कस्बे की लड़की

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !”

लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं।”

बून्दी अप्रतिभ हुई किन्तु उसके होंठों पर वंकिम-दुष्टता अंकित रही और लल्लन काका की मद्धिम झिड़की की कोई परवाह किए बगैर अब दादाजी की आज्ञा सुनाने लगी, “दादीजी कहती हैं कि सरोज फुआ नहा रही हैं।

लल्लन काका से कहो, जल्दी तैयार होकर नाश्ता कर लें। सरोज फुआ को बहुत जगह जाना है। और रिक्शा वाला... ।!

“जा-जा !” प्रेयव्रत पूर्ववत्‌ पाइप पीता रहा। बून्दी आँगन में लौटी तो उसने मुँह में पेन्सिल डालकर लललन काका की नकल करते हुए सुना दिया, दादी को-“जा-जा!”

दादी अचार-पापड़ के मर्तमानों को धूप में डाल रही थी। बड़बड़ाई, “सभी कामचोर हैं।” बून्दी ने सविनय-सदुलार-निवेदन के सुर मैं कहा, “दादी-ई-ई! एक हरे मिर्च का अनचा-र!”

“जा-जा, बड़ी पतली जीभ है तेरी ।” बून्दी का मुँह लटक गया। दादी ने मर्तमान से एक हरी मिर्च निकालकर देते हुए कहा, “जा भगेलू से कह, सामनेवाली दुकान से... ।” बून्दी दाँत से मिर्च को काटती सिसियाई, “सि-ई-ई! सारी सुबह मैं इधर-उधर करती रहूँगी तो स्कूल कब जाऊँगी? जिधर जाओ, उधर ही बल जा-जा!! सरोज फुआ बाथरूम से बाहर ही नहीं होतीं। मैं कब नहाऊँगी, कब खाऊँगी...यह लो, यह गई गाड़ी स्कूल की!”

प्रियव्रत सुबह से ही तनिक झुँझलाया हुआ है। रात-जैसी गर्मी हजारीबाग में कभी नहीं पड़ी। नींद नहीं आई रात-भर। हालाँकि परिवार के और लोग हल्की ऊनी चादर डालकर सोए थे। प्रियव्रत की माँ बारहों महीने रजाई ओढ़ती है। हल्की-फुल्की रजाई गर्मियों में और भारी सर्दियों में ।

और उनींदी रात की प्रतिक्रिया दूसरे दिन सुबह बाथरूम से ही शुरू होती है। दाढ़ी कई स्थान पर कट गई है। कनपटी के पास

मीठा-मीठा दर्द है। वह सुन चुका है। बाबूजी का हुक्म, “लल्लन से कहना सरोज को जहाँ-जहाँ जाना है, ले जाए। बेचारी अकेली कहाँ-कहाँ जाएगी?” हूँह!

सरोजदी देहात से अकेली पन्द्रह-पन्द्रह स्टेशन रेलयात्रा करके यहाँ सकुशल आ सकती है तो शहर में ही कौन दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं कि सरोजदी के साथ एक सशस्त्र अर्दली जाए ?-पुरुष माने सशस्त्र!...और सरोजदी का रूप भी इतना मारात्मक नहीं!

प्रियव्रत सुबह से ही सरोजदी के सम्बन्ध में सोच रहा है। सरोजदी! बाबूजी के एक मुफसिनल के मुवैक्किल मित्र की बेटी!

एकदम देहातिन नहीं कह सकते सरोजदी को। मैट्रिक पास करके गाँव के स्कूल में पढ़ाती हैं। स्कूल के काम से ही आई हैं। इसके पहले भी बहुत बार आई हैं। मिडिल की परीक्षा देने आई थीं। सरोजदी के बाबूजी भी साथ आए थे।

मैट्रिक का इम्तहान देने आईं, अकेली। अकेली नहीं, दूर के एक चाचा पहुँचा गए थे। सरोजदी के पिता की मृत्यु उसी साल हुई थी। लेकिन सरोजदी के पिता ही क्‍यों, सरोजदी भी जब आईं, कभी खाली हाथ नहीं आईं। घी, शहद, महीन चावल, दही-पपीते-सब विशुद्ध! जब से देख रहा है प्रियव्रत, सरोजदी ऐसी ही हैं। सदा से... ।

