अभिनय

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था।

मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी दादी मेरा नाम लेकर पुकारती है) ने मुझे 'दादू” यानी 'बाबा' कहा था।

मुझे 'केशव-केशन'” की याद आई थी और मैं मन्द-मन्द सुर में दोहा पढ़ने लगा था।

सबसे पहले छन्दा की दादी (जिसे मैं जेठी माँ अर्थात्‌ बड़ी चाची कहता हूँ) ने दोहा” का अर्थ पूछा था।

और मतलब समझकर छन्दा की छोटी चाची (जो असाधारण सुन्दरी है) ने मुझे ढाढ़स बँधाया था, “ किन्तु...बांग्ला माने हम लोगों का दादू लोग खूब मौज में रहता है। जानते हैं न ?”

छन्दा की सदा बीमार माँ के पीले मुखड़े पर भी हँसी की रेखा फूटी थी, “दादू और पोती में खुलकर दिल्लगी चलती है। खूब फस्टीनस्टी...।”

छन्दा की छोटी चाची ने आँखों को नचाते हुए कहा था, “अब आप भी छन्दा को 'गिन्‍नी' बोलके डाकिये। गिन्‍नी का माने बूझते हैं ? गृहिणी ।”

और, इस बात पर फिर एक बार सामूहिक ठहाका लगा था।

छन्दा की छोटी चाची (जो राजकपूर का नाम सुनते ही आइसक्रीम की तरह गल जाती है!) बात करने का ढंग जानती है।

(मेरे एक निन्दक पड़ोसी मेरी निंदा करते समय लोगों से कहते हैं कि छन्‍दा की छोटी चाची से बातें करने के लिए मैं दफ्तर से कौजुअल-लीव ले लिया करता हूँ!) वह सामनेवाली कुर्सी पर आकर बैठ गई और दुनिया - भर के दादुओं की कीर्ति कथा सुनाने लगी, “कोलकाता में हमारा भी एक ऐसा ही दादू था...।”

“ऐसा ही माफिक माने ?”

“आपका ही माफिक। पातानो-दादू ?”

“पातानो-दादू ?”

“मुँहबोला-दादू ”

छन्दा का छोटा भाई सन्तू, जो अब तक चुप था, बोल उठा, “तब ठाक्माँ (दादी) से काका बाबू का...कौन...सम्बन्ध...””

बेचारा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि हँसी का हुल्लड़ शुरू हुआ। और सबसे ऊपर छन्दा की मयूरकंठी-हँसी।

हँसी नहीं, पिहकारी। सारे गोलमार्केट में उसकी हँसी कुछ देर तक मँडराती रहती है। पास-पड़ोस के लोगों ने छन्दा के फ्लैट को, इसी उन्मुक्त-हँसी के कारण 'नाइट-क्लब' का नाम दे दिया है।

उस रात को (छन्दा का दादू बनकर) लौटते समय बत्तीस नम्बर के (सीदा-सादा दीखनेवाला नम्बर एक शैतान) सज्जन ने कपट-नम्रता से पूछा था, “क्यों अरुण बाबू! पच्चीस नम्बर में किसी डिरामा-उरामा का रिहलसल-उहलसल चल रहा है क्या ?”

मैंने कहा था, “जी हाँ ।”

बत्तीस नम्बर मुँह बाकर मुझे थोड़ी देर तकदेखता रहा था। फिर पूछा, “कौन नाटक ?”

