जाड़े का दिन।
अमावस्या की रात-ठंडी और काली।
मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था।
पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोंपड़ियों में अन्धकार और सनन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य!
अँधेरा और निस्तब्धता।
अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी! निस्तब्धता करुण-सिंसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी, अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे। सियारों का क्रन्दन और पेचक की डरावनी आवाज कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपड़ी से कराहने और कै करने की आवाज, 'हरे राम! हे भगवान!
की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से माँ-माँ पुकारकर रो पड़ते थे, पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी। कुत्तों में परिस्थितियों को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है।
वे दिन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर मन मारकर पड़े रहते थे। सन्ध्या या गम्भीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे। रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी-सिर्फ पहलवान की ढोलक।
सन्ध्या से लेकर प्रातः तक एक ही गति से बजती रहती-“चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा” अर्थात्-'आजा भिड़जा!! बीच-बीच में “चटाक्-चट्-धा चटाक्-चट्-धा” यानी-उठाकर पटक दे!!...यही आवाज संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
लुट्टन सिंह पहलवान!
यों तो वह कहा करता था-“लुट्टन सिंह पहलवान को “होल-इंडिया! भर के लोग जानते हैं,” किन्तु उसके 'होल-इंडिया” की सीमा शायद एक जिले की सीमा के बराबर ही हो। जिले-भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे।
लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-पिता का अनुसरण करता।
विधवा सास ने पाल-पोसकर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे।
लुटूटन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था।
एक बार वह “दंगल” देखने श्यामननगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे रहा नहीं गया।
जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई हुई आवाज ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी।
उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में 'शेर के बच्चे” को चुनौती दे दी।
“शेर के बच्चे! का असल नाम था-चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनंगर मेले में आया था। सुन्दर-जवान, अंग-प्रत्यंग से सुन्दरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह की अपनी जोड़ी और उम्र के. सभी पट्ठों . को पछाड़कर उसने “शेर के बच्चे” की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लैँगोट लगाकर एक अंजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान उससे लड़ते की कल्पना से भी घबड़ाते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था।
दंगल और शिकार-प्रिय श्यामनगर के वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की बात कर ही रहे थे कि लुट्टन ने 'शेर के बच्चे” को चुनौती दे दी। सम्मान-प्राप्त चाँद सिंह पहले तो किंचित उसकी स्पर्धा पर मुस्कुराया, फिर बाज की तरह उस पर टूट पड़ा। शान्त दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गई-पागल- है, पागल है, मरा-ऐ! मरा-मरा!!...पर वाह रे बहादुर! लुटूटन बड़ी सफाई से आक्रमण को सम्हालकर, निकलकर खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बन्द करवाकर लुटूटन को अपने पास बुलवायां और समझाया। अन्त में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपए का नोट देकर कहने लगे, “जाओ, मेला देखकर घर जाओ... !”
“नहीं सरकार, हम लड़ेंगे...हुकुम हो सरकार... !”
“तुम पागल हो? जाओ...” '
मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया-“देह में गोश्त नहीं, लड़ने चलो है शेर के बच्चे से! सरकार इतना समझा रहे हैं... !!”
“दुहाई सरकार, पत्थर पर सिर पटककर मर जाऊँगा...मिले हुकुम...” वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रह्म था।
भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बन्द हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमात क्रोध से पागल हो लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष में चिल्ला उठता था-“उसे लड़ने दिया जाए!
अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुस्कुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली _ पकड़ में ही अपने प्रतिद्वन्दी की शक्ति का अन्दाजा उसे मिल गया था।
विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी-“लड़ने दो!”
बाजे बजम्शलगे। दर्शकों में फिर उत्तेजना फैली । कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बन्द करके दौड़े, “चाँद की जोड़ी? चाँद की कुश्ती हो रही है!!”
चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा... दोनों युवक पहलवान पैंतस- भरने लगे। भारी आवाज में एक ढोल, जो अब तक चुंप था, बोलने लगा-ढाकू-ढिन्ना, ढाकु-ढिन्ना, ढाकू-ढिन्न...अर्थात् वाह पटूठे! वाह पट्ठे!!
लुट्टन को चाँद ने कसकर दबा लिया-स्थो।
“अरे, गया-गया”-दर्शकों ने तालियाँ बजाई-“हलुआ हो जाएगा, हलुआ-हँसी खेल नहीं, शेर का बच्चा है...बंच्चू!”
“चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा”-अर्थात् मत डरना! मत डरना!!
लुट्टन की गर्दन पर केहुनी डालकर चाँद चित” करने की कोशिश कर रहा था। “वहीं दफना दे बहादुर!” बादल सिंह अपने शिष्य को उत्साहित कर रहा था।
लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी । राजमत, बहुमत चाँद के पक्ष में था। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लुटूटन के पक्ष में सिर्फ ढोल की आवाज थी, जिसके ताल-पर वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था-अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था.। अचानक ढोल की एक पतली आवाज सुबाई पड़ी- *धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-घिना, तिरकट-तिंना...!!” लुट्टन को स्पष्ट सुनाई पड़ा। ढोल कह रहा था-“दाँव काटो, बाहर हो जा, दाँव काटो, बाहर हो जा!”
लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। लुट्टन दाँव काटकर बाहर निकला और तुरन्त लपककर चाँद की गरदन पकड़ ली।
“वाह रे मिट्टी के शेर!”
“अच्छा! बाहर निकल आया? इसीलिए तो...।' जनमत बदल रहा था।
मोटी और भौंड़ी आवाजवाला ढोल बज उठा-' 'चटाक्-चट्-धा, चटाकू-चट्-धा...” अर्थात्-उठा पटक दे! उठा पटक दे!!
अडटन ने चालाकी से दाँव और जोर लगाकर चाँद को जमीन पर दे मारा। धिक-घिना, घिक-धिना...। अर्धात्-“चित-करो-चित करो!!” लुट्टटन ने अन्तिम जोर लगाया, चाँद सिंह चारों खाने चित हो रहा। “धा-गिड़, धा-गिड़-गिड़...” अर्थात् “वाह बहादुर! वाह बहादुर! !”
जनता यह स्थिर नहीं कर सकी कि किसकी जयध्वनि की जाय, फलतः अपनी- अपनी इच्छानुसार किसी ने 'माँ दुर्गा' की, किसी ने 'महावीरजी' की, कुछ ने “राजा श्यामानन्द' की-जयध्वनि की, अन्त में सम्मिलित-'जय' से आकाश गूँज उठा।
विजयी लुट्टन कूदता-फाँदता, ताल-ठोकता सबसे पहले बाजेवाले की ओर दौड़ा, ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपत्ति की “हैं-हैं-अरे-अरे!” किन्तु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गदूगद होकर कहा-“जीते रहो बहादुर! तुमने मिट्टी की लाज रख ली।”
पंजाबी पहलवानों की जमात चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुटूटन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुटूटन सिंह कहकर पुकारने लगे।
राज-पंडितों में मुँह बिचकाया-“हुजूर! जाति का दुसाध...सिंह... !” मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। 'क्लीन-शेव्ड' चेहरे को संकुचित करते हुए अपनी पूरी
शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-“हाँ सरकार, यह अन्याय है!” राजा साहब ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा-“उसने क्षत्रिय का काम किया है।”
उसी दिन से लुट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेहनदृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुँघाकर आसमान दिखा दिया। काला खाँ के सम्बन्ध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लेंगोट लगाकर-'आ-ली” कहकर अपने प्रतिद्वन्द्दी पर टूटता है, प्रतिद्दन्दी पहलवान को लकवा मार जाता है। लुटूटन ने उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया। उसके कम वह राज-दरबार. का दर्शनीय 'जीव” ही रहा।
ड़ियाखाने में, पिंजड़े और जंजीरों को झकझोरकर बाघ दहाड़ता-“हाँ ऊँ, हाँ ऊँ!!” सुननेवाले कहते-“राजा का बाघ बोला।”
ठाकुरबाड़े के सामने पहलवान गरजता-'“महा-वीर” ! लोग समझ लेते पहलवान बोला।
मेलों में वह घुटने तक लम्बा चोगा पहने, अस्त-व्यस्त, पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। दुकानदारों को चुहल करने की सूझती | हलवाई अपनी दुकान में बुलाता-“पहलवान काका! ताजा रसगुल्ला बना है, जरा नाश्ता कर लो ।” पहलवान बच्चों की-सी स्वाभाविक हँसी हँसकर कहता-“अरे तनी-मनी काहे! ले आवा डेढ़ सेर!”...और बैठ जाता।
दो सेर रसगुल्लों को उदरस्थ करके, मुँह में आठ-दस पान की गिलौरियों को दुँस, ठुडडी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल में मेला में घूमता। मेला से दरबार लौटते समय उसका अजीब हुलिया रहता-आँखों पर रंगीन अबरख का चश्मा, हाथ में खिलौनों को नचाता और मुँह से पीतल की सीटी बजाता, हँसता हुआ वह वापस आता। बल और शरीर की वृद्धि के साथ-साथ बुद्धि घटकर बच्चों की बुद्धि के बराबर ही रह गई थी उसमें।
दंगल में ढोल की आवाज सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदर्शन करना शुरू कर देता था। उसकी जोड़ी तो मिलती नहीं थी, यदि कोई उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लुट्टन को आज्ञा ही नहीं देते। इसलिए वह निराश होकर, लैंगोट लगाकर, देह में मिटटी मल और उछलकर अपने को साॉँड़ या मैंसा साबित करता रहता था। बूढ़े राजा साहब देख-देखकर मुस्कुराते रहते।
यों ही पन्द्रह वर्ष बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों . को लेकर उतरता था। पहलवान की सास पहले ही मर चुकी थी, पिता पहलवान की स्त्री भी दो-दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी। दोनों पिता की तरह गठीले और तगड़े थे। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता-“वाह! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ये दोनों बेटे!” दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे। अतः दोनों का भरण-पोषण दरबार से ही हो रहा था।
प्रतिदिन प्रातःकाल पहलवान स्वयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में, लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की शिक्षा भी देता-“समझे। ढोलक की आवाज पर पूरा ध्यान रखना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे!...ढठोल की आवाज के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!” ऐसी ही बहुत-सी बातें वह कहा करता। फिर मालिक को कैसे खुश रखा जाता है, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि की शिक्षा वह नित्य दिया करता था। किन्तु उसकी शिक्षा-दीक्षा, सब किए-कराए पर एक दिन पानी फिर गया।
वृद्ध राजा साहब स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने राज्य-कार्य अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय में जो शिधिलता आ गई थी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत से परिवर्तन हुए, उन्हीं परिवर्तनों के चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी । दंगल का स्थान घोड़े के रेस ने ले लिया। पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन-व्यय सुनते ही राजकुमार ने कहा-“टेरिबुल !”
