कि जो व्यक्ति किसी का जीवन बचाता है, वही उस प्राणी का सच्चा अधिकारी होता है,
न कि वह जो उसके जीवन को समाप्त करने का अपराधी होता है,
इसलिए यह पक्षी सिद्धार्थ का है। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, क्योंकि
जीवन लेना आसान है और जीवन देना अत्यंत कठिन।
वस्तुतः मानवीयता का भी यही तकाजा है और मनुष्य को अपनी
इस सबसे महत्त्वपूर्ण पहचान को सुरक्षित रखना चाहिए।