ना जाने केहि वेष में

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी कहानियाँ

उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था।

यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ !

पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा 'फल' हो, इसलिए जहाँ चार दिन के बाद जाना है, वहाँ आज ही चल देना लाभदायक समझा और बोरिया-बिस्तर लपेटकर निकल पड़ा।

ट्रेन में बैठते ही राशिफल के सभी लुभावने फल मेरी आँखों के आगे आकर लटक गए-ययात्रा शुभ, धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ। रह-रहकर मन में गुदगुदी लगने लगी।

लगा, पॉकेट में पड़े दुबले-पतले पर्स में पैसे खुद-ब-खुद दुगने हो रहे हैं।

सामने बैठे खादीधारी सज्जन किसी मिनिस्टर के निकट सम्बन्धी-से लगने लगे और हर स्टेशन पर कम्पार्टमेन्ट में हड़बड़ाकर घुसते हुए व्यक्तियों के चेहरों पर मित्रता के लक्षण दीखने लंगे।

किन्तु, डेढ़ घंटे तक कुछ नहीं हुआ, यानी कोई लाभ' नहीं हुआ; कुछ भी नहीं फला। मन को भरोसा दिया-अभी तो दस-ग्यारह घंटे बाकी हैं।

जब “योग” इतना जोरदार है तो कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई फल अवश्य फलेगा।

कुछ ही देर बाद गाड़ी कटिहार-जंक्शन स्टेशन पर पहुँची, जहाँ चारों ओर की गाड़ियाँ आती हैं, जाती हैं।

धड़कते हुए दिल से हर तरफ निगाह दौड़ाने लगा।

दोनों ओर की खिड़कियों को खोल दिया, ताकि 'धन” या 'सम्मान” या 'मित्र” के आगमन में कोई बाधा न पहुँचे। पर दस-पन्द्रह मिनट यों ही यानी निष्फल ही निकल गए।

जब गाड़ी खुलने का समय हुआ तो जी छोटा होने लगा। इतने में खिड़की से झाँकता हुआ एक अपरिचित मुखड़ा मुझे देखते ही प्रफुल्लित हो उठा।

पान से लबालब भरे मुँह से 'अहा” शब्द पान की पीक के साथ अनायास ही छलक पड़ा।

और चलती हुई गाड़ी में दौड़कर फुर्ती से वे चढ़ गए। डब्बे में घुसतें ही दोनों भुजाओं को पसारकर बोले, “अहो भाग्य! कहिए! कुशल-क्षेम ठीक है न! अहा...धन्य है!”

टाट की झोली को ऊपरवाले बर्थ पर रखकर वे मेरे पास आकर बैठ गए, और पुनः-पुनः अपने-आप पुलकित होने लगे-“प्रसन्‍न तो हैं न? कहिए, इधर नया क्या-क्या लिखा ?...कल ही आपके बारे में...कल क्यों, आज ही सुबह “कचनारजी'” से

आपके बारे में घंटों बातें हो रही थीं। और संयोग देखिए कि आपके दर्शन...हैंहैं... 'जाको जा पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू'...पान खाते हैं न?” कहकर उन्होंने अपनी झोली उतारी।

यों उनकी झोली पर एक प्रसिद्ध आयुर्वेद-भवन प्राइवेट लिमिटेड की बलवर्द्धक औषधि का नाम 'ट्रेडमार्की सहित अंकित था, किन्तु अन्दर रंगीन लुंगी, सफेद पाजामा और गन्दे तौलिए में लिपटा पान का डब्बा था।

यों उनका पान का डब्बा भी 'एफार मेंटल' का डब्बा था और जर्दे की डब्बी विटामिन 'बी' की गोलियों की शीशी थी। वह पान लगाने लगे और मैं उन्हें और उनके 'कचनारजी' को याद करने की असफल चेष्टा करता रहा...नहीं, इससे पहले न कभी इनके दर्शन हुए और न कभी कचनारजी का नाम सुना ।...मुझे राशिफल की याद आई-न जाने केहि वेष में नारायण अर्थात्‌ मित्र-लाभ हो जाए। इसलिए चुप रहा।

