बीमारों की दुनिया में

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

बीरेन की जवानी में घुन लग गया।

बुखार-100० 101० 102०,..।

खाँसी-भीषण !

रोग-क्ष॑य के लक्षण।

कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझते हैं। बीरेन बीमार है, क्षय के लक्षण दिखलाई पड़ते हैं तो वह भी जरूर 'रोमांस” के मजे लूट रहा होगा?

महीने पर महीने बीत रहे हैं, बिछौने पर पड़े-पड़े एक-डेढ़ वर्ष हो गया। आराम होने के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। उसकी जवानी पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के एक वार्ड में,.बेड नं. । पर शिथिल पड़ी है। जर्जर हो चुकी है। लेकिन कथाकार 'रोमांस” का राग अलाप रहा है। रोमांस! हिसे-चलती गाड़ी में रोमांस, सड़क पर रोमांस, खिड़की पर रोमांस!!

मार दो गोली इन रोमांटिक कथाकारों को!
बीरेन की जवानी किसी काम की न रही!


वह लाख मक्खन खाय, अंडा तोड़े, दूध पीये और गोल्ड की सुई ले, लेकिन बहा हुआ पानी वापस नहीं आ सकता, बीती हुई जवानी लौट नहीं सकती।

“तुम तो बेकार घबराते हो यार! यह अब असाध्य रोग नहीं रह गया है। लोग अच्छे होते हैं, रेगुलर लाइफ लीड करते हैं।”

“और म्याँ अब तो लड़कियों के बाप, लड़कों की तस्वीर देखने के बदले उसके फेकड़े का 'एक्सरे” प्लेट देखक़र रिश्ता करेंगे। मान लो, थोड़ा इनफिलट्रेशन है, ठीक है। या थोड़ी 'केमिटी” सी है तो कोई बात नहीं ।*हाँ, जिसका केस 'डेभलप” कर गया है, वह बेचारा छाँट दिया जाएगा।”

नौजवान मेडिकल स्टूडेंटों की बात सुनकर वह हँस देता है। स्टूडेंटों की स्वस्थ हँसी में उसकी हँसी घुलमिल जाती है।

“मिस्टर! इस बार सेनेटोरियम में सीट खाली होते ही आपको भेज दिया 'जाएगा।”

डॉक्टर की बस एक ही बात सुनते-सुनते वह थक गया है। इधर कुछ दिनों से हाउस-सर्जन एक सलाह देने लग गया है।

“अरे साहब! किसी मिनिस्टर को पकड़िए, सब ठीक हो जाएगा।” लेकिन बीरेन जानता है कि मिनिस्टर साहब के पास सिफारिश के लिए समय नहीं है। बीरेन की सिफारिश के लिए कोई मिनिस्टर नहीं बना है।

बगल की “केबिन' में कोई हैं, जिनके मिलनेवालों में एक कम्यूनिस्ट है। वह कभी-कभी बीरेन के पास भी आता है। जब आता है, सामयिक राजनीति पर एक व्यंग लिए आता है।

“अब क्या है, अब तो अपना राज है जी ।”-मिनिस्टरी जिस दिन बनी थी।

“अब तो यार, खुद पर भरोसा करो।” जयप्रकाशजी ने रिहा होकर, बाँकीपुर लान में भाषण देने के सिलसिले में कहीं “ख़ुदा जाने” शब्द का व्यवहार किया था।

बीरेन को ढाँढ़स बँधाते हुए वह कभी-कभी कहता है-“अरे कापरेड! लेनिन भी टी.बी. से ही मरे थे और गोर्की ने सबसे अच्छी किताबें सेनेटोरियम में ही लिखी थीं।”

बीरेन ने भी पलँग पर पड़े-पड़े कहानियाँ लिखने की कोशिश की है। कहानी शुरू करने क़ो तो वह कर देता है पर उसे अन्त करना उसके लिए मुश्किल हो उठता है। फलतः उसकी कॉपी में बहुत-सी अधूरी कहानियाँ लिखी पड़ी हुई हैं। वह कभी-कभी उन कहानियों को देखता है, उन्हें शेष करने की हिम्मत नहीं होती।

बीरेन की जवानी किसी काम की नहीं रही!

