प्राणों में घुले हुए रंग

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

प्राणों में घुले हुए रंग

शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता।

उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था!

मेडिकल कॉलेज में दाखिल होकर जिस दिन शरीर-विज्ञान का पहला 'लेक्चर' सुनकर लौटा था, मेरी आँखों के आगे सातों रंग नाचने लगे थे!

और जिस दिन एम.बी.बी.एस. की डिग्री मिल गई थी, 'सर्जिकल वार्ड” का हाउस-सर्जन बनकर अपने ड्यूटी-रूम में चार्ज लेने जा रहा था, फुदकती हुई मेरी परिचिता अनिंद्य सुन्दरी नर्स मिस चटर्जी ने आकर पहली बार सम्बोधित किया था-“हलो!

डॉक्टर... ! !” तो मैं अभ्यास और स्वभाववश उसकी एक मीठी चुटकी ले, ठठाकर हँसने की चेष्टा में भी गम्भीर हो गया था।

तब मैं एक लापरवाह स्टुडेंट नहीं रह गया था, डॉक्टर का उत्तरदायित्वपूर्ण स्थान जो मिल गया था!

मेरे होंठों पर गम्भीर मुस्क्राहट देखकर वह मेरे दिल की गहराई तक पहुँच गई थी और उसके बाद मैं उसके सदा प्रसन्‍न मुखमंडल पर कभी भी वह ताजगी, वह रंग नहीं देख पाया। धीरे-धीरे वह सूखती और काली पड़ती गई।

मैं सबकुछ याद कर, सबकुछ समझकर भी अपने को भुलाता रहा। हृदय-रोग से पीड़ित होकर वीमेन हास्पिटल के बेड नम्बर 2 पर पड़ी-पड़ी, नर्सो द्वारा बस एक बार” देख जाने का संवाद भेजती रही; किन्तु मैंने जाने की उत्सुकता भी कभी प्रकट नहीं की। मैं नहीं गया, किन्तु निराश होकर दम तोड़ने के समय उसके होंठों पर जो घृणा की रेखा खिंच आई होगी, उस घृणा-पूर्ण मुस्कुराहट की कल्पना मैं अवश्य कर लेता हूँ। जब-जब उसकी कल्पना करता हूँ, मेरे चेहरे पर आत्म-ग्लानि की काली तूलिका फिर जाती है।

“'हाउस-सर्जन” की अवधि समाप्त करके घर पहुँचते-पहुँचते मेरी पूज्य माता अपनी जीवन-यात्रा शेष कर चुकी थीं। उनके मुँह में दवा को कौन कहे, एक चुल्लू पानी भी नहीं टपका पाया था। पिताजी तो मुझे डेढ़ साल की उम्र में माँ की गोद में छोड़कर चल बसे थे। अगम, अगोचर भगवान को जिस श्रद्धा और भक्ति से पूजते हैं, उसी श्रद्धा और भक्ति से मैं उनकी पूजा किया करता था। किन्तु उनके लिए कभी गला फाड़कर रोया नहीं था। मातृहीन होने के बाद मुझे मालूम हुआ कि माँ के स्नेहांचल की ओट से सारी दुनिया रंगीन जान पड़ती थी और अब दूनिया का सारा रंग मरुभूमि की सफेदी में परिवर्तित हो गया है!

अपने गाँव को, अपने घर को छोड़ने की कल्पना करते ही मेरा हृदय फटने लगता था।

गाँव में ही जिन्दगी कट रही थी और मेरा 'मातृ-औषधालय' भी चल रहा था। मलेरिया और हैजे के समय में मरते हुए प्राणियों में से थोड़े व्यक्तियों को भी मौत के मुँह से बचाकर मैं अपनी शिक्षा को सफल समझता था।

गाँव के प्रतिष्ठित जमींदार श्री केदारनाथ ठाकुर मुझसे बहुत प्रसन्‍न रहते, उनकी गृहिणी मुझे अपने पुत्र घनश्याम से भी बढ़कर प्यार करने लगी थीं।

औषधालय का आकर्षण, जमींदार दम्पत्ति का स्नेह और गाँववालों का प्रेम पाकर मेरे हृदय के घाव भर रहे थे।

