तव शुभ नामे

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

एक-एक कर बहुत सारे शब्दों को “नकारता' जा रहा हूँ 'नकार” दिया है।

नेति-नेति! माता, मातृभूमि, जन्म-भूमि, देश, राष्ट्र, देशभक्ति-जैसे चालू शब्दों की अब मुझे जरूरत नहीं होती।

माँ की 'ममता' और मातृभूमि पर मर-मिटने के संवाद और गीतों की बातें अब सिर्फ बम्बई और मद्रास के फिल्म प्रोड्यूसर ही करते हैं। गाँव-समाज से नेह-छोह तोड़े दो दशक हो गए।

अब कभी अपने गाँव की याद नहीं आती।

गाँव के 'चौपाल' और “गोहाल' और “अलाव' के किस्से भूल चुका हूँ।

कोसी कछार की हवा मुझे समय-असमय निमन्त्रण नहीं देती और न दूर किसी गाँव के ताड़ या खजूर या नारियल के पेड़ ही इशारों से मुझे बुलाते हैं।

'कमलदह” और “रानी-पोखर” के पुरइन-फूलों के जंगल में भूला 'मन-भमरा” अब गुन-गुन नहीं करता...धीरे-से आना बगियन में रे भोंमरा, धीरे-से आना बगियन में...पंकज मल्लिक का यह गीत अब मन में गुदगुदी पैदा नहीं कर पाता।

जिस गाँव में मेरा जन्म हुआ, उसका नाम भी चेष्टा करके भूल गया हूँ। किन्तु इस कटिहार जंक्शन रेलवे-स्टेशन के मोह को अब भी नहीं काट सका हूँ।

गाँव छोड़ा, जिला छोड़ा, प्रान्त छोड़ा, मगर हर पाँच या सात वर्षों के बाद कोई-न-कोई बहाना बनाकर कटिहार चला आता हूँ।

नम्बर दो ओवरब्रिज पर आकर घंटों खड़ा होकर चारों ओर देखता हूँ।

“पहली बार, गंगा-स्नान को जाते समय, बचपन में माँ के साथ मैं इस ओवरब्रिज के इसी स्थान पर आकर खड़ा हुआ था।

माँ ने उत्तर-पूर्व की ओर हाथ उठाकर दिखलाते हुए कहा था-“वह है “कामच्छा'-कमिच्छा” जानेवाली गाड़ी, पच्छिम की ओर वह गाड़ी काशीजी-प्रयागजी तक जाएगी और दक्षिणवाली वह लाइन गंगा के मनिहारी घाट तक चली गई है।”

तब से आज तक न जाने कितनी बार इस स्थान पर आकर खड़ा हुआ हूँ। तब से अब तक इस रेलवे के कितने नाम अदल-बदलकर पड़े...ई. बी. रेलवे, बी. ए. रेलवे, ए. बी. रेलवे, ओ. टी. रेलवे और नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर रेलवे; किन्तु अब तक मैं ई. बी. रेलवे ही समझता हूँ।

यहाँ आकर मैं दिशाहारा-सा हो जाता हूँ, अर्थात्‌ पूरब-पच्छिम, उत्तर-दक्षिण के बदले कामरूप-कमिच्छा की ओर, काशी-प्रयाग की ओर और गंगा की ओर के रूप में दिशाओं का अनुभव करता हूँ। सात वर्षों के बाद आया

हूँ, लेकिन लगता है कि पिछले सप्ताह की बात है! कभी-कभी तो सिर्फ एक दिन के लिए ही दौड़ा आया एकदम सीधे बम्बई से! रेलवे के एक रिटायर्ड अफसर से सुना था कि प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक चक्कर लगाकर गाड़ी के यात्रियों को देखना एक रोग है और हर रेलवे स्टेशन के आसपास रहनेवाले कुछ लोग इस रोग के शिकार हो जाते हैं।

और, इस रोग का सम्बन्ध सीधे यौन-विकार से है।

एक किस्म का एक और रोग है, चलती हुई गाड़ी में सम्भोग-सुख प्राप्त करने की लालसा।

सम्भव है, कटिहार जंक्शन से मेरा यह लगाव भी वैसा ही रोग हो, नहीं तो क्‍यों इस तरह बेदार होकर दौड़ आता हूँ? काशी, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता आदि से लौटते समय, दूर से ही कटिहार स्टेशन का टॉवर देखकर लगता था, कटिहार जंक्शन सिर ऊँचा किए, मुस्कुराता हुआ हमें देख रहा है।

इस बार, अब तक कटिहार जंक्शन ने मुझे नहीं पहचाना है। घने कोहरे में टॉवर छुपा हुआ था।

ओवरब्रिज पर आते ही लगा, प्रतीक्षालय के बूढ़े चौकीदार की तरह पोपली हँसी हँसकर किसी ने कहा-“इस बार बहुत दिनों के बाद इधर आना हुआ, शायद... !”

दो नम्बर प्लेटफार्म पर उतरते ही पियक्कड़ पगलू जमादार हड़बड़ाकर उठ बैठता है-बाबू, मीना बाजार आनेवाला है फिर क्या ?