प्रियव्रत सोच रहा है, कैसा अन्याय है? एक ओर सरोजदी हैं जो इतनी चीजें, इतना प्यार से लेकर आती हैं और दूसरे ही दिन भाईजी और भाभीजी का मुँह लटक जाता है। तीसरे दिन माँ भी उखड़ी हुई बातें करने लगती हैं उनसे।

भाभी चुपके-चुपके मुँह बनाकर कहेंगी, “इतने ज़ोर से खुर्राटा लेती है सरोज । घंटों बाथरूम बन्द रखती है, सरोज...आज “उनके” प्राइवेट रूम में चली गई सरोज । वे अपने दोस्तों के साथ ड्रिंक कर रहे थे और यह भैयाजी-भैयाजी कहकर क्या-क्या रोने-गाने लगी।” भाभी बहुत स्वार्थी हैं। लेकिन, दूसरी शोर भाभी की आध दर्जन बहनें या भाईजी के साले की सहेलियाँ खाली हाथ आती हैं। बिना मक्खन के रोटी नहीं खाती हैं और भाईजी की गाड़ी का इंजन हमेशा गर्म रहता है उन दिनों-बोकरो, कोनार, तिलैया, रामगढ़, राँची...।

सरोजदी ने कभी नहीं कहा कि बिना कार के मैं एक कदम नहीं चल सकती। क्या सरोजदी के मन में भाईजी की गाड़ी पर चढ़ने की वासना नहीं हुई होगी? कौन जाने... !

सरोजदी साँवली नहीं, काली हैं। कद मँझोला है। मोटी नहीं, देह दुहरी है। सम्भवतः किसी ग्लैंड की गड़बड़ी के कारण उनकी बोली में तनिक गूँगेपन का सुर मिला हुआ है। चलते समय हर डग पर अस्वाभाविक ढंग से जोर देती हैं और प्रसन्‍न होकर हँसते समय मुँह से लार टपक पड़ती है, यदा-कदा। होंठ सदा भीगे रहते हैं।

प्रियव्रत को याद है, मैट्रिक की परीक्षा देने आई थीं सरोजदी । बाबूजी का मुहर्रिर इब्राहिम रोज टमटम पर साथ जाता था। फिर, चार बजे जाकर ले आता था।

उस बार भाभी ने झूठ-मूठ सरोजदी पर आरोप लगाया था। बून्दी के गले की सोने की 'सिकरी'” भाभी के बक्स से ही निकली थी!

सरोजदी बाथरूम से बाहर आ गईं, नहा-धोकर ।...'“'लल्लन बाबू!” प्रियव्रत ने अब अपने से सीधा सवाल किया, “क्यों लल्लन बाबू, भाईजी की किसी साली या भाईजी के साले की किसी साली के साथ एक रिक्शे पर, शहर घूमने से तुमको कभी कोई ऐतराज होता ?”

अन्दर आँगन में बून्दी भाभी से कुछ कह रही है, “क्या भगेलू जाएगा सरोजदी के साथ?”

भाभी कहती हैं, “तो कया हुआ? रिक्शा के पायदान पर बैठेगा भगेलू।”

बाबूजी बाहर से आ गए।

साथ में हैं एक दूसरे वृद्ध-देवधर के अंजनी बाबू वकील, बाबूजी अब नियमानुसार अपने पुत्रों की निंदा से शुरू करेंगे, और हर बेटे की तारीफ़ तनिक तफशील से अन्त में करेंगे, “हाँ, बड़ा देवव्रत-मन्‍नन-इंटरनेशनल टुबाकों में है। बोला, सरकारी नौकरी नहीं करेंगे, चाहे सरकार अपनी हो या बिरानी,नहीं करोगे तो मत करो।

साली, सरकारी नौकरी में धरा ही क्या है, अब! मँझला लल्लन-प्रियव्रत-एम.ए. करके तीन साल से बैठा है। वह भी सरकारी नौकरी नहीं करेगा। हाँ, हाँ आपने ठीक पहचाना है, वही प्रियव्रत! कविता ही लिखता है और सबसे छोटा दहन-सत्यव्रत भागकर नेवी में चला गया। चिट्ठी आई तो मैंने भी कहा, 'डूबने दो कम्बख्त को। नेवी में जाए या एयरफोर्स में लिख दिया, 'मेरा लड़का सबकी राजी-खुशी से नेवी में भर्ती हो रहा है और क्या करें? इस साल ट्रेनिंग खत्म करके अफसर हो जाएगा ।...भगेलू! कहाँ जा रहा है भगेलू? लल्लन कहाँ गया ?

