रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल।
छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।
झोंपड़े के इर्द-गिर्द केले, नारंगी, नासपाती के दरख्त, फल-फूल और हरे-पीले पत्तों पत्तों से लदे हुए। झोंपड़े के सामने एक अमरुद का पेड़, खूंटे से बंधा एक बछड़ा था।
पेड़ के नीचे बैठी वह, जंगली बेंतों और बॉस की पतली-पतली तीलियों से डोको बना रही थी।
प्यारा-सा सुकुमार बच्चा गोद में मीठी नींद ले रहा था।
किसी गीत की कड़ी को गुनगुनाती हुई वह काम कर रही थी।
उसके हाथ मशीन की भांति चल रहे थे।
बेंतों और तीलियों को काटते-संभालते गुनगुनाहट का कर्म तो रुक भी जाता, पर उसकी स्मृतियों के तार न टूटते थे।
हौं, कभी-कभी सामने की मटमैली ---धुंधली पहाड़ी की ओर नजर उठाकर देख लेती अपनी गोद में सोए प्यारे बच्चे को और पेड़ में पके अमरूदों को।
तब उसके मानस-पट पर चलनेवाले स्मृतियों के सवाक चित्रपट के एकाध अस्फुट शब्द बाहर निकल पड़ते।
और यह अमरुद का पेड़ तो एकदम बच्चा था उस समय, अब तो फलने लगा है! मन ही मन हिसाब लगाकर जोड़ती-ग्यारह ! और फिर अतीत की स्मृतियाँ, चल-चित्र के समान क्रमबद्ध चलने लगतीं - ग्यारह वर्ष बीत गए।
अमरुद का यह पेड़ और महज अट्ठारह वर्ष की थी वह! फागुन का महीना। ...
ऐसी ही धीरे-धीरे बहती हुई वासंती हवा, इसी पेड़ के पास खड़ी होकर, सजल नेत्रों से उनको विदाई देती हुई वह! पीठ पर डोको लादे, सतरंगे ऊनि कमरबंध से खुखरी को कमर में बाँधते हुए उन्होंने कहा था - रुन्छस ? दुत बावली! म च्यांदे यो डोको फ्री रुपया लियेर फरकयूँला, धीरज बहादुर को दुलहिन लाय हेरन!
तेस्को कान को झूमका, नाक को नथिया -जम्मे कलकत्ता को नै कमाई हो, कलकत्ता माँ रुपयां तैयार हुंछ.....!
(रोती हो ? दुत् पगली ! मैं जल्दी ही डोको भर रुपया लेकर लौटूंगा। धीरज बहादुर की स्त्री को देखो न! उसके कान के झुमके, नाक की नथिया - सब कलकत्ता की कमाई ही तो है। कलकत्ते में रुपए बनते हैं। ...... )
ग्यारह वर्ष पहले के विदा वेला के - आलिंगन-चुंबन को याद कर उसका हृदय धड़कने लगता, होंठ फड़कने लगते और नसों में बिजली दौड़ जाती।
गाँव का आवारा, लफंगा बलबहादुर भी उनके साथ जा रहा था। वह इसी पेड़ के पास खड़ी देख रही थी और वे दोनों सामने की उसी मटमैली, धुंधली पहाड़ी की छाया में छिप गए थे।
पेड़ पर तोता अमरुद कुतरता, वह हाथ उठाकर हिस कर उड़ाती और स्मृतियों का क्रम टूटते-टूटते फिर चलने लगता.....।
आठ वर्षों तक वह प्रतिदिन यहीं कुछ देर खड़ी होकर देखती रही थी, किन्तु उस धुंधली पहाड़ी की छाया से निकलकर कोई नहीं आया था।
कोई भी नहीं। खूंटे से बँधा बछड़ा बां-बां करने लगता, गम्भीर निद्रा में सोए हुव बच्चें को बाएं हाथ से कंधे या छाती पर चिपकाकर वह उठ खड़ी होती, बछड़े को पुचकारती-दुलारती और कोमल घास खिलाती - अरे तुम्हें इतनी जल्दी भूख लग गयी ?