मुझे पान देतें हुए वे बोले, “कचनारजी कह रहे थे कि आपने कोई महाकाव्य लिखना शुरू किया है। क्‍या नाम है.?...अँय? शुरू नहीं किया?...देखिए, देर मत कीजिए।

वह मुँह में पान डालकर, जर्दा फाँककर और चूना चाटकर जुगाली करने लगे तो मुझे फिर थोड़ा-सा अवसर मिला। मैंने लक्ष्य किया, कम्पार्टमेन्ट के अन्य यात्रियों पर भी उनके आगमन और संभाषण की तीव्र प्रतिक्रिया हुई है।

बंगालिन 'मायजी” और उनके “कत्ता' उनकी ओर बार-बार एक साथ देखते हैं और उनकी बेटी रह-रहकर हँस पड़ती है।

ऊपर के बर्थ पर लेटे हुए सज्जन लगातार सिगरेट फूँकनें लगे हैं। सामने बैठे मौलवी साहब की आँखें गोल हो गई हैं।

वह खिड़की से बाहर पीक थूकने लगे तो मैंने समझ लिया, अब फिर कचनारजी की कोई बात उन्हें याद होगी। उन्होंने मुझसे पूछा, “जानते हैं ?” और उत्तर की प्रतीक्षा में होंठों पर लाल मुस्कुराहट बिछाकर मेरी ओर देखने लगे।

मैं कुछ भी नहीं समझ सका कि मैं क्या जानता और क्या नहीं जानता हूँ। मुँह से निकला, “जी नहीं ।

बोले, “कचनारजी ने एक “लघू उपनियाँस' लिखा है। जानिएगा कैसे? कल ही, नहीं-नहीं, तीन दिन पहले लिखकर समाप्त किया है-दो ही रातों में। नाम क्या रखा है, जानते हैं ?...हैं-हें, सुनिएणा ? नाम रखा है “अबोली...हैं-हें, है न बढ़िया नाम ?”

मैंने गरदन हिलाकर छोटा-सा “हूँ” कहा कि दे तड़प उठे--“आपको पसन्द आया नाम ? सचमुच ? रहिए, मैं आज ही उनको लिख देता हूँ। और “उपनियाँस” की 'प्लौटिंग' जानते हैं? एकदम अनूठी! समझ लीजिए कि एक ऐसी लड़की है जो कुछ . बोलती नहीं, एक शब्द भी नहीं, फिर भी सबकुछ बोलती है।

मगर...ठहरिए, मैं

इतमीनान से आपको कहानी की “प्लौटिंग' और “कम्पलेक्स' सुनाऊँगा। जरा अगले स्टेशन पर एक आदमी को देखना है।”

मैंने साहस बटोरकर कहा, “आप कहाँ तक चल रहे हैं ?''

बोले, “जाना तो था भागलपुर, मगर अब आप मिल गए तो पटना ही चला चलूँगा। ऐसा मौका बार-बार थोड़ो हाथ आता है किसी के ? यह तो नदी-नाव का संयोग समझिए...।”

बात को अधूरी रख वह मौलवी साहब की किसी परीशानी को दूर करने लगे। मौलवी साहब जानना चाहते थे कि यह गाड़ी मुजफ्फरपुर होकर जाएगी या नहीं ?

“नहीं, आपको बरौनी उतरना पड़ेगा।” इतना कहने के बाद उन्होंने बड़ी चतुराई से जान लिया कि किस यात्री को कहाँ जाना है और कहाँ से आ रहे हैं। फिर रेलवे स्टेशन पर सूचना देनेवाले लाउडस्पीकर की तरह यानी उसी तर्ज पर बजने लगे-“मूंगेर जानेवाले यात्रियों को मानसी स्टेशन पर उतरना पड़ेगा।