“दादू चरित।”

छन्दा रेलवे-कंट्राक्टर बी. घोष की बड़ी बेटीं है। साँवरी-सुन्दी और चंचल लड़की है। नाचती है, गाती है, अभिनय करती है। स्लैभाग्यवश, अब तक कुमारी है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि किसी कंट्राक्टर की संतान विवाह के मामले में और प्रेम के व्यापार में धोखा नहीं खा सकती।

दुधमुँही बच्ची-जैसी भोली-भाली छन्दा “लोलिता' पढ़ चुकी है। मेरे-जैसे अनेक मूढ़ लोगों को नचा चुकी है। फिर भी, सबकुछ जानते हुए भी, लोग उसकी बोली सुनकर भ्रम में पड़ जाते हैं ।

मैं सोचने लगा, इतने दिनों के बाद आखिर छन्दा ने मुझसे यह नया रिश्ता क्यों जोड़ा ? दादू और पोती में खुल्लमखुली दिल्‍लगी चलती है।...मेरे मुँह से “गिन्‍्नी' सम्बोधन सुनने के लिए अथवा...अथवा...?

यो मुँहबोले-काका की हैसियत से भी मैं छन्दा से हल्की-फुल्की दिल्लगी किया करता था। छन्दा के राही-प्रेमी (रिक्शे के पीछे सायकिल भगाकर “होगा कि नहीं” पूछनेवाले) के बारे में पूछता था।

जिस लड़के के बाप ने छन्दा की तस्वीर मँगवाई है, उसकी मूँछों की ऐंठन देखकर डरेगी तो नहीं छन्दा ?...यह गीत और नाच किस काम आएगा...सुहाग की रात में घुँधरू बाँधकर नाचेगी छन्दा? आदि-आदि।

फिर, इसे नए रिश्ते की क्या जरूरत थी ? छन्दा के (बाप के) बैठक में जिस सोफा पर मैं पहली बार बैठा था, उसी पर आज तक बैठता आया हूँ। कल भी उसी सोफे पर बैदूँगा। लेकिन छन्दा मुझे दादू कहेगी।

दूसरे दिन फ्लैट में पैर रखते ही छन्दा ने स्वागत किया, “कि बूड़ो ?...क्यों बुड़ढे, दाँत में दर्द-वर्द तो नहीं। आज चने की घुँघनी बनी है।”

मैं हठात्‌ अधेड़ हो गया। मुझे लगा, मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं और दमे से परेशान हूँ, कि गठिया के मारे मेरे घुटनों में रात-भर दर्द था, मगर किसी ने गरम पानी का थैला नहीं दिया।

मैंने कराहते हुए जवाब दिया, “दर्द की कया पूछती हो गिन्‍नी। कहाँ नहीं दर्द है ?”

छन्दा की छोटी चाची देर से आई, मगर दुरुस्त होकर आई। बोली, “किन्तु दादू होने में खतरा भी है।”

“कैसा खतरा ?”

“लड़कियों के नाबालिग-प्रेमी लोग दादुओं से बहुत नाराज रहते हैं। हाथ में छड़ी लेकर सुबह-शाम पोत़ी-नतनी की रखवाली करनेवाले दादुओं को वे फूटी नजर भी नहीं देखन्ना चाहते। अतएव, हमेशा होशियार रहिएगा।”

उधर छन्दा के छोटे भाई ने गाना शुरू करं दिया था-“मैं का कलूँ लाम मुझे बुद्धा मिल गया।

तीसरे दिन 'मालूम हुआ कि धनबाद से एक कोयला खदान के मालिक का बड़ा बेटा छन्दा को देखने आ रहा है। मैंने कहा, “गिन्नी? आखिर इंस काला-हीरा की ही गले में डालेगी?”

छन्दा लजानेवाली लड़की नहीं। बोली, “सुनती है काकी? मारे डाह के जल-भुनकर भुर्ता हुआ ज़ा रहा है। बुड़ढा!'

