रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं -
हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं।
बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, जहाँ सारे रानीडिह गाँव की कुमारी-कन्याएँ कचर-पचर नृत्य-गीत-अभिनय कर चुकी हैं।
रात में शामा-चकेवा “भँसाया” गया है...प्रतिमा-विसर्जन!
श्यामा, चकवा, खंजन, बटेर, चाहा, पनकौआ, हाँस, बनहाँस, अधँगा, लालसर, पनकौड़ी, जलपरेवा से लेकर कीट-पतंगों - में भुनगा, भेम्हा, अँखफोड़वा, गन्धी, गोबरैला तक की मिट्टी की छोटी-छोटी नन्हीं-नन्हीं मूर्तियाँ गढ़ीं गई थीं, रँंगी गई थीं।
दो रात-तक उन्हें ढेलेवाले खेतों में चराया गया अर्थात् उनकी पूजा की गई।
रात बिरनाबन (वृन्दावन) जले हैं-सैकड़ों। हजारों चुंगलों के पुतले! पुतलों की शिखाएँ जली हैं - घर-घर में तू झगड़ा लगावे, बाप-बेटा से रगड़ा करावे; सब दिन पानी में आगि लगावे, बिनु कारन सब दिन छुछुवावे-तोर टिकी” में आगि लगायब रे
चुगला...छुछुन्दरमहें...मुँहझौंसा ..चुगले...हाहाहाहा!सैकड़ों लड़कियाँ की खिलखिलाहट! तालियाँ!
तारे झरें, पायल झनके। हुंस्नहिना के गुच्छों ने लम्बी साँस ली। रात भीग गई...।
धरती पर बिखरे अक्षत -सिन्दूर। दूबों पर बिखरे मोती के दाने।...छोटे-छोटे इन्द्रधनुषों के टुकड़े!
अचानकं, एक चील ने डैना फड़फड़ाया। सभी चिरैयाँ एक साथ भड़ककर उड़ीं। गौरैयों की विशाल टोली सरसों के खेत में जा बैठी।
बहुत दिनों के बाद-कोई पाँच बरस के बाद-धूमधाम से 'शामाचकेवा” पर्व मनाया है रानीडिह की कुमारियों ने।
एक चदरी-भर सरदी पड़ गई। अगहनी धान के खेतों में अब हलकी लाली दौड़ गई है अर्थात् अब दानों में दूध सूख रहा है। आलू के पौधों में पत्तियाँ लग गई हैं। सुबह-सुबह गोभी की सिंचाई कर रहे हैं, सभी।
“बिजैयादि! तू इतना सबेरे “कोबी' जो पटाती हो, सो बेकार ही ना? तू तो अब पटना में रहेगी... ।”
“चुप हरजाई!” गंगापुरवाली दादी ने चिढ़कर चुरमुनियाँ को झिड़की दी, ''दिन-भर बेबात की बात बकबक करती रहती है यह रत्तीभर की छौंडी ।”
चुरमुनियाँ, रत्ती-भर की छोकरी चुप नहीं रही।
आँखें नचाकर, होंठों को बिदकाकर बोली, “हूँह! तोरे तो मजा है।
कोबी रोपकर पटा रही है बिजैयादि और टोकरी भर-भरके फूल बेचेगी तू।
और जब हिसाब पूछेगी पटना से आकर मलकिन-काकी तो...तो...ई ऊँगली तोड़ना, ऊ उँगली मोड़ना मगर भूलल हिसाब कभी न जोड़ना... हिहिहिहि... !'
दादी ने इस बार एक गन्दी गाली दी।
गाली सुनकर चुसमुनियाँ ने विजया की ओर देखा। विजया शुरू से ही मुस्कुरा रही थी। इस काली-कलूटी लड़की की मीठी शैतानी को वह खूब समझती है।
जहर है यह छोकरी! लछमन की पोती !
गंगापुरवाली दादी को चुरमुनियाँ की बात लगी नहीं, किन्तु वह नकियाकर कुछ बोली। चुरमुनियाँ ने समझ लिया।
बोली, “क्यों दादी, मैं झूठ कहती हूँ ?
बेचारी गंगापुरवाली दादी, जो गंडा से आगे गिनती न जाने, उससे मलकिन-काकी पूछेगी, 'पाँच टके सैकड़ा के दर से डेड़ सौ बीजू आम का दाम ?
हे-हे-ए-हा-हा-हा बस; दादी को तो “आकाशी' लग गई-ही-ही-ही-ही !
विजया बोली, “जल्दी-जल्दी हौज भर दे।”
आठ-नौ साल की इस लड़की से पार पाना खेल नहीं। विजया को छोड़कर उससे और कोई काम नहीं ले सकता, उसकी माँ भी नहीं । बाप को तो वह बोलने ही नहीं देती कुछ।
जब से विजया रानीडिह आई है, चुरमुनियाँ दिन-रात “बड़घरिया” हवेली में ही रहती है।
कल चुरमुनियाँ कह रही थी, “बिजैयादि, तू आई है तो लगता है रानीडिह गाँव में कोई परब-त्योहार!...माने...ठीक देवी-दुर्गा के मेला के समय जैसा लगता है वैसा ही लगता है।
अब तो तुम भी ठीक खरगेंट' (खंजन) चिरैया की तरह साल में एक बार आओगी, जैसे मलकिन-काकी आती है।...अब तुम भी शहर में जाकर “चोंचवाली अँगिया” पहनोगी ।
“लात खाएगी अब तू।” दादी ने साग खोंटते चेतावनी दी, “है तनिक भी बड़े-छोटे का लिहाज इस छिनाल को ?