मीना बाजार! पैंतीस साल पहले मीना बाजार देखने आया था। पूजा बाजार स्पेशल! कलकत्ते से आती थी वह गाड़ी।

कलककत्ते की कई प्रसिद्ध कम्पनियाँ अपनी दूकानें लेकर आती थीं...ज्वेलर्स, पर्फ्यूमर्स, बन्दूकवाले और बाग बाजार के रसगुल्लेवाले। पूरे प्लेटफार्म पर दिन-भर मेला लगा रहता।

रात में प्लेटफार्म पर ही मुफ्त सिनेमा दिखलाया जाता। उस बार स्ट्रीट सिंगर' फिल्म दिखलाई गई थी। दुर्गोत्तव के पहले एक दिन का अतिरिक्त उत्सव।

पगलू जमादार से पहली बार मीना बाजार में ही परिचय हुआ था।

एल. एस. डी. खाने के बाद लोग तरह-तरह के अलौक़िक दृश्य देखते हैं, वैसा ही कुछ होता है यहाँ आकर।

अभी तीन नम्बर प्लेटफार्म पर पहुँचते ही पोर्टर कामरूप-कमिच्छा की ओर से आनेवाली गाड़ी का सिगनल डाउन कर देगा।

सारे प्लेटफार्म की रोशनियाँ बुझा दी जाएँगी। दफ्तरों और रेल के कम्पार्टमेंट की रोशनियों के गिर्द कोलतार पोत दिया जाएगा।

घुप्प अँधेरे में सिर्फ हही और लाल रोशनियाँ टिमटिमाती-सी दिखाई पड़ने लगेंगी।

दीवारों पर, पोस्टरों में चेतावनियाँ चिपक जाएँगी...नम्बर एक प्लेटफार्म पर मिलेटरी-स्पेशल आकर रुकेगी।

मित्र-पक्ष के सिपाही...न जाने किस-किस मुल्क के! कोहिमा, दीमापुर, इम्फाल, डिब्रूगढ़ आदि कई नाम हवा में फिसफिसाकर लिए जाएँगे।

इसके बाद उधर से आएगी इवैक्वी-स्पेशल, बर्मा, रंगून को खाली करके, पैदल ही नदी-पहाड़ पार करके आनेवाली प्रवासी भारतीयों को लेकर! रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों के साथ, स्वयंसेवक का बिल्ला लगाकर, प्लेटफार्म पर पहले से

ही तैयार है...गाड़ियाँ चीखती हुई आती हैं। रोती हुई, सिर धुनती हुई। हर कम्पार्टमेंट मे पीले-पीले औरत-मर्द-बच्चे-बूढ़े ढुँसे हुए।

अस्थि-पंजर मात्र शेष देह पिंजर, कोटरों में धंसी आँखें! अधमरे लोगों को लेकर गाड़ी आई है।

गाड़ी के रुकते ही हर कम्पार्टमेंट से नरकंकालों की टोलियाँ उतरती हैं...न हँसती हैं, न रोती हैं।

अचानक वे एक साथ चिल्लाने लगते हैं, पागलों की तरह वे इधर-उधर दौड़ते हैं।

ठोकर खाकर गिरते हैं।

हँसते हैं, रोते हैं।

नंगे-अधनंगे, चित्थी-चित्थी चीथड़ों में लिपटे लोग हवा में हाथ नचा-नचाकर पता नहीं क्या-क्या बोल रहे हैं।

पगलू जमादार, मृतक-सत्कार समिति का बैज लगाए, कन्धे पर स्ट्रेचर लेकर मेरी ओर आता है-बाबू, मीनाबाजार ही आया है...समझिए !

होमियोपैथी दवा की गोलियाँ खाकर एक पीली लड़की मुझे बहुत देर तक घूरती रहती है...फिर उससे पूछती है...बरमचारी है, मैं क्या सचमुच जिन्दा हूँ ?

इतना कहकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ती है।

उसकी पीली दन्त-पंक्तियों में जड़ा सोना कितना गन्दा है।

इवैक्वी...इवैक्ची...धनपाल को छेड़कर भागनेवाले।

बीहड़ रास्ते में परिवार के सदस्यों को खोकर, अपनी जान किसी तरह बचाकर आसाम तक पहुँचनेवाले भाग्यशालियों के दल की वह पीली लड़की कैम्प अस्पताल में दम तोड़ते समय मुझे अपने पास बुलाती है।

इशारे से अपने गले के लॉकेट को खोलने के लिए कहती है। एक काले डोरे में लटकती सिस्टर निवेदिता की तस्वीर, दूसरी ओर महीन अक्षरों में कुछ लिखा हुआ है।

मृतक-सत्कार समिति का एक स्वयंसेवक मेरे हाथ से लॉकेट लेते हुए कहता है-अरे, यह तो रोल्डगोल्ड है!