अस्पताल की रात बड़ी भंयानक होती है। रोगियों की दर्द-भरी कराह, कलेजे में चुभनेवाली चीख और बीच-बीच में मृत व्यक्तियों के सम्बन्धियों का सम्मिलित करुण रोदन! सब मिलकर रात को बड़ी भयानक बना देते हैं। अँधेरी रात और भी क्रूर हो जाती है। चाँदनी रात, कफन जैसी सुफेद और बेजानदार मालूम होती है।

यहाँ मौत बहुत जानी-पहचानीः हुई चीज है। जिन्दा रहना, मर जाना, फिर मरते-मरते जी जाना यहाँ कोई अहमियत नहीं रखते। लोग रो-रोकर मौत को गलत और डरावनी बना देते हैं, यों यह बड़ी सीधी-सादी होती है। वह बेड नं. 5 रात को न जाने कब मर गया। चार बजे भोर को नर्स ने देखा, मौत कभी चुपके से आकर चली गई है। डेथ-सर्टिफाई करने के लिए डॉक्टर आए, मुर्दे को छूकर, ऊँघते हुए चले गए। वार्ड के रोगियों की नींद में कोई बाधा नहीं पहुँची। मुर्दाधर के दो मेहतर आए, उसे स्ट्रेचर पर लिटाकर ले चले। अगले मेहतर ने अपनी जिन्दादिली दिखाते हुए कहा-“चल भैया, कदम-कदम बढ़ाए चल।”

यह उसके चुपचाप और लावारिस मर जाने पर एक व्यंग था।

बेड नं. 5 खाली हो गया। उसका “बेड-हेड-टिकट” और हिस्ट्री-चार्ट लेकर नर्स चली गई। उसने अपने रजिस्टर में लिखा-“बेड नं. 5 एक्सपायर्ड...””. वगैरह-वगैरह ।

उसका एक भला-सा या बुरा-सा नाम रहा होगा, लेकिन मरते-मरते वह सिर्फ बेड नं. 5 ही रह गया। यानी बेड नं. 5 सिर्फ मर गया। वज्रपात नहीं हुआ, दीपक नहीं बुझ गया, सिन्दूर नहीं लुट गया। कुछ नहीं हुआ, वह सिर्फ मर गया। वज़्पात हो जाना, दीपक बुझ जाना, सिन्दूर लुट जाना दूसरी बात है और 'सिर्फ मर जाना! दूसरी बात।

बस, यहीं तक लिखी हुई एक अधूरी कहानी को बीरेन कभी-कभी पढ़ डालता है। वह जब-जब इस कहानी को पढ़ता है, उसका अपना नाम भी मिटने-मिटने को हो जाता है, उसे लगता है जैसे वह बीरेन, बीरू, बीर वगैरह कुछ भी नहीं महज बेड नं.!

“कहिए बीरेनजी! कैसे हैं?”-अजीत आया।

बीरेन का नाम मिटते-मिटते रह गया।

यह अजीत, बीरेन का साहित्यिक दोस्त है, कहानी लेखक और पालिटिकल वर्कर । नई शैली और विचारधारा को लेकर इन्होंने हिन्दी संसार में प्रवेश किया है। इनकी कहानी की नायिका, हँसते-हँसते स्खलित हो जाती है, भरी प्रदर्शिनी में एक नग्नमूर्ति के पास खड़ी होकर उसके स्तन को देखती फिर अपने स्तन को छूकर देखती है कि मूर्ति की तरह उसका अपन्ना गठीला, नुकीला है या नहीं। इनके नायक, 'कॉफी-हाउस' में एक प्याली औइसक्रीम चूसते-चूसते मजदूरों के सवालात पर दर्जनों थ्योरियाँ बोल जाते हैं। इनकी भाषा-जज़्बात, अहसास, अहमियत की दूँस-ठाँस ,से जरूरत से ज्यादा जानदार हो जाती है।

बीरेन ने करवट लेते हुए कहा-“बैठिए। आप कैसे रहे?”

“ठीक है”'-अजीत ने बैठते हुए कहा-“और आपकी “उनकी” कोई चिट्ठी-विट्ठी आई?” बीरेन ने गर्दन हिलाकर्‌ कहा-“नहीं।”

यह “शैला' नाम की एक लड़की के बारे में बात हो गई। शैला बीरेन के साथ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ती थी और बीरेन से उसका बहुत अच्छा-सा सम्बन्ध है। अब वह मद्रास के किसी वीमेन्स कॉलेज में प्रोफेसर थी। अजीत की राय में, शैला ही बीरेन की बीमारी का प्रधान कारण थी।

अजीत एक बार मुस्कुराया, फिर कहने लगा-“देखिए! हम जिन्दगी को “कॉफी' के चम्मच से नहीं माप सकते...”

