मन का रंग

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा।

बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जाने को यानी 'तनि डोल' जाने को कहेगा।

और यदि मैं उसके गाल के गलमुच्छों और गले के गुलबन्द से ढँकी आवाज को नहीं सुनने का बहाना बनाऊँ तो तनिक ऊँची आवाज - में बेरखाई से कहेगा-“सुनते हैं ? आप ही*से कहा जा रहा है...”

हाँ-हाँ, मुझे नहीं तो और किससे कहेंगे ?

पता नहीं, चेहरे पर क्या लिखा हुआ पढ़ लेते हैं कि लोग कि ट्रेन या बस में अथवा प्लेटफार्म या पार्क के बेंच पर ही नहीं- इस विशाल संसार के किसी कोने में भी बैठा रहूँ तो ये मुझे ही तनिक-सा सरककर बैठने को कहेंगे।

पास में जगह नहीं हो तो मेरी ही गठरी पर बैठते हुए मुझसे पूछेंगे- “इसमें टूटनेवाला कोई सामान तो नहीं ?” मैं कितना ही अखबार पढ़ने में तल्लीन होने की मुद्रा बनाऊँ, चेहरे पर नहीं, सारे शरीर पर गुरु-गम्भीरता का लबादा ओढ़कर भारी बनना चाहूँ-मगर उनकी आँखों ने मुझे पहले ही पासंग-सहित तौल लिया है।

इन लोगों के बीच-प्लेटफार्म के इस ओर से उस छोर तक उनकी निगाह में मैं ही एकमान्न ऐसा हल्का आदमी हूँ, जिसे मद्धिम आवाज से ही तनिक-सा सरकाया जा सकता है।

बगल में बैठनेवाले इन अनचाहे बगलगीरों के अलावा खड़ा होकर तमाशा देखनेवाले तमाशबीनों . में भी ऐसे लोग रहते हैं जो मुझे ही खोजते रहते हैं।

लॉन में कोई बड़ी सभा हो या फुटपाथ पर होनेवाला मदारी का खेल-ये मुझे वहाँ पा लेते हैं और ठीक मेरे सामने आकर खड़े हो जाते हैं।

मेरे दृष्टिपय को उनका "मुंड” पूरी तरह छैंक लेता है। तब यदि मैं दाहिनी ओर सिर झुकाऊँगा, तो वह 'मुंड” भी दाहिने झुकेगा और बाएँ मोह तो वह भी तत्काल उधर मुड़ जाएगा ।

इसके बाद सभा के सारे लोग नेताजी का भाषण, उनके हाथ-पाँव भाँजने के साथ देखेंगे-सुनेंगे; मदारी के मजमे के लोग कबूतर गायब होने का तमाशा देखेंगे और मैं देखा करूँगा सिर्फ इनका मुंड । इसको पकड़कर--आसपास के अन्य मुंडों से टकरा देने का जी बार-बार करने के बावजूद वैसा नहीं कर पाता। और वैसा नहीं कर पाने का दुख...?

आत्मग्लानि की उन अनुभूतियों के दंश से मन बस चिढ़ा रहता है।

अपनी कायरता के लिए अपने-आपको धिक्कारता रहता हूँ। जीभ पर अपने लिए कोई हल्की-फुल्की गाली भी कढ़ आती है, जिसे मैं चुपचाप निगल जाता हूँ सुना है, गीपान के लोग गाली नहीं बकते और न कसमें ही खाते है वहाँ 'हाराकिरी _यानी आत्महत्या करने का अ्रचलन पनपा है।

गाली तो... (क्या कहते हैं उसको, जो असर-कूकर में लगा रहता है?)...हाँ सेफ्टी-बल्ब है।...लीजिए, वे आ गए। वे मुझे ही कह रहे हैं-“तनि डोलिएगा ?

सरकने या खिसकने के बदले 'डोलना' शब्द का प्रयोग, जिस पर इस तेवर के साथ कि अगर मैं नहीं डोलना चाहूँ, अथवा डोलने में मुझे कोई कष्ट हो, तो वे स्वयं मुझे डुला देंगे !

मुझे डोलना नहीं पड़ा। आप बैठ गए हैं। और अब मुझसे कुछ पूछना चाह रहे हैं।...पता नहीं, मेरे चेहरे पर क्या है कि लोग मुझसे ही दुनिया-भर के सवाल करते हैं। मेरी विरक्त मुद्रा ने काम किया।

उन्होंने कुछ पूछना चाहकर भी कुछ नहीं पूछा। मुझे संतोष हुआ, अपनी विरक्त मुद्रा को कारगर होते देखा।

किन्तु एक ही क्षण के बाद फिर दपदपाकर जी जल उठा। सामने बड़े बोर्ड पर एक रेलवे कर्मचारी खूब बड़े-बड़े अक्षरों में लिख गया-'फोर्टी डाउन ट्रेन तीन घंटा लेट!”

एक हल्की-सी चीख मेरे मुँह से निकल पड़ी शायद। बगलगीरजी बैठते ही ऊँघने लगे थे। मेरी अस्फुट चीख पर चिहुँककर जगते हुए बोले-'का हुआ ?