पहलवान को साफ जवाब मिल गया, राज-दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं। उसको गिड़गिड़ाने का भी मौका नहीं दिया गया। उसी दिन वह ढोलक कन्धे से लटकाकर, अपने पुत्रों के साथ अपने गाँव में लौट आया तो वहीं रहने लगा। गाँव के एक छोर पर, गाँववालों ने एक झोंपड़ी बाँध दी। वहीं रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। खाने-पीने का खर्च गाँववालों की ओर से बँधा हुआ था। सुबह-शाम वह स्वयं ढोलक बजाकर अपने शिष्यों और पुत्रों को दाँव-पेंच वगैरह सिखाया करता था।
गाँव के किसान और खेतिहर-मजदूर के बच्चे भला क्या खाकर कुश्ती सीखते! धीरे-धीरे पहलवान का स्कूल खाली पड़ने लगा। अन्त में, अपने दोनों पुत्रों को ही वह ढोलक बजा-बजाकर लड़ाता रहा। सिखाता रहा। दोनों लड़के दिन-भर मजदूरी करके जो कुछ भी लाते उसी में गुजर होती रही। अकस्मात् गाँव पर वज्पात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया। गाँव प्रायः सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। दिन में तो-कलरव, हाहाकार तथा हृदय-विदारक रुदन के बावजूद लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में । सूर्यास्त होते ही लोग काँखते-कूँखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों को ढाढ़स देते थे।
“अरे क्या करोगी रोकर दुलहिन! जो गया सो चला गया, वह तुम्हारा नहीं था, अब जो है उसको तो देखो।”
“भैया! घर में मुर्दा रखकर कब तक रोओगे? कफन? कफन की क्या जरूरत है, दे आओ नदी में!” इत्यादि।
किन्तु सूर्यास्त होते ही जब लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते तो चूँ भी नहीं करते। उनके बोलने की शक्ति भी जाती रहती थी। पास में दम तोड़ते हुए पुत्र को अन्तिम बार बेटा कहकर पुकारने की हिम्मत माताओं को नहीं होती थी। रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान सन्ध्या से सुबह तक चाहे जिस खयाल से ढोलक बजाता हो, किन्तु गाँव के अर्द्धमृत औषधि-उपचार-पध्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पन्दन-शक्ति शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी।
अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश गति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें सन्देह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।
जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल के चपेटाघात में पड़े, असहय वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था-“बाबा! 'उठा पटक दो” वाला तान बजाओ!” ““पटाकू-चट-धा, चटाकू-चट्-धा-सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान। बीच-बीच में पहलवानों की भाषा में उत्साहित भी करता था-'मारो बहादुर !! प्रातःकाल उसने देखा उसके दोनों बेटे जमीन पर निस्पन्द पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दाँत से मिट्टी खोद ली थी। एक लम्बी साँस लेकर पहलवान ने मुस्कराने की चेष्टा की थी-ददोनों बहादुर गिर पड़े!
उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानन्द की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली, सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को दोनों कन्धों पर लादकर नदी में बहा. आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गई। किन्तु उस रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज, प्रतिदिन की भाँति ही सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। सन्तप्त पिता-माताओं ने कहा-“दोनों पहलवान बेटे मर गए पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, क्या कलेजा है!”
चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर किन्तु रूठे शिष्यों ने प्रातः:काल जाकर देखा-पहलवान की लाश चित पड़ी है। रात में सियारों ने बाईं जाँघ के मांस को खा डाला है, पेट पर भी...
आँसू पोंछते हुए एक ने कहा-“गुरुजी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे पेट के बल सुलाना। मैं जिन्दगी में कभी चित” नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना...” वह आगे नहीं बोल सका।
पास में ही ढोलक लुढ़की पड़ी थी।
सियारों ने ढोलक को “भोज्य-पदार्थ' समझकर उसके चमड़े को फाड़ डाला था।