बीरेन ने याद करने की कोशिश की कि उसने किस अंग्रेजी उपन्यास में ठीक इसी पंक्ति को पढ़ा है।

अजीत कह रहा था-“जिन्दगी किसी की याद में रो-रोकर बिताने के लिए नहीं है। यह एक लहर है जो गरजती है, उबलती है, थपेड़े मारकर जगाती है। यह सुलानेवाला संगीत नहीं। यह एक गति है जो रुकती नहीं... ।”

बीरेन आज ऊब गया। वह सब दिन चुप होकर अजीत की सुनता रहा है। और यह अजीत जब बोलने लगता है तो भूल जाता है कि सुननेवाला भी कुछ सोच सकता है, कुछ कह सकता है।

आज बीरेन बालेगा। जब से वह पलँग पर पड़ा है, उसने सिर्फ सुना है। वह चुपचाप लोगों की सुनता गया है, बोला है नहीं। उसने बीमार होकर देखा है कि दुनिया में राय देनेवालों का ही बाहुल्य है। बीमार होने का अर्थ है, कड़वी दवा की तरह दूसरों की गलत-सही बातों को पीते जाना। एक बीमार को अपनी राय जाहिर करने का कोई हक नहीं, क्योंकि वह कमजोर है, निष्क्रिय है, निस्तेज है, करवटें लेता है, कराहता है। वह समाज का एक सड़ा हुआ अंग है, जिसे समाज अपनी भलाई के लिए काटकर अलग कर देना पसन्द करता है। उसके पीछे चलनेवाले साथी आज उसे गोली मारने को तैयार हैं, क्योंकि वह चलने में असमर्थ है। बीरेन तकिये के सहारे बैठ गया और कहने लगा-“अजीत बाबू!

आप जिन्दगी, संघर्ष, मुहब्बत वगैरह पर बड़े-बड़े पोथे लिख सकते हैं-सिर्फ लिख ही सकते हैं। आप अपने को प्रगतिशील कहते हैं, यथार्थवादी होने का दावा करते हैं। पोधियों से आपने यथार्थवाद सीखा है- जिसे मैं उधार की चीज कहता हूँ। और मेरा जन्म किसी 'कॉफी-हाउस'” के इर्द-गिर्द नहीं बल्कि खलिहान के पास ही एक झोंपड़ी में हुआ है, जहाँ जन्म से लेकर मौत तक-लड़ाइयाँ ही लड़ाइयाँ लड़नी पड़ती हैं। जहाँ को 'प्मस्याएँ तर्क करने का मौका नहीं देती हैं। जहाँ सीधी चोट करनी पड़ती है, सीधे वार को सहना पड़ता है। मेरा दावा है कि मैंने जिन्दगी को आपके "जेम्स जायस” से अधिक पहचाना है। हमारी जिन्दगी हिन्दुस्तान की जिन्दगी है। हिन्दुस्तान से मेरा मतलब है असंख्य गरीब मजदूर, किसानों के हिन्दुस्तान से। हम अपनी मिट्टी को पहचानते हैं, हम अपने लोगों को जानते हैं। हमने तिल-तिल जलाकर जीवन को, जीवन की समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की है। आपने "गेहूँ का पौधा देखा है अजीत बाबू? मेरा खयाल है कि आपने गेहूँ भी नहीं देखा होगा।

“रही मुहब्बत की बात। सो हमारे दिल के किस्से निराले होते हैं। हमारे यहाँ इश्क पनपते ही मुरझा जाता है, शबाब दम घुटकर मर जाता है। हमें मुहब्बत की लाश ढोनी पड़ती है।

बीरेन हॉफने लगा। अजीक्/निष्प्रभ होकर बोला-“आप अब चुप रहिए।!

अजीत चला गया। बीरेन बहुत देर तक गर्म रहा। उसके नथुने फूले रहे और वह सोचता रहा-डॉक्टरों की बात, कम्यूनिस्ट छोकरे की बात, अजीत की बात।

हिन्दुस्तान में यह फेफड़े का रोग 99 प्रतिशत पर हाथ फेरने जा रहा है। जरूरत है उत्तम भोजन, कम मिहनत की । जरूरत है हजार-हजार डॉक्टरों की | लेकिन डॉक्टरी सभी नहीं पढ़ सकते फिर जहाँ डॉक्टरी पेशा का रूप ले ले वहाँ बीमारी बढ़ती ही जाएगी ।...असल बात है कि हम गुलाम हैं और गुलाम कौम का अर्थ बीमार मुल्क... ये कम्यूनिस्ट! 1942 की क्रान्ति में रोड़े अटकानेवाले क्रान्ति-विरोधी! आज फब्तियाँ कसे चलते हैं।