देखता हूँ, सुनता हूँ-मेरे मुँह से ही नहीं-गाड़ी के लेट आने की सूचना पाकर सारे प्लेटफार्म के लोगों के मुँह से कुछ-न-कुछ भला-बुरा निकल रहा है।

बहुत देर से रुकी हुई भुनभुनाहट अचानक फिर शुरू हो गई है!

“तीन घंटे लेट ? अर्थात्‌ दस तीन तेरह-एक बजे रात में आएगी गाड़ी। ऐसा ही होता है। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि जब कभी मैं कहीं की यात्रा पर निकलता हूँ अथवा किसी को 'रिसीव” और 'सी ऑफ” करने के लिए स्टेशन आता हूँ, तो गाड़ी लेट हो जाती है। मैं जानता था आज भी वही होगा।

सो, हुआ ।...इस चायवाले को अबकी डॉटटूंगा, अगर उसने मेरी ओर मुँह टेढ़ा कर उस तरह *च्ये-हे-य!” कहकर पुकारा तो ।

गाड़ी के तीन घंटा लेट आने की सूचना के साथ ही प्लेटफार्म के उस छोर से उसकी आवाज बुलन्द हुई है, जो क्रमशः निकटतर होती जा रही है-*च्हे हे-य!

“ए! इधर सुनो जी। पहले भी तुम मुझसे पाँच बार पूछ चुके हो। इस बार सुन लो मैं चाय नहीं पीता। समझे ?”

चायवाला कुछ अप्रतिभ हुआ। नहीं, अप्रतिभ हो ही रहा था कि मेरे पड़ोसी की नींद खुली और उन्होंने चायवाले को पुकारा-“देना एक कुलफी ”

चायवाले का चेहरा बदल गया। उसने टेढ़ी निगाह से मेरी ओर देखकर फिर हॉक लगाई-“च्ये-हे-य!” और मुझे जो जवाब मिलना चाहिए, मिल गया।

पुनः आत्मग्लानि हुई। इस चायवाले की चिढ़ानेवाली आवाज को नहीं बन्द कर पा सकने की ग्लानि। कई लोगों ने एक ही साथ चाय की माँग की तो उसने मेरी ओर एक बार देखा।

इस बार उसकी आँखों में मेरे प्रति दया का भाव था।

मेरे बगलगीर ने तश्तरी में चाय डालकर फूँकते हुए कहा-“'मेरा बोहनी कैसा सगुनियाँ है, देखा ? पाँच कुलफी एक साथ ।” फिर मेरी ओर देखकर मुखरित हुए-“पीजिए न आप भी एक कुलफी। गाड़ी तो तीन घंटा लेट है!”

क्या जवाब दूँ इस भले आदमी को; गाड़ी तीन घंटे लेट है, इसलिए मैं भी एक कुलफी चाय पीर्ऊँ उनके आग्रह पर। इसमें क्‍या तुक है भला ?

मेरी ओर से निरुत्साहित होकर उन्होंने चायवाले से ही फिर बातचीत जारी रखी-“का जी ? रोज कितना कमा लेते हो ?”

मैं जानता था, चायवाला यही जवाब देगा-“जी, कोई ठीक नहीं, किसी दिन सात-किसी दिन दस-जब जैसा... ।”

हठात्‌ मेरे मन में भी हुआ कि चायवाले से पूछूँ कि अगर तुमको सात रुपए रोज अथवा दो-ढाई सौ रुपए महीने पर कोई नौकर रखे तो क्या इसी तरह दिन-रात प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक घूम-घूमकर चाय बेचा करोगे ? किन्तु मैंने पूछा नहीं।

क्‍योंकि मैंने उसकी चाय खरीदी थी और फोकट के ऐसे सवालों के जवाब वह इस तरह नकद देगा-““ढाई सौ क्‍या, पाँच सौ भी दे कोई, नौकरी नहीं करेंगे साहेब!”

लाउडस्पीकर पर खुसफुसाहट हुई, तो उत्कर्ण हुआ।

गाड़ियों के आने-जाने की सूचना देनेवाले इस यन्त्र से आती हुई आवाज में-ग्यारह बजे रात के बाद से नींद घुल जाती है।

यानी ग्यारह बजे के बाद से इनकी आवाज में धीरे-धीरे विहाग का स्पर्श लगता जाता है और तब इसका भी वही प्रभाव पड़ता है, जो फिल्‍मी लोरियों के सुनने पर पड़ता है - यात्रीगण ..कृपया ध्यान दें...थटिर्‌टन अप गाड़ी !

इस घोषणा के बाद मेरे पास बैठे सज्जन ने मुझसे पूछा-““आपको किधर जाना है ?”