कहकर प्यार से एक मीठी चपत लगाकर आसमान में सूर्य की ओर देखकर बड़बड़ा उठती - बेला ढकने को है। सुबह ही बिना खाए गया है अभी तक नहीं लौटा। उसकी रोज की यही आदत बुरी। ..... कुकुनाती हुई वह वहीं जाकर बैठ जाती और फिर स्मृतियों के देश में विचरण करने लगती है।
आठ वर्षों तक कोई न आया। ......तीसरे साल अगहन महीने में शाम को जब वह आग सुलगाकर बाछा को सेंक रही थी कि चंदू की माँ ने आकर कहा था - अरी पुणो!
बलबहादुर कलकत्ते से आया है, मांझला के आंगन में है।
सुनते ही वह नवजात बाछा को ठिठुरते छोड़कर दौड़ी थी मांझला के यहाँ।
मांझला के यहाँ बूढ़े बच्चे, लड़के लड़कियां और गावं-भर की स्त्रियां बलबहादुर को घेरे खड़ी थी।
बीच में बैठा बलबहादुर कलकत्ते की हैरत-भरी कहानियां सूना रहा था।
ट्रेम गाडी, मत्र गाड़ी। ...हवैया जहाज। .....वगैरह की अजीब-अजीब बोलियां वह हंस-हंसकर सगर्व सबको सुना रहा था। सब आश्चर्य के पुतले बने सुन रहे थे।
अचरज-भरी हंसी हंस रहे थे।
वह उसके पास न जा सकी थी। पिछवाड़े में ही खड़ी सब सुनती रही। .बलबहादुर ने कहा था ..हिरण्य दाजू (हिरण्य भैया) पलटन माँ भरती भये ...... !
सुनते ही वह कॉप उठी थी, उसके सर में चक्क्र आने लगा था। वह भाग आई थी अपनी झोंपड़ी में पड़ी-पड़ी वह लगातार कई दिनों तक आंसू बहाती रही थी।
उसकी आँखें डबडबा आई।
वह उठ खड़ी हुई। जंगल की ओर देखकर पुकारती बहादुर !!!
प्रत्युत्तर में खूंटे से बंधा बछड़ा बां-बां करता और गोदी का बच्चा रो पड़ता।
बच्चे को थपकियाँ से सुलाती वह फिर बैठ जाती और ताना-बाना बुनने लग जाती -हाँ, वह हफ्तों पड़ी रही थी।
और यह बलबहादुर! उसे कभी भी भला नहीं लगा था यह बलबहादुर! बचपन से ही वह उसे जानती थी, उसे सैकड़ों बार गालियां दे चुकी थी।
गावं की सभी लड़कियां उससे घृणा करती थीं।
वह जंगल में लड़कियों को छेड़ता था। ....लेकिन उस दिन अपने को समझा-बुझाकर वह उठ बैठी थी।
बैठी-बैठी गीत की एक कड़ी गुनगुना रही थी - तिमीत आयो लखन, दाज्यु लाय कहाँ छोड़े ? (तुम तो आए लक्ष्मण, पर भाई को कहाँ छोड़ आए) कि उसने पिछवाड़े से गाकर उत्तर दिया था - दाज्यु त गए मृगा पछि, म आए तिन्नो रखवाले! (भाई तो हिरन के पीछे गए, मैं तुम्हारी रखवाली करने आया हूँ। )
उस समय बलबहादुर उसे बड़ा अच्छा लगा था। वह उसको पकड़ लाइ थी आँगन में। घंटों बैठकर कलकत्ते की कहानियां सुनती रही थी।
उसी दिन से वह रोज शाम को आकर कलकत्ते की कहानी सुना जाता। उनकी (पूनों के पति की) बुद्धिमानी और अपनी बेवकूफी की दर्जनों ऐसी कहानियां कहता कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाते।
किस तरह वह एक कम्पनी में दरबान था, उसी कम्पनी का एक कुली इशारे से हुन्छ-हुन्छ दाजू कहकर चिढ़ाया करता था।
वह खून का घूंट पीकर रह जाता था। किस तरह उसने जाकर हिरण्य दाज्यू से शिकायत कर दी और वे जाकर उस कुली को किस तरह खुखरी निकालकर मारने दौड़े और वह कुली किस तरह दुम दबाकर भागा - आदि बातें वह सविस्तार सुनाता।
उसे बड़ी अच्छी लगती थी कलकत्ते की कहानियां।
कैसा देश है जहाँ बिना तेल की बत्ती अपने-आप शाम होने पर जल जाती है और सुबह को बुझ जाती है।
बलबहादुर भी उसे अच्छा लगने लगा था। एक दिन वह बलबहादुर को पकड़कर समझाने लगी थी - बहादुर !
