एक बार बादशाह अकबर ने मध्य प्रदेश के एक गाँव में अपना दरबार लगाया।
उसी गाँव में एक युवा किसान महेश दास भी रहता था। महेश ने बादशाह अकबर की घोषणा सुनी कि उस कलाकार को बादशाह एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देंगे जो उनकी जीवंत तस्वीर बनाएगा।
निश्चित दिन पर बादशाह के दरबार में कलाकारों की भीड़ लग गयी।
हर कोई दरबार में यह जानने को उत्सुक था कि एक हजार स्वर्ण मोहरों का इनाम किसे मिलता है।
अकबर एक ऊँचे आसन पर बैठे और एक के बाद एक कलाकारों की तस्वीर देखते और अपने विचारों के साथ तस्वीरों को एक-एक कर मना करते गये और बोले यह एक दम वैसी नहीं है जैसा मैं अब हूँ।
जब महेश की बारी आयी जो कि बाद में बीरबल के नाम से प्रसिद्ध हुए, तब तक अकबर परेशान हो चुके थे और बोले क्या तुम भी बाकि सब की तरह ही मेरी तस्वीर बना कर लाये हो ?
लेकिन महेश बिना किसी भय के शांत स्वर में बोला, मेरे बादशाह अपने आपको इसमें देखिए और स्वयं को संतुष्ट कीजिये।
आश्चर्य की बात यह थी कि यह बादशाह की कोई तस्वीर नहीं थी बल्कि महेश के वस्त्रों से निकला एक दर्पण था।
अकबर ने महेश दास का सम्मान किया और उसे एक हजार स्वर्ण मोहरें उपहार स्वरूप दीं।
बादशाह ने महेश को एक राजकीय मोहर वाली अंगूठी दी और फतेहपुर सीकरी अपनी राजधानी में आने का नियंत्रण दिया।