वंडरफुल स्ट॒डियो

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सकता था।

लेकिन 'स्वास्थ्य-संशोधन' के बाद वजन में परिवर्द्धन और चेहरे में परिवर्तन होकर जो मेरी सूरत का नया संस्करण निकला, उसे पहचानने में मैं खुद कई बार भटक गया हूँ।

कहाँ वह 95 पाउंडवाला चेहरा और कहाँ यह 154 पाउंड की सूरत!

दोस्तों ने कई बार सलाह दी कि एक नया फोटो उतरवाकर पिछली सभी तस्वीरों के “केन्सिल' होने की घोषणा कर दूँ, और अपने मन में भी कई बार सोचकर देखा कि यह “गुलगुली' न जाने कब गायब हो जाए!

चुनाँचे एक नया फोटो खिंचवाने का फैसला कर लिया गया। वरना, मैं तो अपने को ऐसा परिपक्व पॉलिटिसियन समझे बैठा था जिसकी तस्वीर के लिए सैकड़ों नहीं, तो कम-से-कम दस कैमरेवाले नौजवान जरूर चक्कर काटते हैं।

असल में अपना फोटो उतरवाना “बचकाना” शौक-सा मालूम होता था।

फोटो उतरवाने की बात तो तय हो गई, लेकिन उस शाम को यह फैसला नहीं हो सका कि फोटो कहाँ उतरवाया जाए। हमारे एक मुँहबोले भाईजान हैं, जिन्हें हम इनसायक्लोपेडिया की तरह काम में लाते हैं!

असली जाफरान किस दुकान में मिलती है, मुर्ग.मुस्लम किस होटल पर बेहतरीन होता है, कॉफ़ी किस 'काफे” की सही जायकेवाली होती है, असली गबरडीन कपड़ा किस दुकान में है, बड़े सर्जन और फिजिशियन कौन-कौन हैं और किस 'टेलरिंग” की क्‍या विशेषता है, वगैरह बातों के अलावा पारिवारिक उलझनों को सुलझाने में उनसे बराबर मदद मिलती है।

भाईजान ने कहा, “एक जमाना था जब राजू चौधरी अच्छी तस्‍वीरें बनाया करता था।

गवर्मेंट हाउस से लेकर 'शहादत-आश्रम” तक उसकी पूछ थी। अब्बल दर्जे के फोटोग्राफर के साथ ही वह पक्का मेहनती भी था। उस बार श्मशान-घाट में पूरे तीन घंटे तक मेहनत करके डॉ. अग्रवाल की लाश की ऐसी तस्वीर उसने ली कि जिसे देखकर हर आदमी की ख्वाहिश...”

मनमोहनजी की आदत है कि हमेशा भाईजान की बात को बीच में ही काट देते हैं। बोले, “किस मुर्दे की बात कर रहे हैं, आप? आजकल चतुर्वेदी -स्टुडियो है जिसके बारे में दो रायें नहीं हो सकतीं?”

भाईजान ऐसे मौके पर कभी झुँझलाते नहीं हैं। उन्होंने फिर शुरू किया, “इसके वाद घोषाल अपने नए कैमरों के साथ मैदान में उतरा। उसके बारे में यह मशहूर है कि बगैर 'रिट्च” किए ही बेहतरीन तस्वीरें बनाया करता था।

फिर 'आलोछाया' वालों का युग आया, जो “लाइट और सेड' की कला में निपुण था। प्रोफेसर किरण की एक ऐसी तस्वीर उसने उतारी थी, जिसे इंटरनेशनल फोटोग्राफी प्रदर्शनी में प्रदर्शित करने - की चर्चा जोरों पर चल पड़ी थी। सिर्फ नाक प्र लाइट दिया गया था।

जरा कल्पना कीजिए, काले कार्ड पर सिर्फ नाक और चश्मे के फ्रेम के एक कोने पर हल्की रोशनी डाली गई है और आप उस काले कार्ड पर प्रोफेसर किरण की सूरत को स्पष्ट देख रहे हैं। अब तो चतुर्वेदी का मार्केट है, मगर...”

