काक चरित

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

किसनलाल ने सुबह उठकर अपनी दोनों तलहथियों को देखा।

फिर इष्ट-नाम जाप किया ।...भजन का प्रोग्राम हो गया ?

आठ बज गए ? सावित्री बाजार चली हे वह उठकर बैठ गया और बाएँ हाथ से दाहिने कन्धे को छूकर देखा...नहीं, दर्द नहीं।

फिर उसने बाँह को टीपकर देखा-नहीं, दर्द नहीं। दो-तीन बार नथुने से लम्बी साँस लेकर परीक्षा की-दोनों 'नकबासे' एकदम 'क्लियर”! आज शाम को 'अधकपाली' दर्द की भी कोई आशंका नहीं, बशर्ते...

नहीं, उसकी शंका निर्मूल थी। वह प्रसन्‍न होकर कोई गीत गुनगुनाने लगा; सामने मैदान की ओर देखने लगा।

प्रातः भ्रमण करनेवाले घर लौट रहे हैं।...लेकिन उस मोटे आदमी का मोटापा इस जीवन में अब कम नहीं होगा। सुबह को गोल मार्केट के गोल पार्क के चारों ओर दुलकी चाल में दौड़ता है।

शाम के आँधेरे में मिठाई की दुकान में आधा दर्जन रसगुल्ले और क्रीम चॉप खा आता है।

उसके खाने के ढंग को देखकर कोई भी कह सकता है कि उसे मिठाई की मनाही है और वह चुराकर 'कुपथ्य” भोजन कर रहा है; एक रसगुल्ला मुँह में डालता है और चारों ओर देखता है।

किसनलाल को हँसी आई। उस दिन भले आदमी के साथ उसका बेटा भी था।

शायद उसके साथ भेजा गया था। भले आदमी ने उसको फुसलाकर एक ओर टरका दिया था।

लेकिन ऐन मौके पर पकड़े गए बेचारे। बेटे ने बाप को धमकी दी-“बाबा! की होच्छे ?

मा के बोले दिबो!”...भले आदमी ने चार “पनतुआ' घूस देकर बेटे का मुँह बन्द किया था।

पता नहीं, क्या नाम है उनका ?

किसनलाल को उनसे सहानुभूति है।

एक दिन परिचय-पाँत करने के लिए किसनलाल उनको रसगुल्ला खिलाएगा।

सामनेवाले बिजली के खम्भे पर एक कौआ न जाने कब से बैठा काँय-काँय कंर रहा था।

एक बार उसने बहुत कर्कश स्वर में कॉय-य-य-य किया।

तब किसनलाल का ध्यान उधर गया ।...अरे-रे, यह कौआ साला क्‍या कर रहा है ?

मर्करी बार में लगे पतले तार को चोंच से खींच रहा है...रात को अँधेरा छाया रहेगा। कई दिन तक अँधेरा रहेगा।

शायद महीनों फिर, किसी दिन किसी को खयाल होगा तो तार जुड़ेगा

और रोशनी होगी घर के सामने रात में महीनों अँधेरा छाया रहेगा ?...साला कौआ भी तोड़-फोड़ करता है? 'सैबेटाज' करता है ?

किसनलाल ने पहले मुँह से 'हास-हुस्स' करके उसको उड़ाने की चेष्टा की। लेकिन, कौआ उसी तरह कॉय-कॉय करता रहा और रह-रहकर तार को चोंच से खींचता रहा ।...इस बार तोड़ ही देगा।

रसोईधर किसनलाल ने इधर-उधर देखा।

आस-पास कोई ढेला-कंकड़ नहीं ।

वह रसोईघर में घुसा । कोयले का एक टुकड़ा हाथ में लिया।

फिर रख दिया ।

कोयला दिन-दिन महँगा होता जा रहा है।

उसने तरकारी की डाली से एक आलू निकाला।

फिर रख दिया ।...नहीं, आलू क्‍यों बरबाद करे ?

इस छोटे और सूखे प्याज से काम चल जाएगा।

'अँकुराया' हुआ प्याज है। मिट्टी पाकर जड़ जमा लेगा। बेकार नहीं जाएगा।

सूखे और अँकुराए हुए प्याज को कौए की ओर फेंका उसने। अचानक हाथ का दर्द जोर से चिनचिना उठा। कौआ नहीं उड़ा लेकिन।

दर्द के मारे उसके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल पड़ी। और तभी सावित्री आ गई।

“क्या है ? क्या हुआ ?”

“दर्द ?