जो लोग समस्तीपुर जा रहे हैं उन्हें मेल से जाना चाहिए। छपरा स्टेशन पर गाड़ी पन्द्रह मिनट रुकती है। यह गाड़ी कल ठीक दो बजे बनारस कैंट स्टेशन पर पहुँच जाएगी।”

इस व्यक्ति की 'घुलन-शक्ति” को देखकर मैं दंग रह गया। ऐसे ही आदमी को शायद “टमाटर-टाइप' का व्यक्ति कहते हैं-आलू, मटर, सेम, गोभी, मछली, मांस जिसमें जी चाहे मिला दीजिए, रंग और स्वाद दोनों चोखा। मैं जानता था कि “सूचना'-समाप्ति के बाद इन्हें फिर कचनारजी तथा उनकी “अबोली” की याद आएगी और तब इतमीनान से मुझे कहानी की “प्लौटिंग

अगला स्टेशन आया और वे खिड़की से गरदन निकालकर “एक आदमी” को ढूँढ़ने लगे। गाड़ी खुली तो बोले, “नहीं आया। अभागा है। सोचा था, मिल जाएगा तो आपसे मिला दूँगा। चलिए... ।”

वे बर्थ पर अब “अर्धासन' लगाकर, यानी एक पैर को मोड़कर, दूसरे को लंटकाकर, बैठ गए। फिर धोती को घुटने तक सरकाकर जाँघ पर इस तरह उँगलियाँ फेरने लगे मानो सितार के तार मिला रहे हों। मैंने समझ लिया, अब इनको इतमीनान हो गया।

किन्तु उनकी इस हरकत को देखकर बंगालिन मायजी ने अपनी पुत्री से कुछ कहा और मुँह फेरकर बैठ गई। मायजी के “कत्ता” ने, भद्र या अभद्र, सभ्य या “ओसोब्बो” किसी शब्द का उच्चारण करके मुँह को संकुचित किया।

ऊपर बर्थ पर लेटे सज्जन ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, “टेरिबल!” तब उनको हठात किसी बात की याद आई। सामने बैठे हुए मौलवी साहब ने पूछा, “आप लोग इन्हें नहीं पहचानते ?

इनसे परिचित नहीं ?

“न्हें' कहकर उन्होंने मेरी ओर इशारा किया। मौलवी साहब ने तस्बीह पर उँगलियाँ फेरते हुए नकारात्मक ढंग से गरदन हिलाई तो इन्होंने बंगाली बाबू से यही सवाल किया।

और हर बार एक ही जवाब सुनकर उनके चेहरे पर अचरज की रोशनी और कंठनली में ताज्जुब-भरी आवाज बढ़ती गई । जब ऊपर बर्थ वाले सज्जन ने भी "नहीं! कह दिया तो उनके मुँह से एक चीख-सी निकल पड़ी-“हद है, हद है!”

मैं उन्हें कचनारजी की 'अबोली' की याद दिलाकर अपनी ओर मुखातिब करना चाहता था।

किन्तु उनके सिर पर तो अचरज और दुख का पहाड़ गिर चुका था। बोले, “हद है! यानी आप लोगों को यह भी नहीं मालूम कि आपके साथ कितना बड़ा कवि यात्रा कर रहा है ?

धन्य हैं आप लोग और धन्य है हमारा यह भारत देश!” इस बार उन्होंने मेरी ओर देखा तो मुझे मौका मिला। मैंने कहा, “आप क्‍यों नाहक इस तरह परीशान...।”

नाहक परीशान?” उन्होंने कहा, “अरे, इतने बड़े कवि के साथ लोग बगैर जान-पहचान के मुफ्त में सफर करें और... ।”

बंगालिन मायजी के 'कत्ता' महाशय ने कुढ़कर कहा, “आपका बड़ा-कोबी को जामा पर एक नेमप्लेट लिखंकर टाँगाय लेने को बोलिए ना ?”

किन्तु मौलवी साहब ने शराफत से पूछा, “इनकी तारीफ ?”