“मगर क्या?” रमाकिशुनजी ने पूछा।

“मतलब यह कि चतुर्वेदी के यहाँ जानेवालों को अपने पॉकेट पर पूरा भरोसा होना चाहिए ।” भाईजान ने फरमाया।

बीरेन को न जाने क्‍यों यह बात लग गई। वह बोला, “भाईजी! आपका यह इल्जाम सरासर गलत और गैरवाजिब है। बेचारा पैसा लेता है तो काम भी करता है। फिल्मों और प्लेटों की बढ़ती हुई कीमतों का भी पता है आपको?”

मजलिस को बहस के लिए काफी मसाला मिल गया था और मुझे याद आई कि “चाय' के पैकेट के खत्म होने की सूचना मुझे सुबह ही दे दी गई थी। सरकारी ट्रेजरी से चेक का रुपया निकास करना आसान है, लेकिन “चूल्हे-चौके' की सरकार से पैसे मंजूर करवाकर निकलवाना कितना कठिन है, यह लिखने की बात नहीं । पैसे निकलते हैं जरूर, मगर हड़डी में घुस जानेवाले रिमार्कों के साथ।

“हजार बार कहा कि अपने लिए 'हैपी वैली' लाते हो तो उसके साथ ही ब्रुकबांड के 'होटलब्लेंड” वाले डस्ट का भी एक पैकेट ले आया करो।

लेकिन इन पर तो “चाय का शौकीन' कहाने का भूत सवार है। दोस्तों ने कह दिया-यार, चाय के असल शौकीन तो तुम्हीं हो-बस, बन गए उल्लू। पूरे छह रुपए बारह आने पाउंडवाली चाय पिलाए जा रहे हैं। दुनिया में आग लगी हुई है और यहाँ “व्हाइट प्रिंस” पीने के मनसूबे बाँधे जा रहे हैं...'-यही मेरी सरकार की, सलाह कहें या फटकार कहें, नसीहत है।

“व्हाइट प्रिंस” नहीं, व्हाइट जेसमिन ! एक दिन हमारी मजलिस में इस बात की चर्चा हो रही थी कि हिन्दुस्तान की कौन-सी शख्सियत कौन-सी चाय और सिगरेट पीती है।

मौलाना आजाद के बारे में कहा गया कि वे व्हाइट जेसमिन चाय पीते हैं। मौलाना ने अपनी किताब “गोबारे खातिर” में कबूल की है। और इसी सिलसिले में हममें से किसी की सरस और चंचल रसना से यह पुरहौसला उद्गार जरा जोर से निकल पड़ा था-““जिन्दगी कायम रही तो हम भी कभी चख लेंगे भाई!” पर्दे के उस पार यही बात पहुँच गई थी और उसी दिन से मुझ पर व्हाइट प्रिंस का व्यंग्ववाण

छोड़ा जा रहों था। यहाँ तक कि ससुराल से यह बात यो 'रिडायरेक्ट' होकर पहुँची थी-“व्हाइट एलिफेंट साहब व्हाइट प्रिंस पीने के मनसूबे बाँध रहे हैं ।

चुन्नीलाल को चाय और सिगरेट के लिए बाजार दौड़ाकर जब मैं वापस आया तब बात एकोनामिक्स के डिप्रेसन के दायरे को पार कर पालिटिक्स के सोशलिज्म, कम्युनिज्म और प्रजा-सोशलिज्म के भँवर में चक्कर काट रहीं थी।

रोज ल्‍कड कि है। बात कोई भी हो और कहीं से प्रारम्म किया जाए, उपसंहार यही ता है।

इसलिए उस शाम की मजलिस में यह तय नहीं हो पाया कि फोटो कहाँ उतरवाया ' जाए।

दूसरे दिन शाम को जब मैं चौक से गुजर रहा था, वंडरफुल स्टुडियो” के वंडरफुल साइनबोर्ड की जलने-बुझनेवाली रोशनी ने फोटो की याद दिला दी। यह भी याद आई कि राजन यहीं काम करता है।

राजन, हमारा कलाकार मित्र जो शान्तिनिकेतन से फाइन आर्टस्‌ का डिप्लोमा प्राप्त कर साल-भर तक यहाँ फाँके करता रहा। अब इसी स्टुडियो में उसे नौकरी मिल गई है। आखिर “वंडरफुल'” में ही फोटो उतरवाने का इरादा मैंने पक्का कर लिया।