रूस इनका काका है और स्टालिन पैगम्बर । स्टालिन की डिक्टेटरशिप को जनता की डिक्टेटरशिप कहते इन्हें शर्म नहीं आती। जरा कोई इनसे पूछे कि म्याँ जनता की डिक्टेटरशिप जनता पर तो नहीं हो सकती, आखिर यह डिक्टेटरशिप किस वर्ग पर? तो बगलें झाँकने लगेंगे, लेनिन को 'कोट' करने लगेंगे; स्टालिन की दुहाई देने लगेंगे।

और, यह अजीत! दिन में पच्चीस बार सूट बदलकर होटलों में चक्कर काटते फिरता है, फिलासफी बघारता है। किसानों के सवाल पर आप बोल तो सकते हैं पर किसानों के बीच जाकर काम करने की बात उठते ही उपयुक्त मोर्चे (3ए्रध७७७ पणा0) की तलाश करने लग जाते हैं।

अचानक उसके विचारों में बाधा पड़ी। बेड नं. 4 पर गुलाम मुहम्मद गिलानी साहब, उर्दू के शायर हैं। बेचारे भरी जवानी में ही हृदय रोग से पीड़ित हैं। सारी देह में सूजन है, चेहरे पर परेशानी छायी रहती है, लेटने से तकलीफ बढ़ जाती है। मगर उनकी जिन्दादिली है कि उन्हें जिलाए रहती है। हाँ, तो उनकी नौकरानी डेरे से आई थी और रो रही थी कि उसके घरवाले ने उसे बुरी तरह पीटा है। उसे कसम खिला ली जाए जो उसने कुछ कहा हो। गिलानी साहब ने उसे शान्त करके वापस भेजा। बीरेन ने मुस्कुराकर पूछा-“भाई, बात क्‍या थी?”

गिलानी साहब ने बड़े अन्दाज से गर्दन हिलाकर, हकला-हकलाकर जवाब दिया-“कसम खिलवा लो जो मैंने आह! भी की हो।” “मगर उसने तो पैंतरे बदल-बदलके मारा है।” बीरेन हँस पड़ा और रह-रहकर हँसता रहा।

रात आई, रातवाली नर्स आई। बाहरी दुनिया शान्त हो गई, अस्पताल की दुनिया कराहती, चिल्लाती, दम तोड़ती और जोड़ती चलने लगी। रातवाली सिस्टर राउंड लगाने आई, बेचारी नर्स ऊँधती हुई पकड़ी गई। तेज, कर्कश आवाज में सिस्टर चिल्ला उठी-“हम रिपोर्ट करेगा, छोड़ेगा नहीं।” : बीरेन का बुखार आज कुछ तेज था, उसे नींद नहीं आ रही थी । उसके जी में आया कि सिस्टर का मुँह नोच ले। चुड़ैल, बड़ी चिल्लाती है। उसने करवट बदली, लोहे का पलंग कचमचा उठा। उसे लगा जैसे यह उसकी हड़िडयों की आवाज हो।

गिलानी साहब पलँग पर बैठे, “बेड-रेस्ट' के सहारे हॉफ रहे थे। बीरेन ने पछा-“क्य हाल है गिलानी भाई?” पूछा-'क्या

“कुछ मत पूछिए”-वे फिर शायराना अन्दाज से बोले- “छेड़ दिया हसन ने फिर अपना किस्सा, बस, आज की रात भी हम सो चुके

“लेकिन भाई, हम तो ऐसा सोएँगे कि लाख सर पटके पे भी न उठेंगे... ।

सुबह बीरेन ने उठकर देखा, गिलानी साहब के बेड के पास भीड़ लगी थी। औरतें दहाड़ मारकर रो रही थीं। गिलानी साहब के हृदय की गति बन्द हो चुकी थी। उसकी जवान बेवा ने अपना सिर फोड़ लिया था, उसे लोग सँभाल रहे थे। पास ही फर्श पर बैठी उनकी छोटी-सी बच्ची, रेलगाड़ी चला रही थी।

बीरेन अपने में ही बोल उठा-“एक यह भी थे जो चले गए।”

मजदूर राज्य कायम हो!

इन्कलाब! जिन्दाबाद!

जयप्रकाश! जिन्दाबाद!...