मैं एक लम्बी साँस लेकर उदास हो गया।

छन्दा की छोटी चाची चाय लेकर आई (आज तक चाय लाने का काम किसी और ने नहीं किया) और बोली, “छन्दा ने आपके लिए... ।”

तब तक छन्‍्दा, हाथ में एक साप्ताहिक पत्रिका लेकर मेरे पास आ गई। बोली, “आज ही कार्ड लिखकर बी. पी. मँगा लो दादू। पढ़कर देखो, लिखा है केश काले न हों तो दाम वापस ”

मैंने तत्परता से कहा, “दया करके इसकी कटिंग मुझे दे दो ।...हाय। दुनिया में हमदर्दों की कमी नहीं ।...क्या लिखा है? जवानी में बुढ़ापा क्यों भोग रहे हैं।...वाह! आजही लिख देता हूँ। काला-हीरा से मुकाबला है, खेल नहीं ”

लगातार चार महीने तक दादू की भूमिका अदा करने के बावजूद, मुझसे गलती हो ही जाती। तब, छन्दा की छोटी चाची अथवा माँ या दादी मुझे टोककर सुधारती- “ऐसा नहीं, इस तरह... ।”

किन्तु, छन्दा कभी कोई गलती नहीं करती। आध-दर्जन नाती-पोतोंवाली बूढ़ी की तरह वह बोलती-बतियाती। मेरी गलतियों (बेवकूफियों) पर ताने देती हुई कहती “तुम्हारे मन में भी भारी-जवान चोर है बुड़ढे।”

एक दिन छन्दा ने मुझसे धीमे स्वर में कहा, " 'दादू, तुमन कुछ मार्क किया है? तुम्हारे आते ही दादी सिर पर कपड़ा सरका लेती है।”

छन्दा की छोटी चाची दौाँतों-तले जीभ दबाकर हँसी। फिर, फिसफिसाकर बोली “हाँ, कल कह रही थी कि बेचारे अरुण को छन्दा बहुत दिक करती है। और छन्दा ने तुरत उल्टा जवाब दिया-तो, तुम अपने बूढ़े को सँभालती क्यों नहीं ।...इस पर माँ हँसते-हैसते लोट-पोट हो गईं।'

मैंने छन्दा से पूछा, “क्यों बूढ़ी ? मुझे धकेल रही हो ?”

छन्दा हँसती रही । बोली, “और, इधर दादी आपसे बहुत कम बातें करती है, यह आपने लक्ष्य किया है? आते ही अचानक गम्भीर हो जाती है।”

छन्दा की दादी ने पूजा-घर से ही कहा, “छन्दा, तो आश्रम में इस बार पूजा होगी या नहीं ?”

“तू लाज से गड़ी क्‍यों जा रही है ?”

“अब मार खाएगी तू, हाँ... ।”

“...चिढ़ी है।...बात लगी है?” छन्दा टेबुल पीटकर हँसने लगी।

तो, छन्दा ने मेरे मुँह से 'गिननी' सुनने के लिए नहीं, मुझसे एक “मधुर सम्बन्ध” के लिए नहीं, अपनी दादी को चिढ़ाने के लिए ही मुझे दादू कहना शुरू किया है ?

अब तो स्पष्ट शब्दों में वह अपनी दादी की भारी-भरकम देह और मेरी दुबली-पतली काया की जोड़ी लगा देती है। उस दिन एक व्यंग्य-चित्र दिखलाकर बोली, “आप लोगों की युगल-जोड़ी ।”

छन्दा की दादी विधवा है। मांस-मछली नहीं खाती। पान का नशा है-मगर मुँह में दाँत नहीं। इसलिए पान के बीड़े को कूटकर खाती है। छन्दा ने मुझसे एक दिन यह कर्म भी करवाया और उसकी दादी हँसती रही।

उठते समय, उस दिन फिर हो-हल्ला शुरू हुआ। छन्दा की माँ से उसकी दादी ने चुपके से कहा कि अरुण को कल रात यहीं खाने को कहो..., छन्दा ने सुना और ले उड़ी, “सिर्फ खाने का निमन्त्रण ?”

छन्दा की दादी के हाथ में जादू है, सुन रखा था। अचानक निमन्त्रण पाकर मैंने पूछा, “लेकिन मांस-मछली तो... ।”

छन्दा बोली, “आपके लिए सब नियम-कानून तोड़ सकती है-मांस-मछली छूने की क्‍या बात ?”

