जब महेश दास बड़े हुए तो उन्होंने बचाकर रखी थी, उसके साथ राजकीय अंगूठी ली तथा अपनी माँ से विदा लेकर बादशाह की राजधानी फतेहपुर सीकरी की तरफ चल दिए।
राजधानी में पहुंचकर महेश दास आश्चर्यचकित रह गये। बाजारों की चकाचौंध व रौनक जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी।
बाजारों में बिकते रंग-बिरंगे वस्त्र, गहने, उन से बनी टोपियां देखकर उनकी आँखे खुली की खुली रह गयी।
बड़े-बड़े ऊंट, पानी बेचने वालों की आवाजें, जादुगरों द्वारा जुताई गयी भीड़, मंदिरों से आती आवाजें सब उसे आकर्षित कर रही थी।
लेकिन महेश अपनी यात्रा के मकसद को बिना भूले महल की तरफ चल दिया। महल के द्वार पर की गयी सुंदर नक्काशी को देखकर महेश को लगा कि यह बादशाह के महल का प्रवेश द्वार है, लेकिन वह तो शाही दरबार का बाहरी छोर था।
महेश जब महल के द्वारा पर पहुंचा तो द्वारपाल ने उसका रास्ता रोकते हुए पूछा 'कहाँ जा रहे हो ?'
मैं बादशाह सलामत से मिलने आया हूँ। महेश ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया।
द्वारपाल ने कहा, मूर्ख तुम क्या सोचते हो कि बादशाह अकबर को केवल यही कार्य रह गया है कि वो हर किसी के साथ मुलाकात करते रहें।
उसने महेश को वहां से लौट जाने के लिए कहा।
लेकिन जैसे ही महेश ने अकबर की दी हुई शाही अंगूठी निकाली सैनिक चुप हो गया और दूसरे सैनिक ने राजसी मोहर को पहचान लिया।
यह देखकर उसने महेश को अंदर जाने की आज्ञा दी पर वह उसे ऐसे ही नहीं छोड़ना चाहता था।
उसने तब महेश से कहा कि तुम एक शर्त पर अंदर जा सकते हो।
तुम्हें बादशाह से जो भी मिलेगा तुम मुझे उसका आधा दोगे।
महेश ने मुस्कुराते हुए कहा, ठीक है और वह वहां से चला गया। महेश उस सैनिक को सबक सीखना चाहता था ताकि वह फिर भ्रष्ट कार्य न करे।
महेश राजकीय बगीचों से होता हुआ, जहाँ ठंडे पानी के फव्वारे थे, पूरी हवा में गुलाब की महक थी, ठंडी हवा बह रही थी, एक आलीशान भवन तक पहुंचा जहाँ पर सभी दरबारी महंगे वस्त्र पहने हुए थे।
उन सबको देखकर महेश दंग रह गया।
अंत में उसकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी, जो एक ऊँचे आसन पर बैठा था जो कि सोने से बना हुआ था और उस पर हीरे मोती जड़े थे, उसे देखकर महेश को समझते देर नहीं लगी की यही अकबर हैं।
महेश सभी दरबारियों को पीछे धकेलता हुआ बादशाह के तख्त तक जा पहुंचा और बोला - हे बादशाह आपकी शान में कभी कोई कमी न आये अकबर मुस्कुराये और बोले, बताओ तुम्हें क्या चाहिए ?
महेश बोला, मैं यहां आपके बुलाने पर आया हूँ और यह कहते हुए उसने वह अंगूठी बादशाह को वापिस कर दी जो कुछ साल पहले बादशाह ने उसे दी थी।
अकबर ने हँसते हुए महेश का स्वागत किया और पूछा, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ तुम्हें क्या दे सकता हूँ ?
दरबारी उस अजीब से दिखने वाले व्यक्ति को देखकर हैरान थे कि आखिर यह कौन है जिसे बादशाह इतना सम्मान दे रहे हैं।
महेश ने कुछ पल सोचा और कहा, आप मुझे सौ कोड़े मारने की सजा दीजिये।
यह सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया।
बादशाह अचरज से बोले क्या कहते हो ? तुमने तो कुछ गलत नहीं किया जिसके लिए तुम्हें सौ कोड़े दिए जाएं।
क्या बादशाह सलामत मेरी दिल्ली इच्छा को पूरा करने के वायदे से पीछे हट रहे हैं ?
नहीं, एक राजा कभी अपने शब्दों से पीछे नहीं हटता।
अकबर ने बड़े हिचकिचाते हुए सैनिक को आदेश दिया की महेश को सौ कोड़े लगाये जाएं। महेश ने अपनी पीठ पर हर कोड़े का वार बिना किसी आवाज के सहन किया।
जैसे ही पचासवां कोड़ा महेश की पीठ पर पड़ा वह एकदम अलग कूद कर चिल्लाया - रुको।
तब अकबर भी हैरान होते हुए बोले ' अब तुम्हें समझ आया कि तुम कितने पागल हो ?'
नहीं जहाँपनाह, मैं जब महल में आपको देखने आना चाहता था तब मुझे महल के अंदर आने की आज्ञा इसी शर्त पर मिली थी की मुझे आपसे जो भी मिलेगा उसका आधा उस सेवक को दिया जायेगा।
इसलिए कृपा करके बाकी के कोड़े उसे लगाए जाएं।
पूरा दरबार हंसी के ठहाकों से गूंज उठा। जिनमें अकबर की हंसी सबसे ऊँची थी।
इसी के साथ उस सैनिक को दरबार में आकर अपनी घूस लेने की आज्ञा दी गयी।
अकबर ने महेश से कहा, तुम अब भी इतने ही बहादुर हो जितने पहले थे लेकिन तुम पहले से भी चालाक हो गए हो।
मैं इतने प्रयत्नों के बावजूद भी अपने दरबार से भ्रष्टाचार नहीं हटा सका, लेकिन तुम्हारी छोटी-सी चालाकी से लालची दरबारियों को सबक मिल गया।
इसलिए आज से मैं तुम्हें बीरबल के नाम से पुकारूंगा और तुम दरबार में मेरे साथ बैठोगे और हर बात में मुझे सलाह दोगे।