एक दिन, जमींदार दम्पत्ति ने मुझे बड़े लाड़-प्यार से खिला-पिलाकर, एकान्त कोठरी में अपने दिल की ख्वाहिश जाहिर की, तो मेरा सिर चक्कर खाकर रह गया। जमींदार साहब कह रहे थे कि मैं उनकी विधवा भाभी के एकमात्र प्यारे पुत्र भोलानाथ को जहर देकर मार डालूँ। उसे मामूली ज्वर हुआ है, यही मौका है। जमींदार साहब के छोटे भाई बद्रीनाथ ठाकुर थे, जिनकी मृत्यु का रहस्य भी उन्होंने कहा। 'माफ कीजिए, छी:-छीः मैं पागलों की तरह चीखकर उनकी कोठरी से भाग आया था। उस दिन से लगातार कई रातों को-रात-रात-भर जागकर-मैं जमींदार साहब के दुम॑जिले मकान की खिड़की के रंगीन काँचों को देखता रहा। उस कोठरी में रोशनी जलती रहती और मुझे लगता-“असहाय भोला की जिन्दगी का चिराग जल रहा है।' जिस दिन विधवा अपने प्यारे बीमार पुत्र को लेकर मायके चली गई, उस रात को मैं आनन्द-विभोर होकर सोया, किन्तु स्वप्न में भी उन रंगीन काँचों से छनकर आते हुए प्रकाश को देखता रहा।

जमींदार साहब मुझे और मेरे मातृ-औनषधालय को मिटाने के लिए कमर कस चुके थे।

गरीब रोगी भला कैसे औषधालय में आने की हिम्मत करते। रोगियों का आवागमन एकदम बन्द हो गया था। लेकिन रधिया की माँ जमींदार साहब की परवाह न करके, रधिया को सुई दिलवाने के लिए अवश्य पहुँच जाती थी। रधिया की माँ को मैं होश सँभालने के बाद से ही जानता था। इस रंगीन दुनिया में आकर, माँ की गोद के पहले उसी की गोद में मुझे आश्रय मिला था-वह सैकड़ों बार सुना चुकी थी। रधिया की माँ मेरे परिवार की महरी थी, पर मैं उसे चाची कहता था। कॉलेज में मुझे जब-जब घर की याद आती थी, आँखों के आगे दो मूर्तियाँ नाच जाती थीं, एक माँ की और दूसरी चाची (रधिया की माँ) की। वह दुखिया विधवा हो गई थी, उसकी एकमात्र पुत्री रधिया भी जवान होते-होते विधवा हो गई थी, लेकिन मेरे लिए तो वह वही चाची थी। रधिया को पिल्हा' हो गया था।

चिकित्सा से जब पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गई, तो एक दिन उसकी माँ छाती पीटती हुई दौड़ी आई धी-''देखो लल्ला! ये सब पानी में आग लगा रहे हैं। बिरादरी और गाँवधालों की पंचायत बैठी थी, पंचायत ने रधिया पर दोषारोपण किया था कि तुम्हारे और रधिया की अनुचित सम्बन्ध के फलस्वरूप रधिया को गर्भ रह गया था और तुम सुई देकर गर्भपात... ।" सुनकर मैं अवाक्‌ हो गया। रधिया मेरा भोजन बनाती थी, बर्तन-भौँडे मॉजती थीं, धर की चाबी भी उसी के पास रहती थी। मेरे खाने-पीने, सोने-बैठने की फिक्र मुझसे ज्यादा उसको रहती थी। मैं उसका भैया जो था। लेकिन...मैंने रधिया की माँ से गिड़गिड़ाकर कहा था-“चाची, तुम भी क्‍या इस बात को सच समझती हो?” वह रोती हुई बोली थी-“'तुम क्या कह रहे हो ललला! ऐसा भी भला हो सकता है? मैं सब जानती हूँ। बड़ी बहू (जमींदार साहब की भाभी) को मैंने मायक जाने के लिए कहा था, जमींदार साहब को यह बात मालूम हो गई । इसी से यह सब हुआ है ।” वह रोती हुई चली गई थी।

दूसरे दिन प्रातःकाल बिछीने पर पड़े-पड़े ही मैंने सुना-रधिया की माँ रधिया को लेकर न जाने कहाँ भाग गई। पूर्व आकाश में ऊषा की लाली फैल रही थी और मुझे सारी दुनिया पीली दिखाई दे रही थी!