दुकान में दाखिल होते ही एक खास ढंग के आदमी से सामना हुआ-“फर्माइए जी। मैं ही वंडरफुल का डिरेक्टर हूँ।”

“फोटो लेना है।”

“बेहतर जी। चलिए, अन्दर स्टुडियो में ”

सामने मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था-“यह दुनिया एक वंडरफुल स्टुडियो है।”

“राजनजी कहाँ हैं?” मैंने पूछा।

“कौन राजन! म्हारा आरटिस्ट! बो तो आज बिथ-बाइफ रेडियो सटेशन गया हुआ है। कमरसल आरट पर आज उनका टाकन्‍है ।” वह आदमी लुढ़कता हुआ आगे-आगे चल रहा था।

अन्दर के एक कमरे में पहुँचकर वह हमारी ओर मुड़ा-“अच्छा जी ब्हाई सा/ब, पोज आपका अपना होगा या हमारे सेट्स के मुताबिक?”

“क्या मतलब?”

“मतलब समझा देता हूँ”-उसने अपने गले से लटकते हुए मेगनिफाइंग ग्लास की रेशमी डोरी को उँगलियों में लपेटते हुए कहा, “सा/ब, बात यह है कि हमने अपने कस्टमरों की इच्छा के मुताबिक बड़े-बड़े आरटिस्टों को एम्पलाय करके तरह-तरह के सेट्स बनवाए हैं।...इधर आइए। (पर्दा हटाकर) यह है हमारा फिल्‍मी सेट, और ये रहीं तस्वीरें इस सेट की!” उसने एक बड़ा एलबम खोला।

तस्वीरों में देखा, फिल्‍म की मशहूर अभिनेत्रियों के अभिनय के दृश्य थे। बात कुछ समझ में नहीं आई। बोला, “ये तो फिल्‍मी तस्वीरें हैं?”

“जी सा'ब, देखने से तो यही मालूम होती है”-अपनी काया के अनुपात से एक भारी-भरकम हँसी हँसते हुए उसने कहा, “यही तो म्हारी खसूसियत है। जरा गौर से देखना जी-हमने अपने कस्टमरों की ख्वाहिश के मुताबिक उन्हें सुरैया, का ललिनी, निम्मी वगैरह के साथ एक्टंग के पोज में खड़ा कर फोटो लिया

अब सभी तस्वीरें मेरी निगाह में एक साथ नाच गईं। राजकपूर, दिलीपकुमार तथा देवानन्द की तरह बालों को सँवारे हुए नौजवान (और किशोर भी) अभिनय की मुद्रा बनाए हुए हैं। कोई सुरैया की ठुड्डी पकड़कर कुछ कह रहा है। कोई घुटनों तक नेकर और नेवी गंजी पहने हुए, नरगिस के हाथ में हाथ डाले, 'आवारा” के एक पोज में है और कोई निम्मी के कन्धे पर हाथ डाले दिलीपकुमार के अन्दाज में कुछ कहना चाहता है!

“यह सब? ये अभिनेत्रियाँ?” मैं सिलसिले से कुछ पूछ भी न सका।

“ये एक्टरेसस! हँजी, बो “डमी” हैं। हमने बड़े-बड़े फनकारों को अपने यहाँ एम्पलाय किया है, वो हमें हर नए पोज के लिए मिट्टी की मूर्तियाँ घड़ देता है।”

“क्या लड़कियाँ भी इसी तरह के पोज में तस्वीरें उतरवाती हैं?” मैंने जरा साहस से काम लिया।

“जी भोत! उनके लिए हमने एक्टरों की “डम्मियें' बनवा रक्खी हैं। ज्यादेतर लड़कियाँ अशोककुमार, दिलीप और राजकपूर के साथ 'अपियर' होना चाहती हैं। वैसे तो उस दिन एक कालिजगर्ल ने कामेडियन मिर्जा मुशर्रफ के साथ उतरवाने की खाहिश जाहिर की, मगर एक कस्टमर के लिए कौन डम्मी बनाता है? पिछले महीने पच्चीस कस्टमरों के आर्डर पर हमने एक 'शेर' की 'डमी” बनवाई, लोग 'सेमसन” की तरह शेर से लड़ते हुए तस्वीर उतरवाना चाहते हैं।”