यदि मृतक-सत्कार समितिवाले कुछ देर बाद आते, तो मैं उस लड़की की लाश के पास बैठकर दो बूँद आँसू जरूर गिराता...आँखों में अटके आँसुओं की उन बूँदों को अब तक आँखों में ही सहेजकर रखना आसान नहीं।

पगलू जमादार हँसता है-आज कुछ भी हाथ बहीं लगा! अरे बाबू, उस दिन की उस पीली लड़की के दाँतों में असली सोना था, असली! पोर्टर अब घंटा बजाकर आसाम-लखनऊ मेल आने की सूचना देता है।

लाउडस्पीकर पर ऊँघती हुई आवाज में ऐलान किया जाता है : आसाम-लखनऊ मेल ट्रेन पाँच नम्बर प्लेटफार्म पर आ रही है।

जिन यात्रियों को सोनपुर, छपरा, गोरखपुर होते हुए लखनऊ की ओर जाना है...सभी बुझी हुई रोशनियाँ जल पड़ती हैं एक साथ।

भोर का तारा आकाश पर चमक उठा।

उषा की लाली प्लेटफार्म पर छा गई है और ऐसे ही समय पाँच नम्बर प्लेटफार्म पर पार्वतीपुर पैसेंजर 'इन' करती है...रिफ्यूजी...रिफ्यूजी...फिर वही लोग, वही नरकंकाल और फिर वही पीली लड़की ?

इस बार वह मुझे देखते ही पहचान लेती है।

मैं उसके पास जाता हूँ ?

वह मुझे दोनों हाथों में जकड़कर कहती है - तुमी आमा के छेड़े को धाय पालियेगेले ?

कहाँ भाग गए थे तुम मुझे अकेली छोड़कर ?

उन्होंने मेरे दाँत से असली सोने का पत्तर निकाल लिया! हाय हाय! पगलू जमादार आकर ढादस बँधाता है-अरे, बबुनी, धरम बच गया, यही बहुत है...!

मृतक-सत्कार समितिवाले इस बार जबरदस्ती उस लड़की को स्ट्रेच॒ पर सुलाकर ले गए।

वह चीखती रही। मुझे नाम लेकर पुकारती रही। मैं कुछ न बोल सका।

उस लड़की की देह आग की तरह सुलग रही थी...हर कम्पार्टमेंट में काननबाला, यूधिका राय, अंगूरबाला, भारती-यमुना, मंजु एक स्वर से नजरुल गीत गाने लगीं : हो ओ धरमे ते धीर होओ करमे ते वीर होओ उन्नत सिर नाहिं भय; मैं मेडिकल अफसर को समझा रहा हूँ कि एक लड़की को जीवित ही जलाने को ले गए हैं लोग।

डाक्टर मुझे समझाता है कि सती प्रथा का अन्त ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और राममोहन राय के युग में ही हो गया है। पगलू जमादार ने आकर मुझे धीरे से कहा-इस बार उसके गले में असली सोने का लॉकेंट था और उसमें आपकी तस्वीर लगी थी, बाबू!

लाउडस्पीकर पर फिर कोई ऐलान शुरू हुआ। फिर एक गाड़ी रिफ्यूजी! रिफ्यूजी-स्पेशल हठातू साइरन बजने लगा।

रोशनियाँ फिर एक-एक कर बुझने लगीं। तीन नम्बर प्लेटफार्म पर फिर अन्धकार छा गया।

लाल और हरी रोशनियाँ आकाश में टिमटिमाने लगीं।

कामरूप मेल आकर अन्धकार में खड़ी हो गई। हर कम्पार्टमेंट में कच्ची उम्र के जवान हिन्दू, मुसलमान, सिक्‍्ख..,उनके चेहरे गुस्से से तमतमाते हुए हैं।

चीखती, धड़धड़ाती आती है आसाम की ओर से एक के बाद दूसरी गाड़ी...घायलों, मृतकों और अधमरे लोगों को लेकर! आसाम, गोहाटी, डिब्रूगढ़ से भागे हुए इवैक्वी...इवैक्वी ...इस बार वह पीली लड़की अपने चेहरे पर घूँघट डालकर आई है...सेठानी की तरह।

वह मेरे पास आकर धीमे-से बोली-मास्टरजी, मेरे साथ मेरा देश जाएगा ?

बकसीस मिलेगा पूरा । चलेगा ?

पगलू जमादार मुझे आँखों के इशारे से कहता है - बाबू, उसके साथ मत जाइएगा उसके बक्श में नेपाली गाँजा भरा हुआ है! कामरूप-कमिच्छा की ओर से फिर एक स्पेशल ट्रेन आ रही है।

प्रतीक्षालय का बूढ़ा चौकीदार पोपली हँसी हँसता हुआ, मुझसे कहता है - साहब, आपकी गाड़ी आ रही है।

रेडियो पर “जन गण मन” गाया जा रहा है यानी स्टेशन अब बन्द हो रहा है। “तव शुभ नामे” के पास रेकार्ड कटा हुआ है, शायद ।

'तव शुभ नामे-तव शुभ नामे' बार-बार बज रहा है।