सरोज के साथ भगेलू क्यों जाएगा? मैं जाऊँगा ।”

प्रियव्रत धड़फड़ाकर उठा-अब एक सप्ताह घर की शान्ति गई। दिन-रात बड़बड़ाते रहेंगे।

ब्लडप्रेशर बढ़ेगा। डॉक्टर विनय आएँगे, फिर दोनों मिलकर घर-भर के लोगों की दुर्गत कर डालेंगे। अन्दर जाकर बोला, “किसने कहा कि मैं नहीं जा रहा

कमरे में कपड़े बदलती हुई सरोज ने कहा, “लल्लन को छुट्टी नहीं है तो भगेलू ही चले न!”

माँ बोली, “नहीं सरोज, लल्लन तैयार है।” $

सरोज कमरे से बाहर आई। चप्पलों को बेतरतीबी से खिसकाती हुई। भीगे होंठों पर मूकजनोचित मुस्कुराहट छाई हुई...गिलगिलाती मुस्कुराहट!

रिक्शावाले की दृष्टि और मन्द मुस्कुराहट को परखता है प्रियत्रत। वह रिक्शे में सिकुड़कर, एक किनारे जा बैठा । सरोज पास आकर बैठी। सरोजदी कोई सस्ता किन्तु चालू पाउडर लगाती है, शायद। केश में कोई आयुर्वेदिक तेल डालती है क्या? साड़ी

तो हैंडलूम की है। एक बार प्रियव्रत की भाभी कह रही थी-सरोज का ब्लाउज सर्दी के मौसम में भी बगल से भीग जाता है। अभी तो भीगा हुआ नहीं है? नहीं, भाभी अधिक नहीं, तनिक निष्ठुर भी है।

रिक्शाचालक ने पहला प्रश्न किया, “मेमसाहब राँची से आई हैं क्या?” प्रियव्रत उसे डॉटना चाहता शा, लेकिन इसके पहले ही सरोज बोल पड़ी, “नहीं भैया! मैं हँसुआ से आई हूँ। शिक्षक-संघ का दफ्तर देखा है?”

“कीचक संघ तो... ॥”

“मुझे मालूम है।” प्रियव्रत ने कहा, “चलो, मदनबाड़ी रोड ।”

प्रियव्रत का घर शहर से तीन मील दूर है। तीन पहाड़ी के पास, इस गाँव में प्रियव्रत के पिता ने जब घर बनवाया था तो लोग हँसते थे-वकील साहब जंगल में बस रहे हैं। आज, इस गाँव में बसने के लिए शहर के लोग, जमीन की डाक बोलकर भी जमीन नहीं पा रहे हैं।

सरोज अपनी देह को भरसक सकुंचित करती हुई बोली, “लल्लनजी! ठीक से बैठो, आराम से... ”

गाड़ी कुछ दूर आगे बढ़ी तो सरोज ने यहाँ की सड़कों पर अपना मन्तव्य प्रकट किया, “हजारीबाग की सड़कों से मुझे बड़ी चिढ़ होती है। दस कदम पर चढ़ाई और दस कदम पर उतराई। हजारीबाग की सब चीजें मुझे अच्छी लगती हैं, इन सड़कों को छोड़कर ।”

प्रियव्रत ने बात को मोड़ने के लिए पूछा, “कहाँ-कहाँ जाना है आपको?”

सरोज ने कहा, “पहले शिक्षक-संघ के दफ्तर में, फिर शिवयोगी बाबू के यहाँ होते हुए स्कूल इन्स्पेक्टर साहब के डेरे पर ।”

प्रियव्रत ने पूछा, “यह शिवयोगी बाबू कौन हैं?”

प्रियव्रत ने लक्ष्य किया, सरोजदी हर बार बोलने के पहले एक अस्फुट हँसी हँसती हैं।

“हँहैं! शिवयोगी बाबू हैं हमारे हँसुआ रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर के दामाद । हर बार स्टेशन मास्टर साहब मेरे हाथ से कुछ-न-कुछ भेजते हैं। इस बार नाती के लिए “जन्तर” बनवाकर भेजा है।”

सामने चढ़ाई थी। यहाँ सभी रिक्शावाले रिक्शे से उतरकर गाड़ी खींचते हैं। लेकिन इस रिक्शावाले ने दोनों को उतर जाने के लिए कहा, “बिना उतरे ई-दु-दु मन, ढाई-ढाई मन का लहास?”