अब मैं अपने को समझाने लगता हूँ कि किस तरह दिन-रात दुनिया से बेवजह नाराज रहना अच्छा नहीं, उचित नहीं ।

इस आदमी ने मुझसे कुछ पूछकर अन्याय नहीं किया है बल्कि, इसका उचित उत्तर नहीं देना असंगत और अनुचित होगा।

और अन्ततः मैं अपने-आप पर नाराज हो जाता हूँ।

फिर अपने-आपकी प्रतिरक्षा करने लगता हूँ--“क्या मैं बेवजह ही सुबह से शाम तक नाराज रहा करता हूँ ? अपना गाँव-घर छोड़कर, पराए नगर में आकर रहने को मजबूर आदमी भी कभी खुश रह सकता है क्या ?

किसी प्राइवेट कॉलेज का पार्ट-टाइम प्राध्यापक भी कभी प्रसन्‍न रह सकता है ?”

ठीक वही हुआ जो ऐसे मौकों पर संयोग से हुआ करता है।

ऐसे तर्क-वितर्क के क्षणों में ही कोई मेरी आँखों में उँगली डालकर - इसी तरह जवाब दिखला देता है. सामने सोई हुई भिखारिन का छोटा-सा शिशु बहुत देर से उठकर बैठा है, और चुपचाप स्वयं ही किलकारियाँ लेकर प्रसन्‍न हो रहा है।

भिखारिन हठातू हड़बड़ाकर उठ बैठती है, फिर अपने प्रसन्‍न शिशु को मस्त होकर खेलते देखकर आह्वादित होती है, बच्चे को दुलारने लगती है-“बबुआ जाग गइल हो ? आज बहुत सबेरे जगलन है हमारं बबुआ!...” फिर उसका हुलसकर बच्चे को छाती से लगाना...?

मेरा भी मन अजाने प्रसन्‍न होने लगा।

और अचानक ही योजना मन में कौंध दो विचार। जिस नगर बा मैं रहता हूँ वह एक नया बसा हुआ नगर है। सड़क के दोनों ओर बनते हुए मकानों को देखकर नाराज होने के बदले इस नगर में आकर बस जानेवाले परिवारों का एक सर्वेक्षण प्रस्तुत करना उचित नहीं क्या ?

मेरे नगर में सैकड़े में गो बासिन्दे गॉव से आकर बसे हैं। सिर्फ एक प्रतिशत परिवार ही पैदाइशी शहरी हैं। मगर बाकी आबादी उसी एक प्रतिशत की नकल में दिन-रात व्यस्त है... कल ही तो, गाँव में जन्मे, पले और बड़े होकर बूढ़े होनेवाले रामनिहोरा बाबू (डॉक्टर रामस्वारथ बाबू के पिताजी) कह रहे थे-“जानते हैं ?

आधुनिक डॉक्टरों का आधुनिक मत है कि शुद्ध दूध और घी स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।”...और मेरी अपनी अधेड़ मौसी उस दिन जिस वेश में मेरे फ्लैट में आई थी-वह किसी सचित्र साप्ताहिक पत्रिका के किसी रंगीन विज्ञापन के मॉडल से क्या कम लगती थी ?

अचानक मेरे मन में दूसरा खयाल आया-क्यों न अपने नगर में भी एक ब्यूटी कन्टेस्ट” का आयोजन किया जाए ?...फिर अचरज हुआ यह सोचकर कि कनर फोटोग्राफी के डेवलप होते ही सारा समाज एक ही साथ किस तरह रंगीन हो उठा है? चारों ओर घोर गाढ़े नीले-पीले, बैंगनी-गुलाबी और तोतापंखी रंगों के धब्बे! मैं अब तब इन रंगों से चिढ़ता रहा हूँ।

लेकिन अब सोचता हूँ कि रंग से चिढ़ना क्‍यों ? रंग तो हमारी सभ्यता के मूल में ही है। मोरमुकुट और पीताम्बर, रंग भरी एकादशी। मेरे अन्दर का कुढ़ता हुआ आदमी भिखारिन के बच्चे को निकलते देखकर ही हार मान चुका था। अब वे मुझ पर व्यंग्य करने लगा-क्यों ?

दुनिया रंगीन मालूम होने लगी ?...मैं उसको जवाब देता हूँ...क्यों नहीं मालूम होगी रंगीन दुनिया-जब यह सचमुच रंगीन है? तीन सौ रुपए के वाउचर पर दस्तखत करके डेढ़ सौ रुपए माहवार, तीन महीने के बाद पाता हूँ, तो क्या मुझे खुश रहने का अधिकार नहीं ?

मेरे बगलगीर की गर्दन नींद से झुकती हुई मेरे कन्धे पर आ गई है। मेरे अन्दर का नाराज व्यक्ति होता तो तुरन्त कन्धा खींच लेता और उसका मुंड बेंच से “खट” आवाज के साथ टकरा जाता।

किन्तु मैं अब पूर्ण स्वस्थ हो गया हूँ। गाड़ी आने में अब बस आधा घंटा रह गया है। मैं अपने बगलगीर का सिर पकड़कर धीरे-से जगा देता हूँ।

फिर चायवाले को पुकारता हूँ और बगलगीर के हाथ में एक कुलफी चाय थमाकर आग्रह करता हूँ-पीजिए ? एक कप मैं भी पी लूँगा आज।