“मगहिया-डोम, एक खानाबदोश कौम | यह जाति औरत-मर्द-बच्चों के साथ जमात बाँधकर एक गाँव से दूसरे गाँव में डेरा डालती फिरती है। यह बड़ी निडर जाति होती है। मर्द दिन में जंगलों में जाकर गींदड़ों की बोली बोलकर उनका शिकार करते हैं और रात में चोरी; कभी-कभी दल बाँधकर डाका भी डालते हैं। औरतें और बच्चे गाँव में भीख माँगते हैं।

जवान औरतें बुरा पेशा भी करती हैं! बूढ़े और बुढ़ियाँ पड़ाव पर बैठकर गधों की रखवाली करती हैं।”

उपरदुक्ति रिपोर्ट मैंने एक मित्र-पुल्रित्त इस्पेक्टर की डायरी में पढ़ी थी।

फागुन का महीना। मगहिया डोमों की एक टुकड़ी ने गाँव से बाहर एक मैदान में डेरा डाला। दूसरे दिन गाँव में गन्दी घाघरीवाली औरतें भीख माँगती हुई दिखाई पड़ीं। भीख माँगंती हुई! कहना उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि वे जिस तरह भीख माँगती थीं, उसे “भीख माँगना' नहीं, खुराकीं वसूल करना कह सकते हैं। लोग चुपचाप भीख देते थे, उनसे बोलने में या तो लोग डरते थे अथवा अपनी हेठी समझते थे।

“ओय...य्‌...य्‌...य मोटकी मलकिनियाँ...याँ...याँ! बुढ़ारि में तोहे सिंगार से छुटूटी नाहिं मिलत...अ्‌...! हम्में भीख दय दो, चलि जायिं... ।”

दूसरी उधर चिल्ला रही थी-““भीख देबा कि यहीं दरबज्जे पर पेशाब कय दीं?”

तीसरी किसी के घृणापूर्ण प्रश्न अथवा व्यंग्पपूर्ण कटाक्ष का उत्तर दे रही थी- बा हाँ, हाँ! गीदड़ खाती हैं हम सब तें.. हूँ खाले नन्हकी बहुरनियाँ...तों दिन-भर मैं ....

मैं अपनी कोठरी में लेटे-लेटे 'शोलोखोव” की 'क्वायट फ्लोज दी डान' पढ़ रहा था कि दरवाजे के पास आकर किसी ने हॉक लगाई-“अरी ओ...य्‌...य्‌...य मलकिनियाँ...याँ... ।'

“अरे यहाँ कोई मालकिन-वालकिन नहीं है!” मैंने अन्दर से ही डॉटकर कहा। वह मेरे बरामदे पर-खुली किवाड़ी के सामने-आकर कुछ कहते-कहते रुक गई। मैंने देखा-बड़ी-बड़ी प्यारी आँखोंवाली, कानों में झुमके, गले में पीतल और काँसे के गहने पहने एक स्वस्थ किन्तु गन्दी, सुन्दर युवती, बगल में भीख की झोली लटकाए खड़ी है। मुझे गौर से देखकर नीची निगाह किए वह बोली-“मालकिन नहीं है त तैंहि दे दा!”

“क्या दे दूँ?”

“अरे मालिक के दरबार है, सोना-रूपा पहने लाग, रेशम मलमल ओड़े लाग, खाये लाग जूठा-कूठा... ।” कहते वह मुस्कुराई।

मैं भी अपनी हँसी नहीं रोक सका। मैंने कहा-“यहाँ तो बोतलों में सिर्फ दवाइयाँ हैं। कहो तो दे दूँ?”

उसने एक बार मुझे गौर से देखा। मेरी आँखों में आँखें गड़ाती हुई वह बोली- “तूँ बैद हुआ?”