प्रियव्रत को अपना गुस्सा उतारने का मौका मिला पैसा चुकाते हुए बोला, * तुम जा सकते हो। लेकिन फिर कभी कोर्रागॉव की ओर कोई सवारी लेकर मत आना। समझे ?”

दोनों उतर पड़े। अभी तुरत दूसरा रिक्शा मिल जाएगा।

मंजरे हुए आम और जामुन के युग्म-पेड़ के नीचे वे जा खड़े हुए । यहाँ के लोग कहते हैं-जुड़मा गाद्द! झड़ती हुई मंजरियाँ के कई छींटे, जामुन के कुछ फूल सरोज के सिर पर झरें। कवि प्रियव्रत को पिछले साल रेडियो से सुने हुए एक लोकगीत की याद आई-जिसकी पंक्तियाँ याद नहीं, अर्थ है-“ओ गौरी! तू आज रात फिर किसी कारण-मंजरे हुए आम के तले जाकर खड़ी हुई थी-निश्चय ही। तेरे बालों के लट जटा गए हैं। मंजरी का मधु चू-चूकर तेरे सिर पर गिरा है। औ गोरी! तू आज रात फिर किसी महुए के तले जाकर खड़ी थी-तैरे बालों से महुए के दारू की बास आती है। मेरी आँखें झपक रही हैं-मतिया गई हैं-तेरा जुड़ा कैसे बाँधूँ?””

सरोज बोली, “हैँह, लल्लनजी! मैंने तुमको बेकार कष्ट दिया ।”

रॉँची रोड पर एक बग्धीगाड़ी दिखाई पड़ी। प्रियव्रत ने पूछा, “धोड़ागाड़ी पर चढ़िएगा ।” सरोज के कंठ से सिर्फ “हँह” निकला। प्रियत्रत ने बग्धीवाले को आवाज दी ।

घोर श्यामवर्ण, मैँझोली, दुहरी सरोज सुफेद साड़ी और सुफेद ब्लाउज में सभी का ध्यान आकर्षित करती है। घड़ी की पट्टी भी सुफेद, चप्पल के फीतें भी। घोड़ागाड़ीवाले ने गौर से सरोज को ही देखा। प्रिय्रत को वह पहचानता है।

बग्घी पर आमने-सामने बैठने की जगह थी। किन्तु सरोज जिस तरह रिक्शे पर बैठी थी, उसी तरह प्रियव्रत से सटकर बैठी। इस तरह सटकर बैठने की कोई जरूरत नहीं थी। जगह काफी चौड़ी थी! सरोज बोली, “इस चढ़ाई-उतराई के समय मेरी जान निकल जाती है। लगता है, सब खाया-पिया निकल जाएगा। हँह!”

हर चढ़ाई-उतराई पर सरोज ने तमाशा किया। उतराई के समय प्रियत्रत की एक कलाई जोर से पकड़कर आँख मँँदे हँसती-खिलखिलाती रही। प्रियव्रत को लाज आई।

शिक्षक-संघ के दफ्तर में जिस अधिकारी से मिलना था, सरोज की उससे फाटक पर ही भेंट हो गई। काम भी हो गया-अगली मीटिंग के बारे में पूछना था। अधिकारी महोदय बार-बार प्रियव्रत की ओर देखते ही रहे। फिर बोले, “आप प्रियव्रतजी हैं न?” जी हाँ सुनकर भी अधिकारी महोदय का कौतूहल कम नहीं हुआ, शायद

“चलो सरोजदी ! शिक्षक-संघवाला काम तो शिक्षक-संघ के बाहर ही हो गया ।” गाड़ी पर जान-बूझकर दूसरी ओर बैठते हुए प्रियव्रत बोला और सरोज पहले तो सामनेवाली गद्दी पर बैठी। फिर उठकर प्रियत्रत के पास जाकर, उससे सटकर बैठी । सरोज ने चलती हुई गाड़ी में प्रियव्रत से दबी हुई आवाज में कहा, “लल्लनजी, तुम साथ थे, इसलिए जल्दी छुटूटी मिल गई। नहीं तो, यह रामनिहोरा प्रसाद मुझे बेकार बैठाकर तरह-तरह की बातें करता। शादी-ब्याह की बात पूछनेवाला यह कौन

होता है, भला? बोलो तो? और बातें करते समय बातें करो-यह रह-रहकर पीठ पर थप्पड़ मारने की और बाल पकड़कर खींचने की जैसी भद्दी आदत? अपने काकाजी भी तो बाबूजी के दोस्त थे। कभी ऐसा नहीं करंते। बोलो तो लल्लनजी, क्या यह ठीक है?”