सावित्री ने मुँह बनाकर मछली की थैली एक ओर रख दी। सावित्री का मुँह बनाना वह समझता है। वह कब किस बात पर कैसा मुँह करती है, किसनलाल को छोड़कर और कौन समझेगा ? अभी सावित्री के मुँह बनाने का अर्थ हुआ-यह दर्द तुम्हारी मौत के साथ जाएगा ।...इतनी बड़ी बात ?

जब से किसनलाल के हाथ में दर्द हुआ है, दुनिया ही उससे निराश हो गई है; सभी उसे कामचोर, बहानेबाज और झूठा समझने लगे हैं। आठ महीने के बाद उसकी पत्नी भी उसके दर्द को भूल गई है। कहती है, तुम्हारा वहम है।

...वहम ?

कोई शौक से महानारायण तेल क्‍यों मालिश करेगा भला-जिसकी गन्ध से दुनिया के सभी जीव-जन्तुओं को उबकाई आती हो ?

“यह क्या ? बोआली मछली ले आई है। बोआली खाने से पुराना दर्द भी उभर जाता है, यह क्या उसकी पत्नी नहीं जानती ? अथवा, जान-बूझकर ही ले आई है ? उसने झुँझलाकर पूछा, “यह बोआली मछली कौन खाएगा ?”

सावित्री चूल्हा सुलगा रही थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। किसनलाल ने इस बार तीखे स्वर में कहा, “मैं अभी ही कह देता हूँ। खाने के समय फिर मुझे मत कहना। मैं बोआली मछली नहीं खाऊँगा!”

“बोआली मछली में क्‍या है ?”

“यह बादी होता है सो तुम नहीं जानतीं ?”

सावित्री ने फिर मुँह बनाया। अर्थात्‌, तुम्हारे लिए दुनिया की हर चीज बादी है।

किसनलाल का मन दुख और ग्लानि से भर गया ।...एक उस मोटे आदमी की बीवी है जो रोज उसको बिछावन से उठाकर गोल पार्क के चारों ओर दुलकी चाल में दौड़ने के लिए भेजती है। पति बाहर निकलकर कुछ 'अपथ-कुपथ' न खा ले, इसलिए बेटे को साथ में लगा देती है। और एक उसकी स्त्री है जिसका नाम सावित्री है, पर अपने पति के साथ इस' तरह दुर्व्यवहार कर रही है !

न, आज का दिन बुरी तरह कटेगा। दर्द बढ़ रहा है; बढ़ता जा रहा है। दर्द अब उसके कन्धे तक आ गया। उसकी कनपटी गरम हो रही है। दाहिना नथुना बन्द हो गया। दोपहर को ही “अधकपाली' शुरू हो जाएगी आज!

कौआ साला फिर लौटकर आ गया। शायद वह किसनलाल को चिढ़ाने आया है कि वह अपने मन से उड़कर गया था और अपने ही मन से फिर लौटकर आया है; उसको कोई नहीं उड़ा सकता।...शायद क्‍यों, यह साला सचमुच उसको चिढ़ाने आया है।

किसनलाल की ओर मुँह करके चोंच नचाकर “कॉँय-कॉय' करता है। सिर्फ कॉय-काँय नहीं, काँ-य-य-य !

क्या यह कौआ ही सारे अशुभ और असगुन का वाहक है ?...जिस दिन वह फिसलकर गिरा था उस दिन भी क्‍या सुबह को यह इसी तरह काँय-काँय कर गया था ?...आठ महीने पहले की बात याद नहीं।

लेकिन जरूर इसने अशुभ सुर में काँय-काँय किया होगा।

किसनलाल के कानों के आस-पास कौओं की तरह-तरह की बोलियाँ गूँजने लगीं ।...कःका-कःका-का-ऑँ-ऑआऑँ-कॉ-याँ-याँ-कुर्रर-का-केंका-केंका !

अभी गुलेल होता या बन्दूक ? नहीं, इस साले की जान लिए बगैर किसनलाल के जीवन में कभी सुख-चैन नहीं लौटेगा!...किसी दोस्त के पास हवाई बन्दूक भी नहीं ?

चौधरी के पास पिस्तौल है। एक दिन वह चौधरी को चाय पर बुला लाएगा। लेकिन क्‍या पिस्तौल से कौए को मारा जा सकता है ?

किसनलाल रसोईघर में घुसा। सावित्री ने पूछा, “क्या चाहिए ?”

उसने कोई जवाब नहीं दिया और कोयले का एक मँझोला-सा टुकड़ा उठा लिया।

“क्या करोगे ?”