“हाँ ।”

वह बैठते-बैठते स्वर को जरा कर्कश बनाकर बोली-“बज्जर गिरे तोरे दवायन पर, हम्में दवाय नाहिं चाहिय, एक मुट्ठी कुछ दे दो, चलि जायिं!”

मैं एकटक उसकी ओर देख रहा था। उसकी सूरत, उसकी आँखें और उसकी बोली कह रही थी कि वह सभ्य समाज की देन है। वह अपनी मीठी बोली को जबर्दस्ती कर्कश बनाने की चेष्टा करती, किन्तु असफल रहती थी। मुझे अपनी आँखें गड़ाकर देखते हुए बोली-“आँखि फारिके देखत का हुआ हम्में, बड़े-बड़े हाकिम-दरोगन के आँखि के लाली झारि देलि-हाँ!”

मैंने मनीबैग से एक अठननी निकालकर फेंक दी। अठन्नी को जमीन पर से उठाकर हँसती हुई बोली-“अरे रम्माँ! यह अठनियाँ बचे ना पायि, देखहि से मारिके जवनवा हमार काढ़ि लेयि, दारु पिये लाग। कुछो एक मुट्ठी खाये लाग दे दा राजा!”

उसने अन्तिम शब्दों में जो दर्द डाला, मुझे बड़ा स्वाभाविक-सा लगा। मैंने उठकर थोड़ा चावल ला दिया। जाते-जाते उसने मेरी ओर देखकर, किंचित मुस्कुराकर कहा- “अब त हम्म रोजो आब।”

वह चली गई तो मैं घंटों बैठकर उस असभ्य और बर्बर जाति की युवती के सम्बन्ध में सोचता रहा।

वह दूसरे दिन भी आई, तीसरे दिन भी आई और रोज आने लगी। एक दिन मैंने शा कहा-''तुम लोग इस तरह लोगों को डराकर, गालियाँ देकर क्यों भीख माँगती “तू काहे दवा में पानी मिला के लोगन के ठग्गत हुआ?” “दवा में पानी मिलाना ही पड़ता है, बिना पानी के दवा नहीं बनती ।”

“त बेगर डॉटे-डपटे-गाली दिए कुछ नाहिं मिले-जान रखा ।” वह हँस पड़ी थी। मैं स्वीकार करता हूँ, उसकी हंसी ने मुझे मोह लिया था। उसकी मुस्कुराहट में जादू था। एक दिन मैंने पूछ ही लिया-''तुम लोग जादू भी जानती हो?”

वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी-“अरे राजा! तोंहके कैसे मालूम?” “यों ही पूछता हूँ।'

वह हँसी रोकते हुए बोली थी-“हम्म नाहिं जानि जादू-बादू! वैसे बुढ़ियन सबके पाँछा देखत नॉहि, गाँव के सगरो जवनवा लागत रहत-ऐ बुढ़िया बताय दे, ऐ बुढ़िया बताय दे! चावल-दाल-आटा-तरकारी ढेर-के-ढेर पहुँचायि आवत।”

“सो क्‍यों?”

“मन उचाटनेवाला जादू सीखे लाग।” वह हँस रही थी।

मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा-“क्या बुढ़िया सचमुच में वशीकरण मन्त्र जानती है?”

मुझे आश्चर्यित होते देखकर वह ठठाकर हँस पड़ी थी-“तेंहूँ सीख आवा बैद राजा!”

होली के दिन। गाँव-भर में हुरदंग मचा हुआ था। बूढ़े और बच्चों में भी जवानी की लहर आई हुई थी। अश्लील और श्लील गीतों के तराने मस्ती-भरी हवा के झकोरों पर हिलकोरे खाकर मेरी कोठरी में पहुँच जाते थे। मैं भी रह-रहकर होली के बहाने मर्सिया गुनगुना लेता था-“का के संग खेलूँ फाग!”

“अरे तूँ काहे ना खेलत होरी बैद राजा?” वह हठात्‌ आकर खड़ी हो गई थी। एक अलमुनियम की बड़ी कटोरी में मालपुए माँग लाई थी। एक मालपुए को वह दाँतों से काटकर खा रही थी।

मुझे आश्चर्य हुआ। होली के दिन, भले घर की औरतें बाहर पाँव रखने की हिम्मत नहीं करती हैं, और यह निडर होकर गाँव में फिर रही है!