दूसरे दिन, सुबह ही सन्‍्तू एक लिखित निमन्त्रण-पत्र दे गया-' एक बार आकर देख जाइए कि आपकी “मोटकी' दिगम्बरी रसोईघर में किस तरह पसीने से नहा गई है।...इसी को कहते हैं प-रे-म ।”

मैं नहीं गया। शाम को भी अपने समय पर नहीं गया। तय किया, ठीक भोजन के समय जाऊँगा।

शाम को मैदान का एक चक्कर लगाकर लौट रहा था। हथुआ-मार्केट के सामने आते ही पान खाने को मन ललच पड़ा।

जाफरानी-पत्ती मुँह में घुलाते हुए मैंने पूछा, “यह कैसी पत्ती है ?”

“बाबूजी, वाराणसी-पत्ती है। आपने तो पान छोड़ ही दिया ।” विश्वनाथ ने कहा।

“क्या कीमत है ?”

“ढाई रुपए।”

पॉकेट टटोलकर देखा, पचास पैसे कम पड़ेंगे। विश्वनाथ ने कहा, “कोई बात नहीं ।”

मैं जान-बूझकर ही देर से छन्दा के फ्लैट गया। सुना, दादी निराश होकर सो गई है। निराश ही नहीं, नाराज होकर भी।

छन्दा बोली, “बाबा! अब मैं कुछ नहीं बोलूँगी। दादी का कहना है मेरे ही कारण, आप... ।”

मेरी बोली सुनकर छन्दा की दादी कपड़े सँभालती हुई आई। मैंने देरी के लिए एक झूठी सफाई दी। वह बोली, “सभी चीजें ठंडी हो गई होंगी।”

छन्दा कुछ कहना चाहती थी। किन्तु, हाथों से मुँह ढँककर अन्दर चली गई। छन्दा की छोटी चाची रसोईघर की ओर गई। छन्दा की दादी बैठी, ' 'मुँह-हाथ धो चुके हो ?

मैंने पॉकेट से जर्दा की डिबिया निकालकर बूढ़ी की ओर बढ़ाया।

वह मद्धिम आवाज में बोली, “की जिनिस ?”

“वाराणसी-जाफरानी जर्दा।”

बूढ़ी ने डिबिया को खोलकर सूँधा। मुस्कुराकर चुपचाप आँचल में बाँधने लगी, “क्या जरूरत थी ? कितना दाम लिया ?”

अच्छी चीज है।” मैंने कहा।

“गन्ध तो बहुत अच्छी है।” बूढ़ी ने आँचल को एक बार सूँघकर छिपा लिया। कि अचानक हन्दा, सन्तू और छन्दा की चाची ने एक साथ कमरे में प्रवेश किया। छन्दा ने पूछा, “क्यों? क्या घुसुर-फुसुर हो रहा है ?”

सन्तू बोला, “की मिष्ठी गन्धो।”

यह खुशबू कैसी है बुड़ढे ”” छन्दा ने मुझसे पूछा।

मैंने उन्दा की दादी की ओर देखा। लाज के मारे बूढ़ी का चेहरा लाल हो गया था।

“क्यों दादी? आँचल में क्‍या छिपाया...देखूँ....यह.. क्या... हैः

“कुछ नहीं...जर्दा ।”

“किसने दिया ?”

अब मेरी देह काँपने लगी। कान गर्म हो गए। लाज से मेरी आँखें झुक गईं और पच्चीस नम्बर फ्लैट में एक बार फिर छप्पर-फोड़ ठहाका गूँजा।

छन्दा की छोटी चाची ने कहा; “ठाकुरपो (देवरजी) आज एकदम सही... ओके...। जरा भी गलती नहीं की आपने...ठीक, दादू। हू-ब-हू!”

छन्दा डॉट रही थी दादी को-“ऐं? तुम डूब-डूबकर पानी पीती थी बूढ़ी?” सन्तू बोला, “सिंकिंग-सिंकिंश-ड्रिंकिंग वाटर... ?”