किसनलाल ने कोई जवाब नहीं दिया। सावित्री उसके पीछे-पीछे बरामदे में आई-“क्या होगा इस कोयले का ?”

किसनलाल ने हाथ उठाया ...दर्द!...कौआ तार काटने में मशगूल है। उसने कहा, “देखती नहीं, कौआ क्या कर रहा है! महीने-भर तक अँधेरा छाया रहेगा।”

सावित्री ने देखा। उसे भी अचरज हुआ। सचमुच, कौआ तार को नोच रहा है।...मरेगा नहीं? शॉक नहीं लगता ?

सावित्री ने अपनी तीखी आबाज में 'हस्स' किया और कौआ कौं-आ-आ कहकर उह गंयों।

किसनलाल बौँह धागे खहां रहा। दर्द अब्य सारी वैह में छा गया है।

साविधी बोली, "क्रौआ भी अजब पी होता है।''

किसनलाल ने कहा, ''एक बार सारे गाँव कौ जलाकर स्वाहा कर दिया था एक कौए ने। चोंच में जलता हुआ लकड़ी का अंगारा ै उड़ा और एक आदमी के फूस के छप्पर पर रख दिया।...सारा गाँव राख हो गया जलकर !'

“अक्तह ?

"एक बार मेरे बाबूजी कचहरी जा रहे थे। घर के बाहर पैर निकाला ही था कि 'कौ-य'...बस, मुकदमा सेशन-सुपुर्द हो गया।'

"अच्छा !'

साविन्नी रसोईघर से ही बोली, "बड़ा मनहूस पंछी होता है यह कौआ भी ।”

किसनलाल बोला, "एक बार रायसाहब के अरबी घोड़े की आँख में चोंच मार दिया। हजार रुपए का घोड़ा बेकार हो गया ।...एक बार साहेबगंज में... ।'

“नाश्ता कर लो!"

किसनलाल नाश्ता करने लगा।

“एक बार साहेबगंज में मौलवी साहेब के घर पर बैठकर ऐसी बोली बोल गया कि कागा कि कॉलेरा हो गया । गीत में जो कहा है कि नकबेसर कागा ले भागा, सो झूठ नहीं। जरूर, नकबेसर लेकर भागा होगा साला ।”

किसनलाल को लोकगीत की पंक्तियाँ याद आईं ।...उड़-उड़ कागा छतिया पर बैठे, छतिया का सब रस ले भागा-नकबेसर... ।

“और, मैं जो गिरा था सो जानती हो? उस दिन सुबह को साला अशुभ बोली बोला था।

“तुम्हारा वहम !”

किसनलाल को गुस्सा चढ़ आया ।...दुनिया-भर के लोगों से सावित्री को सहानुभूति है अपने पति के सिवा !

“मैं सच कहता हूँ !

सावित्री चुप रही। किसनलाल को तब बोआली मछली की याद आई। उसने कहा, “लेकिन मैं बोआली मछली हरगिज नहीं खाऊँगा ।...छूना भी मना है।”

किसनलाल का मन फिर दुख और ग्लानि से भर गया। वह मुँह पोंछकर उठा... नहीं, आज का दिन ठीक नहीं। आज मौन-ब्रत पालन करके भी गृहकलह को वह नहीं टाल सकेगा ।...कौआ यों ही नहीं बोलता!

किसनलाल अब समझ गया है, उसके दुर्भाग्य के मूल में कागा और कौआ ही है। उसके सारे दुख-दर्द का कारण...!

“मैं बोआली मछली नहीं खाऊँगा। यह मैं आखिरी बार कह रहा हूँ।” सावित्री ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया। वह अब कलह की भूमिका बाँधने लगी। विवाह के बाद से शुरू करेगी और अन्त इस दर्द पर होगा। इस सिलसिले मेँ वह किसनलाल को ही नहीं, किसनलाल के सभी हितमित्रों को समेटेगी | किसनलाल के चरित्र की व्याख्या करेगी ।...हुआ शुरू!

किसनलाल ने तय किया, वह आज दिन-भर शर्मा के घर पर रहेगा। शाम को

लौटेगा ।...लेकिन वह बोआली मछली हरगिज नहीं खाएगा। जहर खा सकता है वह मछली नहीं।

कौआ फिर लौट आया!

कहाँ जा रहे हो ?”

किसनलाल ने कोई जवाब नहीं दिया तो सावित्री स्वयं बड़बड़ाने लगी-““जाएगा और कहाँ! शर्मा और सिन्हा जैसे निठल्ले दोस्तों को छोड़कर किसके पास इतना फाजिल समय है।...शतरंज! मैं पूछती हूँ कि शतरंज के राजा और वजीर को मारकर ही दुनिया चलेगी... ?”