उसने फिर पूछा-“तू काहे ना खेलत होरी ?” मेरे मुँह से मर्सिया की “भाषा-टीका' निकल पड़ी थी-“किसके साथ खेलूँ?'

मालपुए को दाँतों से काटते-काटते वह गम्भीर हो गई थी। मैंने फिर पूछा था- “तुम आज कैसे आईं?”

पुआ मांगे लाग !

“लोगों ने कुछ कहा नहीं?” अपने नथुने को गर्व से फुलाते हुए वह बोली थी- “केकर मजाल हुए कुछ कहे के। हूँ !”-वह बैठ गई थी।

“किसी ने रंग नहीं डाला?”

उसने खाते-खाते लापरवाही से कहा था-“तूँ डाल दा। डाल के देखा ।”

“यदि डाल दूँ तो?”

“डाल दा!”

मैं 'रैड-इंक' दावात लेकर उठा, वह मुस्कुराकर घुटनों में ठुड्डी मिलाकर बोली थी-“पीठ पे डाल?”

मैंने उसकी पीठ पर दावात उडेल दी थी। उसकी गन्दी चोली पर लाल रोशनाई चमक उठी थी, उसकी मुस्कुराहट और भी रंगीन हो गई थी। वह मुस्कुराते हुए चली गई थी। मुझे याद है-मेरी आँखों में भी गुलाबी लाली दौड़ गई थी।

उसी दिन, पिछले पहर, वह दौड़ी आई थी। भर्राए स्वर में बोली थी-“बैद राजा! जरा चलके देख। हम्मर जवनवा के का हो गया! उलटी आर पेट चलत हुए! जड़ी-बूटी देत-देत हारि-कुछ काट नहीं मानत। चल बैद राजा!”

“क्या हुआ?” मैंने अचकचाकर पूछा था।

“हम्मर जवनवा के-उलटी आर पेट चलत हुए ।” वह हॉफ रही थी।

“इमर्जेन्सी-बैग” लेकर मैं उसके साथ चल पड़ा, वह आगे-आगे भागी जा रही थी और देवी-देवताओं को रो-रोकर मनौतियाँ मना रही थी।

गाँव से बाहर मैदान में उन लोगों का पड़ाव था। जाकर देखा, एक बलिष्ठ नौजवान धरती पर पड़ा छटपंटा रहा है। मैंने परीक्षा की-“प्योर कालरा!

वह मेरे पास खड़ी थर-थर काँप रही थी। मैंने कहा-““इसे मेरे यहाँ ले चलो। वहीं सुई दूँगा ।” सेलाइन देते ही ठीक हो जाएगा-मैंने मन-ही-मन कहा।

“सब त जात हैं?” वह करुण स्वर में बोली थी।

मैंने देखा-पड़ाव में खलबली मची हुई है। सब अपना डेरा तोड़ रहे हैं। गधों पर सामान बोझ रहे हैं।

“तो वे लोग तुम्हें छोड़कर चले जाएँगे?”

हूँ?”-वह रो पड़ी थी।

“तुम इसे ले चलो, अभी तुरन्त आराम आ जाएगा।”

पास में ही गधा चल रहा था, वह हाँक लाई। एक नौजवान ने आकर दूर से है, कुछ कहा। नौजवान ने एक बार मेरी ओर देखा और चला गया। गधे पर सामान लादकर उसने जोर लगाकर बीमार को उठाया और गधे पर बोझ दिया।

एक दुबले- पतले-काले बुड़ढे ने भी आकर कुछ कहा, पर वह मौन रही। रास्ते में मैंने पूछा-'“वह छोकड़ा क्या कह रहा था?”

“का कहि अरु! चल हम्मरे साथ, वहि के कौन भरोसा ।” “और वह बुड्ढा...?”