“लेकिन फोटो में ये डम्मी जानदार मालूम होते हैं।” मैंने अपनी मुस्कुराहट को होंठों में ही रोकते हुए कहा।

“जी सा'ब!” वो हमारे शेड, मेकअप और रिटेच से ठीक हो जाते हैं।”

लड़के ने आकर कहा, “सा'ब! फिलम सेट का कस्टमर आया हुआ है।”

“ले आओ”-फिर मुझसे बोला, “चलिए, हम आपको अपना दूसरा सेट दिखावें। आपको मेरा पालिटिकल सेट जरूर पसन्द होगा।”

हॉल के दूसरे पार्टिशन में हम गए। बड़े उत्साह से वंडरफुल डिरेक्टर साहब ने मुझे अलबम दिखाना शुरू किया-“देखो जी भाई सा'ब! ये हैं आइना पोजेज!”

एक तस्वीर में देखा, मिलिटरी पोशाक में कुछ लड़कियाँ कवायद कर रही हैं।

“आइना पोज क्या?”

“आप आइना नहीं समझे? अरे! आइना? इंडियन नेशनल आर्मी! ढिल्लन, सहगल, शाहनवाज और काप्टन लक्ष्मी...?”

“ओ! आई.एन.ए.?”

“उस समय तो सा'ब, सब लड़कियों को बस यही शौक था, लिहाजा हमने मिलेटरी वर्दियाँ और 'डम्मी' रायफल बनवाए?”

मैं एक तस्वीर को गौर से देखने लगा-एक दुबली-पतली, लम्बी लड़की, जिसके गालों में गड़ढे थे, आँखें छोटी और अन्दर घुसी हुईं, ठीक कैप्टेन लक्ष्मी के पोज में सेल्यूट...नहीं...जय हिन्द कह रही है। उसके दुबले हाथ में रायफल का कुन्दा हाथी के पाँव-जैसा मालूम हो रहा है।

“और इधर देखिए! हजारों का मजमा है। नेतांजी भाषण दे रहे हैं। सामने माइक' है।”

फोटो में भीड़ को देखकर कांग्रेस के महाधिवेशनों की याद आ रही थी। मैंने ताज्जुब से कहा, “हजारों का मजमा नहीं, लाखों का कहिए। लेकिन...इतने लोगों को; यानी इतनी “डम्मियाँ' आपने कैसे बनवाई?”

वह हँस पड़ा, शायद मेरी बेवकूफी पर। फिर बोला, “सा'ब, ये फोटोग्राफक टिरीक हैं। हमने इस तरह के पर्दे बनवा लिए हैं।”

“देखो जी! ये मजदूरों का लीडर है। हजारों मजदूरों के जलूस की रहनुमाई कर रहा है।”

देखा-हजारों मजदूरों की लम्बी कतार के आगे हाथ में झंडा (सही रंग नहीं कह सकता, क्योंकि फोटो में काला ही था, और झंडे के निशान के बारे में जानकर क्‍या कीजिएगा ?) लिए हुए, बाल बिखराए हुए, मुँह फाड़े हुए, मजदूरों के लीडर कदम आगे बढ़ा रहे हैं। वाह!

“इस पोज में राजनैतिक कार्यकर्ता या लीडर क्‍यों अपनी तस्वीर उतरवाएँगे? इसे तो बैठे-ठाले लोग ही पसन्द करते होंगे। फोटो देखकर भी तो यही जाहिर होता है?” मैंने कहा।

“आप ठीक कहते हैं सा'ब। ज्यादेतर ऐसे-वैसे लोग ही-खासकर व्योपारी, सेठ-साहूकारों के लड़के इसे पसन्द करते. हैं? हमने कुछ जवाहर जैकेट, कुछ सुफेद और रंगीन टोपियाँ बनवा ली हैं। लेकिन अभी उस दिन...माफ करना जी...प्राइवेट बात है...आप किसी से बोलना मत। अभी उस रात को मनिस्टर कृपा बाबू का प्राइवट सिकरटरी चौबे आके हाजिर। बोला, देखो जी पापड़ा, पुरानी दोस्ती है तुमसे, भोत प्राइवट बात है। मनिस्टर सा'ब रायपुर में ब्रच्छ-रोपण में गए थे। बेदर अच्छा नहीं था, तस्वीर साफ नहीं आई। कोई उपाय करो। कल ही अखबारों में देना है। मैं बोला-मगर मनिस्टर सा'ब को सटुडियो में आना होगा जी! ग्यारह बजे रात को मनिस्टर सा'ब आए। हमने झंडोत्तोलनवाला पर्दा लगा दिया, हमारे आरटिस्ट ने झंडे की जगह ब्लैंक कर दिया, वहीं मनिस्टर सा'ब ने ब्रच्छ-रोपण किया। झंडोत्तोलन के बदले ब्रच्छ-रोपण ही सही।” ।