प्रियव्रत को हँसी आई। वह पूछना चाहता था, क्‍यों नहीं ठीक है सरोजदी? लेकिन वह कुछ बोला नहीं। हँसता रहा । सरोज कुछ क्षणं बाहर की ओर देखती रही। फिर, दबी आवाज में ही बोली, “अच्छु लललनजी, तुम नौकरी करोगे तो तुम भी गाड़ी रखोगे न?”

“यदि गाड़ी रखने लायक नौकरी मिली... |”

“हँँह, तुमको भला गाड़ी रखने लायकुं/नौकरी नहीं मिलेगी ?”

प्रियव्रत चौंका,...तो सरोजदी का मुखड़ा भी कभी-कभी सुन्दर दीखता है? सरोजदी जब भाव-शून्य दृष्टि से उसको देखती है, सुन्दर लगती है। उसने पूछा, “क्यों सरोजदी?” ।

सरोजदी इस बार मुस्कुराई नहीं। और भी दबीं आवाज़ में बोली, “तुम सुन्दर हो। जिसमें रूप और गुण दोनों हों, उसी को ऊँची नौंकरी मिलती है।”

प्रियव्रत का चेहरा लाल हो गया। उसने कहा, “यह किसने कहा है तुमसे?”

“रामभाई ने। रामभाई कंहते थे, व्यक्तित्व के बिना विद्धत्ता कुछ नहीं। यदि व्यक्तित्व होता तो रामभाई भी... ।”

हजारीबाग चौक पर हमेशा. की तरह भीड़ थी। गाड़ीवान ने पूछा, “भैयाजी! मायाजी बोल रही थीं, चौक पर कुछ खरीदना है।” सरोज भूल गई थी कि उसे कुछ खरीदना है। स्कूल की लड़कियों ने कापी-किताब-पेन्सिल लाने के लिए पैसे दिए हैं। सरोज झोले से डायरी निकालकर पढ़ने लगी-यशोदा-तीन कापी रूल की हुई, दो बगैर रूल। जगमती-भारतवर्ष का भूगोल, साहित्यदर्पण, छोटी नीलू-एक दर्जन जलछवि!...

सरोज हमेशा जिस दुकान से सामान खरीदती है उसी दुकान में जाएगी। पास ही प्रियव्रत के मित्र, हिमांशु की दुकान थी। उसने कहा भी, “सरोजदी, इस दुकान में... ”” लेकिन सरोज ने उधर नजर उठाकर देखा भी नहीं।

दुकानदार-छोकरा राखालचन्द्र उर्फ याबला ने सरोज को देखकर एक विचित्र मुखमुद्रा बनाई और अभद्वतापूर्वक आँख नचाकर पूछा, “कहिए, कहिए। बहोत दिन बाद... ।” प्रियव्रत पर दृष्टि पड़ते ही याबलाराम अवाक्‌ हो गया। तुरन्त भद्र हो गया उसका चेहरा। सरोज डायरी खोलकर धीमी आवाज में पढ़ती गई और प्रियब्रत जोर-जोर से दुहराता गया।

दुकान से बाहर निकलकर सरोज बोली, “इस बार तुम साथ थे, इसलिए उसने मुझे मीठी गोलियाँ नहीं दीं। नहीं तो जबर्दस्ती दर्जनों मीठी गोलियाँ झोले में डाल देता और जिद करके एक गोली दुकान में ही बैठकर चूसने को कहता। चाहे एक चीज लो या दस, एक घंटा अटकावेगा यह लड़का।. -बेईमान नहीं, लेकिन!”

सामने, “विवेकानन्द मिष्ठान भंडार' में बैठकर चाय पीते हुए लोगों ने आँखें फाड़-फाड़कर सरोज और प्रियव्रत की ओर देखना शुरू किया। सरोज बोली, “विवेकानन्द का कालोजाम नामी है। है न? हँहै!” सरोज के पैर लड़खड़ाए। प्रियव्रत ने पूछा, “कालाजाम खाओगी सरोजदी ?”

“हँह! तुम नहीं खाओगे?”