“बुढ़वा एति के (बीमार नौजवान का) बाप रहल। कहत रहल चल हमरे साथ रानी बनाय के राखब।”

मैं उसे अपने बरामदे पर लिटाकर 'सेलाइन' देने जा ही रहा था कि जमींदार साहब, गाँव के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ आ धमके। उन्होंने घृणा से मुँह विकृत करके दूर से ही कहा-“तुमने तो हद कर दिया। छीः छीः, जरा शर्म भी तो हो! एक भद्र परिवार की सन्‍्तान होकर इस नीच छोकड़ी पर मर रहे हो। तुम्हें अपनी इज्जत की परवाह न हो, लेकिन गाँववालों की इज्जत की भी तो फिक्र की होती! छीः छीः ...

“छी: छीः क्यों ?...इसे हैजा हो गया है, मैं डॉक्टर हूँ, दवा...” मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि सबों ने एक साथ चिल्लाकर कहा-“क्या! हैजा?”

“हे भगवान! यह तो अपने साथ गाँव-भर को ले डूबेगा। देख रहे हो न!” जमींदार साहब ने गाँववालों की ओर मुड़कर कहा। फिर क्या था, मुझ पर गालियों की बीछारें होने लगीं। मैं हतूबुद्धि-सा हाथ में सीरिंज लेकर खड़ा रहा। उस दिन युवती ने परिस्थिति ताड़ ली। उसने मेरी ओर एक बार देखा, फिर जोर लगाकर उस अर्द्धमृत युवक को उठाकर गधे पर बोझ दिया। उठाने के समय युवक ने मुँह बाकर पानी माँगा। असहाय युवती की आँखें बरस पड़ीं। उसने मेरी ओर जाते-जाते एक बार देखा और गधे को हॉँकने लगी।

“छी: छी:, बेहया! निर्लज्ज!! गाँव-भर का सत्यानाश करेगा ।” कहकर गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी प्रस्थान किया। मैं हाथ में सीर्रिंज लेकर चुपचाप देखता रहा-गोधूलि की बेला, दूर-बहुत दूर-उसकी जमात रंगीन धूल उड़ाती जा रही थी। गधे पर अपने प्रियतम को लादे, घाँघरी के छोर से आँसू पोंछते हुए वह भी उधर ही जा रही थी। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ रही थी, उसकी पीठ पर लाल रोशनाई का रंग और भी गहरा दिखलाई पड़ रहा था। धीरे-धीरे वह लाली आग की लपट-सी मेरी धमनियों में समा गई और उसी दिन से मैं आग से खेलने लगा।

कठोर कारावास से मुक्त होकर-सौभाग्यवश-सेनेटोरियम में जगह मिल गई है। दीवार पर “टेम्परेचर चार्ट" लटक रहा है। चार्ट पर एक लम्बी लाल रेखा खिंची हुई है, उसके ऊपर-नीचे चढ़ने और उतरनेवाली बुखार की गति रोशनाई से अंकित की गई है। मैं चार्ट को देखता रहता हूँ, उसे देखकर तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करता है-काशी की गंगा के किनारे-किनारे छोटे-बड़े मन्दिरों के गुम्बज...और नीचे...गंगा के निर्मल जल में उनकी प्रतिछाया...!!

दूसरे चार्ट पर मेरी हिस्ट्री लिखी हुई है। डेट ऑफ डेथ (मृत्यु की तिथि) के सामने अभी जगह खाली है। उस स्थान को भरते हुए मैं नहीं देख सकूगा!

बुखार! खाँसी!! रक्त -वमन!! उफ्‌?

मुँह पर सफेद नकाब डालकर डॉक्टर आते हैं, नर्सें आती हैं। मेरी हालत देखकर उन लोगों के चेहरों पर जो रंग चढ़ता-उतरता है-उसको भी लक्ष्य करता हूँ।

कोयल की कूक, मस्ती-भरी फागुन की हवा और वार्ड कुली के रंग दे चुनरी हमारी...” गीत को सुनकर मैं अन्दाजा लगाता हूँ-'होली आ रही है!

आँखों के आगे, प्राणों में घुले हुए सभी रंग एक-एक करके दौड़ जाते हैं- कला .....नीला .....पिल... हर... लाल... सफेद !