किसनलाल ने तय किया, आज वह शाम को भी घर नहीं लौटेगा।

सावित्री कह रही थी-“दर्द, दर्द! हाथ का दर्द! सिर का दर्द! जिसके दिल में अपनी बीवी के लिए, अपने घर के लिए दर्द नहीं, उसकी सारी देह में दर्द... !” किसनलाल को मौन-व्रत भंग करना पड़ा। वह चिल्लाया, “इस घर में कौन रह सकता है! जहाँ दिन-रात इसी तरह कॉय-काँय...!”

“मैं काँय-काँय करती हूँ ?

बिजली के खम्भे पर बैठा हुआ कौआ जोर से “कः-कॉ-आऑँ” कहकर उड़ गया। किसनलाल की देह झनझना उठी। लगा, एक शब्दभेदी वाण मारकंर भाग गया कौआ।

नहीं। किसी के रोके नहीं रुक सकता। जो होनेवाला है, आज अच्छी तरह होकर रहेगा !

रसोईघर में बर्तन झनझनाने लगे। सावित्री अब बड़बड़ाती नहीं-रो रही है; नाक-आँख पोंछ रही है।

किसनलाल को अब अपनी जिन्दगी भार लगने लगी। उसको अपनी देह पर, अपने नाम पर, अपनी बाँह पर, अपने सबकुछ पर. क्रोध हो आया । उसने कहा, “मैं कहता हूँ...।”

कॉ-आऑँ-ऑ-आ!!

दरवाजे पर किसी ने “असभ्यतापूर्वक” दस्तक दी ।

काँ-आँ-ऑआँ-आ !!

दरवाजे की कुंडी जोर से खड़खड़ाई।

किसनलाल सिर तोड़ देगा। जो भी हो। इस तरह किसी भले आदमी के घर की कुंडी खटखटाई जाती है! -कॉ-ऑ-औँ-आँ !

“क्या है ?”

“एक्सप्रेस डेलिवरी !''

किसनलाल ने गुस्से में 'शानदार-दस्तखत' कर दिया। पिउन सलाम करके चला गया।

पत्र पढ़कर किसनलाल चीख पड़ा-“सावित्री !'”

“क्या है ?” सावित्री रसोईघर से निकल आई।

बा का चेहरा लाल हो गया है, उत्तेजना के मारे। उसके होंठ थरथरा रहे हैं।

“क्या है?”

“शुभ समाचार !”...खुशखबरी !”

“खुशखबरी ?”

“देखो न! पढ़ लो खुद!”

काँ-आँ-आँ-आँ !!

पत्र पढ़कर सावित्री खिल पड़ी। वह “ठाकुरजी” की मूर्ति के सामने चिट्ठी रखकर शंख फूँकने लगी।

काँ-आँ-ऑ-आँ!!

किसनलाल बोला, “बोआली मछली का चॉप बहुत लाजवाब होता है। सो भी, तुम्हारे हाथ का।”

“नहीं, बोआली मछली से तुम्हारा दर्द बढ़ता है तो मत खाओ।”

“अरे, कहाँ का दर्द...?”

“नहीं बाबा, बादी चीज... ।”

“सावित्री, कौआ हमेशा अशुभ ही नहीं 'भाखता' है।...बोआली मछली हमेशा बादी नहीं होती ।”

किसनलाल ने मछली की थाली से भूनी हुई मछली का एक टुकड़ा उठाया, बरामदे पर गया और जोर से कौए की ओर फेंकते हुए, कहा, “ले जा! ले-ले! आ...!'

कौआ एक बार “कॉँय-य-य” करके उड़ा। फिर धरती पर पड़े हुए मछली के टुकड़े को चोंच में लेकर ताड़ के पेड़ पर जा बैठा।

किसनलाल बोला, “वह गीत याद है तुमको ?...सोने से चोंच मढ़ा दूँ रे कागा! जरा गाओ न!

सावित्री हँस पड़ी। किसनलाल जिदूद करने लगा-“डार्लिंग!...सुनो न!...इधर जरा...सच कहता हूँ...सावित्री !...तुम बहुत सुन्दर लग रही हो ।”

कॉ-ऑँ-आँ!!

किसनलाल बरामदे में आया। बोला, “अभी नहीं। चॉप बनने दो। पूरा चाँप खिलाऊँगा आज तुझे।”

कॉ-ऑँ-ऑँ-आँ!!