तुम आवारागर्दी छोडो। घर बनाकर घरनी लाओ। ऊँह हो हो हो। ....वह ठठाकर हंस पड़ा था - भौजी! तुम भी कैसी हो ! आवारागर्दी छोड़कर घर बना सकता हूँ पर मेरे साथ रहना कौन लड़की पसंद करेगी ?
करेगी! तू आवारागर्दी तो छोड़।
कुछ क्षण गंभीर रहकर, वह मुस्कुराते हुए बोला था - अच्छा भाभी एक बात पूछूं पूछों !
यदि आवारागर्दी छोड़ दूँ तो तुम भी मेरे साथ। ....
ऊँह! फटहा - कहकर उसके मुहं पर एक हल्की चपत लगाकर, मुस्कुराती हुई गाय खोलने चली गई थी। बलबहादुर ने उसके हाथ से जबरदस्ती पगहिया ले ली थी - दो भोजी! मैं चरा लेता हूँ।
उसी दिन से वह साथ रहने लगा। काम करने में तो भूत है भूत। जब तक जाकर हाथ न पकड़ो, काम नहीं छोड़ने का। .....
आज तीन साल से किसके खेत में ऐसे फसल लगते हैं। वह अपने खेतों की ओर देखती। लहलहाते पौधे, मनमोहक हरियाली। ..कितना सुन्दर!
पू नो पू नो !
पास के जंगल से कोई पुकारता।
आवाज पहचानकर वह उत्तर देती - आ। ..यी और गोदी में बच्चे को संभालती हुई वह जंगल की ओर दौड़ती।
झाड़ी के पास जाकर फिर पुकारती - किधर !
इधर-उधर झाडी के उस पार से आवाज आती।
बलबहादुर नवजात बछड़े को पोंछ रहा था।
पास ही गाय खड़ी थी। पूनों को देखते ही वह खिल पड़ा - आओ, आओ! पूनों की गोदी में बच्चा जग पड़ा था, बच्चे को बलबहादुर की गोदी में देते हुए उसने बछड़े को बड़े प्यार से चुमकारा, फिर बोली - अब फरक न घर, खाये की पनि छै न। (अब लौटो घर, खाये भी नहीं हो )
ऊहूँ। .. अलि पख न, अलि सुन न! (जरा ठहरो न, जरा सुनो न ) उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा था।
पूनों की आँखों में एक उठाते हुए बोली थी - उहूँ चलो!
अलि सुन न बहादुर रोकता ही रहा, वह चल पड़ी।
दूध से सफेद बछड़े को गोद में लेकर पूनों आगे-आगे भागी जाती थी, पीछे -पीछे सद्यःप्रसूता उजरी हुँक हुँक हिंब हिंब करती दौड़ी जाती थी। पास ही झरना कल-कल कर रहा रहा था और डालियों पर पक्षियों का कोरस गान शुरू हो गया था। ...
पूनो रुक -रुककर पीछे ही देखती थी। सबसे पीछे बलबहादुर।
..गोद में बच्चे को लिये, कंधे पर लट्ठ रखे, धीरे-धीरे विजयी वीर की तरह झूमता आ रहा था।
उसकी गोदी में बच्चा रो रहा था और वह उसको अजीब लय में गीत गाकर चुप कराने की चेष्टा कर रहा था - ओ बाबू ! गोरी को बधैया माँ, छैन रखवारा, चोरी भयो फल-फूल। ..ओ बाबू !