“अजी साहब! तारीफ तो इनकी कविता सुनने के बाद आप खुंद कीजिएगा। पहचान लीजिए...देख लीजिए ए साहब...आप ही हैं प्रसिद्ध कवि श्री निर्शरणीजी, परिषालन' के लेखक...।”

यहाँ पर मैंने अपने तथा अपनी किताब के बिगड़े हुए नामों को सुधारने की बैष्झ की-'जी, निर्शरणी नहीं, मेरा नाम निर्झर है और किताब का नाम है, परिप्लावन...।

उन्होंने मुझे बीच में ही काटते हुए कहा, “एक ही बात है। आप कृपया चुप _ रहिए।...तो सुनिए साहब! इनकी कविता सुनिएगा तो आपका हृदय विगलित हो जाएगा। इनकी किताब पढ़िएगा तो आपका -कलेजा मुँह में आ जाएगा। समझे?” बंगालिन मायजी बोली, “तबे था बाबा। काज नेई एरकम कोबिता सुने ।” किन्तु डेली-पैसेन्जरी करनेवाले यात्री, दो-चार स्टेशन तक खड़े-खड़े सफर करने वाले नौजवानों ने फरमाइश शुरू कर दी-“तो हो जाए एकाध कविता ।...हम अपना . हृदय विगलितः करवाने को सहर्ष तैयार हैं।”

ऊपरवाले बर्थ पर सोए हुए सज्जन दक्षिण भारतीय थे। अतः उन्होंने मुझसे मेरी किताब के नाम का मंतलब अंग्रेजी में पूछा। और यहीं बात एक झटके के साथ दूसरी ओर मुड़ गई। मेरे मेहरबान ने घनंघोर विरोध के स्वर में कहा, “आप भी साहब खूब...

हैं। यह अपमान...!”

मैं कुछ कहूँ, इसके पहले ही कम्पार्टमेन्ट में भाषा और प्रान्त और जाति और सभ्यता तथा संस्कृति के नाम पर एंक “खंडयुद्ध की तैयारी शुरू हो गई। यदि बंगालिन मायजी बीच में नहीं पड़ेतीं तो .अन्ततः किसी का सिर “अखंड” नहीं बचता।

उन्होंने अपंने .कत्ता” महोदय कों समझाया-“मिछे-मिछे झगड़ा कोरे की लाभ? तुमी चुप थाको ।” फिर मेरे मित्र से बोलीं, “बाबा, जेतना भाषा है...सोब भालो भाषा है। आसंल चीज है-भालीबासा। लेड़ाई-झगड़ा करने से... |”

मेरे मित्र महोदय शायद 'भालोबासा' का मतलब समझते थे, इसलिए तुरत ठंडा हो गए। अब उनकी बोली बदल गई-“'माताजी! हामी भालोबासा का माने खूब भालो बूझी। बांगला-भाषा मधु से भी जास्ती मिस्टी आछे, किन्तु... ।''

किन्तु गाड़ी एक दूसरे जंक्शन-स्टेशन पर आकर लगी और बंगालिन मायजी अपने “कत्ता' और पुत्री के साथ उत्तर गई-“ए कम्पार्टमेन्टे थाका निरापद नेई ।”

डब्बे में नए यात्री आए और मेरे मित्र ने उन्हें मेरी ओर दिखलाकर पूछा-““आप पहचानते हैं?...नहीं ?...पहचान लीजिए, आप ही हैं... ।'

मैंने उन्हें बुलाकर नाराज होते हुए कहा, “आपने यह क्या शुरू किया है ?”

उन्होंने हाथ जोड़कर नग्नतापूर्वक कहा, “मैं अपना कर्तव्य-पालन कर रहा हूँ। आपकी नहीं, अपने साहित्य की सेवा कर रहा हूँ। आप कृपया चुप रहें। अच्छा, भोजन कीजिएगा तो? यहाँ भोजन बढ़िया देता है।”

मैं मना करता रहा। वह लपककर गए और दो थाल का ऑर्डर दे आए। भोजन करते समय उन्हें फिर कचनारजी की याद आई। मुँह का कौर चबाते हुए बोले, “कचनारजी कह रहे थे कि 'परिपालन' का यदि अंग्रेजी में 'टंसलेसन” हो जाए तो तुरत 'नौभेल पुरस्कार” मिल सकता है। तो क्यों नहीं करवा लेते हैं? अब तो “स्वदेसी नौभेल प्राइज” भी मिलने लगा है, लोगों को!”