उसने तस्वीर देखने को दी। अरे! यह तस्वीर तो हाल ही पत्रों में छपी है। मुझे तो इसके ऊपर की सुर्खी और नीचे का चित्र-परिचय भी याद है!

बगल के पार्टिशन से (फिल्म सेट से) आवाज आ रही थी-“कमर को और झुकाइए...जरा...हाँ...और उँगलियों को बिखराइए फूलों की पंखुड़ियों की तरह...इस

वंडरफुल साहब मुस्कुराकर बोले, “बो डानस का पोज ठीक हो रहा है। है न वहाँ...मोड़ पर, उसी का डिरेक्टर हमारा डानस पोज बनाता..

“वाह साहब! वास्तव में वंडरफुल है आपका स्टुडियो! युनिक है।” मैंने कहा।

“सा'ब, हम इसे और डेवलप करेंगे। इधर हमने फिर दो सेट बनवाए हैं। कौमी सेट...और फरेंच सेट!”

“कौमी सेट? जरा वह भी दिखाइए ,”

इस बार वंडरफुल साहब कुछ हिचकिचाए। फिर बोले, “देखिए जी बाबू सा'ब। आप जब राजन के मित्तर हैं तो हमारे भी मित्तर ही ठहरे; वरना, हम औरों को नहीं दिखाते। आइए ।”

तीसरे पार्टिशन में ले जाकर वंडरफुल ने मुझे दो-तीन तस्वीरें दिखाईं। एक में एक नौजवान को एक लुगगीधारी बूढ़े के पेट में छुरा घुसेड़ते देखा।

दूसरे में एक बहादुर युवक शिवाजी की तरह घोड़े को उछालता और तलवार चलाता हुआ दिखाई पड़ा। तीसरे में भारत-माता आसमान से पुष्प-वृष्टि कर रही है और एक वीर राष्ट्रीय झंडे को फाड़कर चित्थी-चित्थी कर रहा है...हजारों की भीड़ है।

“और इधर फरेंच सेट है...हालीउड फिलम सेट!”

मेरा सिर चकरा रहा था। मैं पास की पड़ी हुई तिपाई पर बैठते हुए बोला, “वंडरफुल सा'ब! आपको किन शब्दों में धन्यवाद दूँ। आपने कितना बड़ा कल्याण किया है समाज का-यह कहने की बात नहीं। आपने यदि यह स्टुडियो नहीं खोला होता तो दुनिया के लोग पागल हो गए होते ।...आप इंसान के मन में सोई हुई अतृप्त इच्छाओं की तस्वीर लेते हैं। यह तो बेजोड़ है। सही तस्वीर तो आप ही लेते हैं इंसान की। वाह!”

वंडरफुल अब बकने लगा, “बाबूजी! यहाँ बिजनेस का तो कोई मजा ही नहीं। लाहौर में जब हम थे तो ऐसे एक-एक पोज के लिए एक-एक सौ रुपए लोग देते थे। यहाँ तो लोग “आरट” को समझते ही नहीं ।...अच्छा जी! अब फर्माइए, आपके लिए कौन-सा सेट लगवाऊँ!”

“मेरे लिए?...मेरे लिए सेट लगवाने की जरूरत नहीं । मैं अपने मन का पोज देना चाहता हूँ।” मैंने गम्भीरतापूर्वक कहा ।

“बेहतर जी! फमइए ।”

“मेरे गले में रस्सी का फन्दा डालकर एक पेड़ से लटका दो। फोटो ऐसा उतरे जिसमें मेरी आँखें और जीभ बाहर निकली हुई हो और हाथ में एक कागज का टुकड़ा हो जिस पर लिखा हो-'खुश रहो वंडरफुल वतन हम तो सफर करते हैं! ।”