विवेकानन्द मिष्ठान भंडार में कई मिनटों तक “कालोजाम, कालोजाम' का गुंजन होता रहा! डी.वी.सी. के बंगाली कर्मचारियों के दल में कानाफूसी शुरू हुई, “कालाजामेर संगे चमचम?” एक ने ढाका की बोली में कहा, “ 'एबार द्याशे (अर्थात्‌ देशे) एड्डा काईनी ब्यार हुदद्वे-नामडा काकहोंसिनी!...कामहंसिनी! कालोजाम! ९”

प्रियव्रत ने सब समझा। अच्छा हुआ, सरोजदी ने कुछ नहीं समझा। स्वाद ले-लेकर कालाजाम का रस जब प्लेट में जीभ लगाकर चाटने लगी तो प्रियव्रत ने पूछा, “और मँगाऊँ कालाजाम ?”

“हँह! पेट फट जाएगा जो ।”

सरोज के इस जवाब से प्रियव्रत को फिर लाज आई।

किन्तु, इस बार गाड़ी में वह प्रियव्रत के सामने बैठी, “चलो बटम बाजार ।”

प्रियव्रत ने देखा, सरोजदी डकार लेते समय और भी असुन्दर हो जाती है, उसके गीले होंठ और भी गिलगिले हो जाते हैं। डकार लेने के बाद सरोज ने बताया, “रामभाई को भी कालाजाम पसन्द है बहुत ।”

गाड़ी बटम बाजार की ओर मुड़ी ।...फिर उतराई? सरोज उठ खड़ी हुई और टलमलाकर प्रियब्रत पर गिर पड़ी। “तुम भी गाड़ी से बाहर गिर पड़ते छिटककर... हेह।।!

हँह हठात्‌ सरोज ने फिर मद्धिम आवाज रे पूछा, “अच्छा लल्लनजी! मैं बहुत काली हूँ ।” याने मुझसे भी ज्यादा काली होती हैं या नहीं...।

प्रियव्रत ने समझा, पूरे प्रश्न भी नहीं पूछ सकी सरोजदी। क्योंकि प्रियब्रत का चेहरा अचरज और लाज से अजीब-सा हो गया था। सरोज ने फिर पूछा, “मैं बहुत

हूँ? हँह!” नर पा को तुरन्त जवाब सूझा, “मोटी नहीं।...देहात में स्वास्थ्य जरा अच्छा है।"”

अर बोली, “रामभाई तो कहते हैं कि तुम्हारा तन काला है, पर मन काला नहीं-सादा है।”

प्रियव्र॒त ने इस बार सरोज के रामभाई पर विशेष ध्यान दिया...रामभाई ने कहा है, व्यक्तित्व के बिना...रामभाई को कालाजाम प्रिय है...रामभाई कहते हैं कि तुम्हारा तन...। प्रियव्रत ने रामभाई के बारे में कुछ नहीं पूछा, किन्तु...

शिवयोगी बाबू के घर पहली बार नहीं आई है सरोज। लेकिन कभी तो इतनी खातिरदारी नहीं हुई ?...हैंह ! सारे परिवार के लोगों ने मिलकर दोपहर के भोजन और विश्राम के लिए हार्दिक आग्रह किया तो सरोज प्रियत्रत का मुँह देखकर कुछ देर तक सिर्फ हँह-हैंह करती, हँसती रही। प्रियव्रत ने बग्घीवाले को विदा किया। साढ़े तीन बजे चाय पिलाकर, शिवयोगी बाबू के परिवारवालों ने छुट्टी दी। स्कूल इन्स्पेक्टर से प्रियव्रत के बड़े भाई साहब की मित्रता है। इसलिए तय हुआ कि

वहाँ का काम भाईजी करवा देंगे। सरोज मान गई। प्रियव्रत ने पूछा, “और कोई काम बाकी तो नहीं रहा?” सरोज उदास हो गई अचानक! बोली, “नहीं लल्लनजी ।” “तो अब घर चलें?” “चलो |”

पुलिस-ट्रेनिंग-कॉलेज के पास एक सड़क, उत्तर की ओर केनाड़ी, पहाड़ी नेशनल पार्क जाने के लिए निकली है। सरोज ने साइन-बोर्ड पढ़कर दुहराया, “नेशनल पार्क जाने का रास्ता।...नेशनल! हँह!! नेशनल पार्क में क्या है लललनजी?” प्रियत्रत के मुँह से नेशनल पार्क का वर्णन सुनकर सरोज उत्तेजित हो गई। फिर तुरत उदास होकर बोली, “नहीं, लल्लनजी! अब मैं ज्यादा परेशान नहीं करूँगी

तुमको । तुम्हारा दिन का सोना खराब किया मैंने ।” प्रियव्रत ने रिक्शावाले से नेशनल पार्क चलने को कहा। सरोज बोली, “तुम्हारी इच्छा नहीं तो घर लौट चलो लल्लनजी!!