जब बैरा बिल लेकर आया, वह पान लाने के लिए प्लेटफार्म पर चले गए थे। थोड़ी देर बाद साथ में एक कंडक्टर गार्ड और पैसेंजर साहब को लेकर लौटे और दरवाजे के पास से ही मेरी ओर ऊँगली दिखलाकर कहने लगे, “देखिए, कोई कह सकता है कि यही “परिपालन' के प्रसिद्ध कवि श्री निर्शरणीजी हैं! ऐसे ही लोगों को देखकर किसी शायर ने कहा होगा कि “इस सादगी पर कौन ना मर जाय ए खुदा... ।' है कि नहीं ?”

हालाँकि, साँझ के साढ़े सात ही बजे थे, किन्तु इनसे पिंड छुड़ाने का मुझे एक ही उपाय सूझा। मैं लम्बी तान सो गया। अब वे कम्पार्टमेन्ट के हर व्यक्ति को जोर से खाँसने और हँसने और बोलने से मना करने लगे-“सिः सिः! जोर से मत बोलिए। जानते नहीं, यह कौन सोए हैं? नहीं “मालूम” ? अजी, यही हैं... ।”

मेरे जी में अब बार-बार एक विचार जोर पकड़ने लगा कि उठकर उन्हें अंग्रेजी में अच्छी तरह डाँटकर झगड़ा मोल ले लूँ। किन्तु तुरन्त खयाल हुआ कि तब चुप रहने के बदले वह हर स्टेशन पर "मुर्दाबाद-जिन्दाबाद” के नारे लगाकर भीड़ जमा करने लगेंगे।

आखिर, गलत परिचय और झूठी तारीफ करते-करते जब वह थक गए, तो ऊपरवाले बर्थ पर जाकर सोने की तैयारी करने लगे। मौलवी साहब ने अपने लड़के को हिदायत दी-“म्याँ, जूते सिरहाने में रखकर सोओ।”

जब मेरे मित्र की नाक बजने लगी तो मैं उठ बैठा। बंगालिन मायजी से मुझे एक

प्रेरणा मिली थी। तय किया कि बरौनी जंक्शन स्टेशन पर चुपके से उतर जाऊँगा। फिर सुबह किसी गाड़ी से पटना... । गाड़ी बरौनी पहुँची। (उन दिनों राजेन्द्र पुल नहीं बना था ) मैं चुपचाप अपना बिस्तर और बैग लेकर गाडी से उतर पड़ा | उतरते समय मेरा कलेजा धड़क रहा था कि यदि इनकी नींद टूट गई तो फिर खैर नहीं | जब गाड़ी चल पड़ी तो मेरी अवस्था सहज हुई। वेटिंग-रूम के एक कोने में बिस्तर बिछाकर लेटा तो महसूस किया कि अब जाकर दिल और दिमाग सही-सही काम कर रहे हैं।

कोई मधुर-मनोहर-सा सपना देख रहा था कि किसी ने झकझोरकर मुझे जगा दिया। आँखें खोलकर देखा : सुबह की सुनहली धूप के साथ ताम्बूल-रंजित दन्त-पंक्तियों से छनकर आती हुई मेरे मित्र की मुस्कुराहट चारों ओर बिछी हुई है। मैं आँखें मलने लगा, शायद सपना हो। मगर फिर आँखों को खोलकर देखा-नहीं सपना नहीं। यह वही अपना...।

वे ठठाकर हँस पड़े-“हैं-हें! आप भी खूब हैं! बरौनी को सोनपुर समझकर उतर गए ? है न ? उधर सोनपुर में मेरी आँख खुली तो मंद्रासी ने कहा-आपका ग्रेट-पोयट तो उधर में ही उतर गया। सो लौटती गाड़ी से आ गया कि आपको कहीं कोई कष्ट नहो।