चिलचिलाती हुई धूप में, मजदूरों का एक विशाल जुलूस सड़क से गुजर रहा था। बीरेन ने खिड़की से देखा-बड़ा लम्बा-चौड़ा जुलूस था। जुलूस दूर निकल गया था लेकिन नारों की आवाज अब भी सुनाई पड़ रही थी-

“जयप्रकाश! जिन्दाबाद!

सुबह से घबड़ाया हुआ बीरेन, अभी कुछ शान्त हुआ। डॉक्टर आए, सुई देकर चले गए। उसने आँखें मूँद लीं और सोने की चेष्टा करने लगा। थोड़ी ही देर बाद उसने अनुभव किया कि उसके शरीर पर कोई हाथ फेर रहा है। उसने आँख खोलकर देखा- “अहमद !”-वह उछल पड़ा।

“भई लेटे रहो ।”

“कब आए?”

“अपने और साथियों का क्‍या हाल है?”

हाँ”-अहमद ने बड़े उत्साह से कहा-“कृष्णम्‌ केरल का विद्यार्थी इंचार्ज है। गोपी, अहमदाबाद मजदूर यूनियन में काम कर रहा है। सिन्हा, आर्गनाइज करने के लिए पंजाब भेजा गया है। रियासत “टाटा” में है। अहद, पार्टी-आर्गेन एडिट करता है। मजदूर, किसान और विद्यार्थी फ्रंट पर जोरों से काम चल रहा है। कई जगह वर्कर्स ट्रेनिंग कैम्प भी खुल गए हैं।...अच्छा तो मैं अब चला ।”-अहमद उठ खड़ा हुआ।

“फिर कब मिलोगे?”

“कह नहीं सकता, कानपुर में जिच चल रही है। अगर लड़ाई शुरू हुई तो जाना ही पड़ेगा। और हाँ, अच्छी याद आई। कांग्रेसी मिनिस्टरी ने तो इसे टाल दिया है, लेकिन अपनी पार्टी ने प्रान्तीय वकील सभा की सहायता से एक बोर्ड कायम किया है। 42 के जुल्मी ऑफिसरों के जुल्मों का लिस्ट तैयार करना है तुम्हारा केस तो काफी वजनी रहेगा। तुम लिख डालो । हम उन जुल्मियों को खुली अदालत में लाकर छोड़ेंगे। तो मैं चलता हूँ।'

अहमद चला गया। बीरेन ने उसे जाते हुए देखा, फिर आप ही आप मुस्क्राने लगा।

रात आई।

बीरेन लेटे-लेटे ताना-बाना बुनने लगा! अतीत की कुछ धुँधली और बिखरी हुई स्मृतियाँ-हरे पेड़-पल्लवों से लदा उसका प्यारा गाँव, उसकी माँ-स्नेहमयी, करुणामयी; प्यारी बहन बननो। फिर बनारस के दिन, शैला...। 1942 की क्रान्ति...लाठी चार्ज. कठोर कारावास...जेल का भीषण चार्ज...बीमारी...अस्पताल...कृष्णम्‌ गोपी, सिनहा, रियासत और अहद...सबके सब रणबाँकरे हैं। लगा जोर-बस एक बार!

बीरेन उठकर बैठ गया। उसे लगा कि वह उत्तेजित हो रहा है।. वह बहुत देर तक .. चुपचाप बैठा रहा, लेकिन एक नई ताकत न जाने कहाँ से उसकें' अन्दर आ गई थी जो उसे बार-बार झकझोर जाती थी। इस ताकत के आगे रोग नहीं टिक सकेगा। उसने अनुभव किया कि हजारों हजार साथियों का बल उसे प्राप्त है। अचानक उसकी विचारधारा में बाधा पड़ी। वार्ड में कुहटाम मचा। कोई चल बसा। फिर वही नर्सो का खुट-खुट, डॉक्टरों की दौड़, सिस्टर की कर्कश आवाज, मेहतरों की बड़बड़ाहट।

बीरेन ने लेटते हुए कहा कि-“मरो, मरो!! हिन्दुस्तान में जन्म लेकर। इससे ज्यादा क्‍या उम्मीद करते हो।”

बेचारी विधवा सिर पीट रही थी, उसका इकलौता बेटा था, एकमात्र सहारा था, उसका राजा था, मुन्ना था...।

बीरेन करवटें ले-लेकर गिलानी का शेर दुहरा रहा था-

छेड़ दिया हसन ने फिर अपना किस्सा!

बस आज की रात भी हम सो चुके ।।