“मैं रोज जाता हूँ, इसी समय ।...वहाँ मेरी अपनी जगह है, सरोजदी ।” प्रियव्रत हँसकर बोला।

मोड़ पर सरोज ने फिर डकार लिया। बहुत दूर तक उतराई है, कोना-कोठी के पास। रिक्शेवाले यहाँ पैडिल चलाना बन्द कर देते हैं। बहुत देर तक "फ्री व्हील' की करकराहट होती रहती है-“क्रिरि-रि- रि-रि-रि-रि... /” सरोज की सारी देह में मानो गुदगुदी लगा रही है यह किरकिरी... रि-रि-रि-रि। हँह! हँह!

केनाड़ी पहाड़ी करीब आती गई और सरोज अपने-आप हँसती रही। एक नील ., गाय भागी जा रही है। सरोज अचरज से मुँह बाकर देखने लगी। राल टपकी इस बार ।...खरगोश फर्लागता हुआ झाड़ियों में गया-हँह! पहाड़ी नदी की पतली धारा पर

अस्तगामी सूर्य की रोशनी झिलमिलाई-हँह! पहाड़ी की चोटी के पास बादल का एक ढुकड़ा-हंह ! फूलों से लदा हुआ बन-तगर का पेड़ हँह! हँह

रिक्शा से उतरकर सरोज वोला, 'रामभाई भी कहते थे कि नेशनल पार्क एक चीज बनी है-देखने की”

वन में मोर बोला। सरोज डरी, “हाँ लल्लनजी, सुना है नेशनल पार्क में बाघ-सिंह भी हैं? हँह!”

प्रियव्रत हँसा, “लेकिन, सरोजदी! एक अजब वात है कि नेशनल पार्क में आकर कोई भी जंगली जानवर हिंस्र नहीं रहता और आदमी जानवर बन जाते हैं यहाँ आकर-इनक बहत प्रमाण मिल्रे हैं ?

“अच्छा!”

“अच्छा !”

पिकनिक करके लौटनेवाली मंडली का एक अशिष्ट लडका चिल्लाया, “भाग रे! बाइसन, वाइसूय...अरणा बैंस!”

मुखर्जी परिवार की सुन्दरियाँ, क॒मारियाँ “जमायबाव्‌ टाइप” के एक व्यक्ति के साथ आई ह आज! गाड़ी पर कलकत्ते का नम्बर है। सुन्दरियाँ बात-बात पर खिलाखला रही हैं। जमायबाबू निश्चय ही कोई गुदगुदानेवाली कहानी सुना रहे हैं...अमलतास की छाया में। एक सुन्दरी ने न जाने क्‍या देखा कि चीख पड़ी, “उ--ई-मूत!” बाकी लड़कियाँ खिलखिला पड़ीं। प्रियव्रत समझाता है चाखनव्राली का वह जानता है-अंजू-अंजना, सरोजदी को देखकर ही अंजना चीख घटी हे।

प्रियव्रत बोला, “पहाड़ की चोटी पर “टावर” है-वहाँ से सारा नेशनल पार्क दिखाई पड़ता हैं। चलोगी ऊपर ?”

नहीं लललनजी, मुझे डर लगता है।” “तो चलो, तुमको अपनी जगह दिखाऊँ।”

केनाड़ी पहाड़ी की तलहटी में बिखरा वनखंड केनाल और बड़ा-बड़ी चट॒टानों के इर्द-गिर्द पुट्स फूल की झाड़ियाँ। केनाल के किनारे कदम्ब के पेड़ पर-ठीक एक घंटे बाद छोटे-छोटे पंछियों का घनघोर कलरव शुरू होगा-घंटों होता रहगा! इन्हीं चटटानों

के उस पार प्रियव्रत रोज बैठता है। “यही है मेरी जगह। मैं इसी पत्थर पर बैठता हूँ, रोज #” *हूँह! बैठे-बैठे क्या करते हो?”

इस प्रश्न का कोई उत्तर देना आवश्यक नहीं समझा प्रियव्रत ने। “बैठो सरोजदी ! मैं तमको एक मजे का खेल दिखलाऊँँ

प्रियत्रत पुटुस की एक फूली डाली तोड़ लाया। फूल और पत्तों को नोंचकर एक छड़ी बनाई उसने, “इधर देखो सरोजदी!'