मैं हड़बड़ाकर उठा। बिस्तर समेटकर बगल में दबाया और वेटिंग-रूम के बाहर भागा। सामने खड़ी गाड़ी सीटी देकर खुल चुकी थी। जो डब्बा सामने मिला, उसी में सवार हो गया। किन्तु मेरे मित्र चलती गाड़ी पर सवार होने में मुझसे ज्यादा माहिर थे। वे बोले, “मगर यह गाड़ी तो उधर ही जा रही है, जिधर से हम आए हैं।”

मैंने कुढ़कर कहा, “जी हाँ, उधर ही जाना है।”

“क्या? पटना नहीं जाइएगा? हें-हें...मैं समझ गया। कवियों के मूड का क्या ठिकाना, जब जिधर जी चाहा, चल दिए। है न ?”

मैंने कहा, “जी हाँ। मगर आप तो महाकवि मालूम पड़ते हैं!”

वह दाँत निपोड़कर बोले-“आखिर एक दिन और एक रात के बाद ही सही, आपने मुझे सही-सही पहचाना तो। हें-हें...यदि महाकाव्य लिखनेवाले को महाकवि कहते हैं तो...मैंने हाल ही में एक महाकाव्य लिखकर समाप्त किया है।”

मैं अवाक्‌ होकर उनकी ओर देखने लगा तो वे तनिक दुख और नाराजगी जाहिर करते हुए रुआँसी आवाज में बोले, “मैं कल से ही आपकी प्रशंसा करता रहा, सभी अपरिचितों को आपका परिचय देता रहा। किन्तु आपने एक बार भी मुझसे मेरा परिचय तक नहीं पूछा!”

टाट की झोली से उन्होंने एक मोटी कापी निकाली-“यह रहा मेरा महाकाव्य। यों इसे कचनारजी को समर्पित करना चाहता था, किन्तु वह तो 'उपनियाँस-लेखक हैं, सो भी लघु-उपनियाँस-लेखक...अब आप मिल गए हैं। तो यह आपके ही कर-कमलों में सादर... |”

मैंने कापी अर्थात्‌ उनके महाकाव्य को हाथ में लेकर देखा। मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था-गुनगुनायन...एक बेतुकांत महाकाव्य...रचीता...श्री मैंरों प्रसाद 'भौंरा ।' उन्होंने मेरे हाथ से कापी लेकर मौखिक भूमिका शुरू की-“यों देखने में तो यह बेतुकांत छन्द में बद्ध रचना-सी लगती है...एक सर्वथा नवीन प्रयोग, कि हर शब्द पर यानी हर अक्षर पर अनुस्वार लगाया गया है।

किन्तु काव्य और छन्द गुनगुनाने के लिए इससे बढ़िया टटका प्रयोग क्‍या हो सकता है ?

सुनिए-

हँर कलीं में सो रहाँ हैं भौरें का मँँधुर गॉन-

आँज मैं जँगा रहाँ हूँ दुँपत ताँन गुँप्त गान

यनयुनयुन मँधुर-मँधुर अँगर मेरें गींत सुनों

संमर कों हों जाँओं तैयार देश के जेँवान।”

मैंने देखा, महाकवि “भौंरा' के मित्रों. का दायरा काफी लम्बा-चौड़ा है। टिकट-कलक्टर से लेकर डाइनिंग कार के बैरे-बावर्ची तक उनकी कविता के प्रेमी हैं।

अगला स्टेशन आते - आते एक “रनिंग-कवि-गोष्ठी' जम गई और रास्ते-भर उनके “गुनगुनायन' का सानुनाषिक - पाठ श्रावंण करता हुआ जहाँ से चला था, वहीं वापस आ गया।

लेकिन यह कैसे कहूँ कि इस यात्रा में मुझे कुछ लाभ नहीं हुआ ?