सरोज ने देखा-सामने की धरती पर लजौनी लता पसरी हुई है कुछ दूर तक। लगता है, एक गलीचा...हैंह...लज्यावती, लाजवन्ती, लजौनी, छुईमुई, “अरे-रे लल्लनजी ! यह क्या कर रहे हो? हँह!'!

प्रियव्रत रोज इसी तरह इन सजीव लताओं को छेड़ता है आकर । पुटुस की डाल की छड़ी से पहले एक क्रास बनाता है। छड़ी छुआता जाता है, पत्तियाँ मुँदती जाती हैं। अन्त में, अन्धाधुन्थ छड़ी चलाकर सबको सुला देता है।

सरोज प्रियव्रत के इस खिलवाड़ को अचरज से देखती रही । जब प्रिय्रत ने सभी पत्तियों को सुला दिया तो सरोज ने एक लम्बी साँस ली। बोली, ' “लल्लनजी, तुम ठीक कहते हो। यहाँ आकर आदमी जानवर हो जाता है, कभी-कभी हँह !”

प्रियव्रत हैसा। वह अपनी जगह पर जा बैठा। उत्तर आकाश का बादल क्रमशः काला होकर झुकता जा रहा है। हवा गुम है! भाभी ठीक ही कहती थीं। सरोज का ब्लाउज भीग गया है-बाँह के नीचे अर्द्धवृत्ताकार।

सरोज प्रियव्रत के पास आकर बैठ गई, “एक बात बताऊँ लल्लनजी ?”

बिजली चमकी। सरोज के गोल होंठों पर भी बिजली चमकी, मानो। प्रियव्रत अवाक्‌ होकर देखता रहा। सरोज को इस तरह लाज से गड़ते कभी नहीं देखा प्रियव्रत ने।

सरोज कुछ बोल रही थी, लेकिन राल टपक पड़ी तो चुप हो गई। फिर पुटुस के नन्‍हें फूलों को नाखून से खोंटकर दाँत से चबाने लगी।

क्षण-भर दोनों मौन रहे।

“किस सोच में पड़ गईं, सरोजदी?” प्रियव्रत ने सरोज की देह छूकर मानो जगाया, “सरोजदी, अब चलो लौटें। पानी बरसेगा।”

सरोज हँसी, “पानी बरसे-हैह-हम रुई नहीं हैं! लल्लनजी यह क्‍या कर रहे हो? लल्लन...पगला...बचपन की आदत...हँह...ठीक इसी तरह गोदी में सिर रखकर...इसी तरह मेरी छाती से सिर रगड़ते थे तुम...मैंने रामभाई से भी कहा है...हँह...हँह...तुम अभी भी पाँच साल के शिशु हो...लल्लनजी...तुम जानवर हो...जानवर...हैँह...हँह... कवि...एम.ए...सुन्दर-सुपुरुष तुम...इतने प्यारे...इतने प्यारे तुम...तुमको हँह...मैं जानवर नहीं बनने दूँगी...मैं ही जानवर हो गई हूँ...लल्लनजी मुझे माफ करो...इस कुरूपा बहन पर दया करो...! मुझे लजौनी लता की तरह मत रौंदो...!!”

प्रियव्रत ने ध्यानमग्ना नारीमूर्ति को फिर छूकर जगाया, “सरोजदी, तुम किस सोच में पड़ गई यहाँ आकर ?...चलो, घर चलें ।”

सरोज मानो नींद से जगी, “हैँह !...नहीं लललनजी, यहाँ आकर आदमी कभी-कभी देवता भी हो जाता है! देवता भी... !”

प्रियव्रत को लगा, सरोजदी अचानक सर्वांग-सुन्दरी हो गई हैं। वह फिर अपनी जगह पर आ बैठा।

हवा का झोंका आया। मेघ बरसने लगा। दोनों दो चट्टानों पर बैठे, भीगते रहे। प्रियव्रत फिर उठा। सरोज के पास गया। हाथ पकड़कर उठाया, “चलो!”

दोनों भीगते हुए जंगल पार कर सड़क पर आए। सरोज बोली, “अब मेरा हाथ छोड़ दो, लल्लनजी !...अब मैं कभी हजारीबाग नहीं आऊँगी!...रामभाई मुझे नहीं आने देंगे, अब ।”

सरोज सड़क पर लड़खड़ाई प्रियव्रत ने फिर हाथ पकड़ लिया। सरोज कुछ नहीं बोली । फिर दो बार हँह-हैंह करके चुप हो गई।