दादी बीच-बीच में बाल पकड़कर घसीटती-पीटती भी है, और उस दिन सारे गाँव में कुहराम मच जाता है; चुरमुनियाँ किसी राख के घूरे में लोट-लोटकर एकदम “भूतनी” हो जाती है और उसके मुँह से छन्दबद्ध पंक्तियाँ - 'रुदनगीत” की-अनायास ही निकलती रहती हैं “री ई-ई बुढ़िया गंगपरनी, बड़घरिया की घरनी, हमरो सौतिनी ई-ई बिना रे करनवा हमरा मारलि गे-ए-बुढ़िया गंगपरनी - ई-ई” लड़की तो नहीं, एक “अवतार” है, समझो।
गंगापारवाली दादी की मुस्कुराहट पोपले मुँह पर देखने योग्य होती है।
हँसती हई था है, “जानती है बिजै, भागलपुरवाली को इस निगोड़ी ने कैसा 'बेपानी' किया थे गगापुरवाली दादी ने मद्धिम आवाज में कहा, “भागलपुरवाली उस बार आई भादों में।
एक दिन 'बक्कस' से कपड़ा निकालकर धूप में सुखाने को दिया।
कपड़ों को पसारते समय यह लौंगी-मिर्च-छौंड़ी' अचानक चिल्लाने लगी-ले ले लाला... जर्मनवाला, बड़वाला...गेंदवाला...चोंचवाला...।
मैंने ऑँककर देखा, बाँस की एक कमानी में भागलपुरवाली की “अँगिया” लटकाए चुरमुनियाँ नचा-नचाकर चिल्ला रही उधर, दरवाजे पर दरवाजा - भर पंचायत के लोग... भागलपुरवाली जलती “उकाठी! लेकर दौठी थी” लोग ।
भागलपुरवाली जलती “उकाठी गंगापुरवाली दादी के साथ विजया भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई। आठ बजेवाली गाड़ी आने से पहले ही गोभी की सिंचाई हो गई। बाल्टी-लोटा-डोरी लेकर चुरमुनियाँ के सांथ विजया भाजी कि बगिया से बाहर आई। इस बार चुरमुनियाँ अपने झबरे बालों में उँगली चलाते हुए बोली, “बिजैयादि, सचमुच कल ही चली जाओगी ?
धेत्त...मत जाओ बिजैयादि!”
इस बार विजया ने एक लम्बी साँस ली।
“बड़घरिया हवेली” पहले यही अकेली हवेली थी।
पहले सिर्फ 'बड़घरिया” कहने से ही लोग समझ लेते थे-रानीडिह का चौधरी-परिवार अब “हवेली” जोड़ना पड़ता है, क्योंकि रानीडिह में अब एक नहीं, कई “बंड़घरिया' हैं।
बड़घरिया हवेली के एकमात्र वंशधर श्री रामेश्वर चौधरी एम.एल.ए. पिछले कई वर्ष से/पटना में ही रहते हैं, सपरिवार।
दूर-रिश्ते की एक मौसी यानी गंगापारवाली दादी बड़घरिया हवेली का पहरा करती है। हलवाहा सीप्रसाद खेती-बारी देखता है। लोग उसे “'मनीजर” कहते हैं। मखौल में रखा हुआ नाम ही अब “चालू” हो गया है, सीप्रसाद का-“मनीजर'
'छिटपुट जमीन” यानी आधीदारी पर लगी हुई जमीनों की हर साल बिक्री करके रामेश्वर बाबू अब “निम्ंझट” हो गए हैं; ख़ुदकाश्त में थोड़ी-तसी जमीन है, पोखर और बाग-बगीचे हैं।
जिस दिन कोई बड़ा गाहक लग जाए, बेचकर छुट्टी। छुट्टी माने, इस रानीडिह गाँव से, अपनी 'जन्मभूमि” से कोई लगाव-किसी तरह का सम्बन्ध नहीं रखना चाहते रामेश्वर बाबू।
मजबूरी है! पिछले पन्द्रह साल से रामेश्वर बाबू पटना में रहते हैं-पटना के एम. एल. ए. क्वार्टर में। अब राजेन्द्रगगर में घर बनवा रहे हैं। इस बार सम्भव है, 'पार्टी-टिकट! नहीं मिले।
किन्तु, अब गाँव रानीडिह लौटकर नहीं आ सकते। किसी गाँव में अब नहीं रह सकते... !
स्वर्गीय बड़े भाई सिद्धेश्वर चौधरी की विधवा की हाल ही में मृत्यु हो गई।
बड़े भाई की एकमात्र संनातन विजया, जो अपनी माँ के साथ पिछले सात-आठ साल से मामा के घर थी, सोलहवाँ साल पार कर रही है।
विजया के बड़े मामा ने कड़ी चिट्ठी लिखी विजया के काका को इस बार - जिनके त्याग और बलिदान का मीठा फल आप खा रहे हैं उनकी स्त्री को तो झाड़ू मारकर ऐसा निकाला कि... ।
खैर, वह मरी और दुख से उबरी। लेकिन, आपका 'सिरदर्द' दूर नहीं हुआ है।
अभी आपको थोड़ा और कष्ट भोगना बाकी है।
विजया अब ब्याहनें के योग्य हो गई।
यदि आप मेरे इस प्र पर ध्यान नहीं देंगे तो मुझे मजबूर होकर आंपकी पार्टी के प्रधान को लिखना पड़ेगा!
इस बार दुर्गपूजा की छुट्टी में रामेश्वर बाबू अपनी स्त्री (भागलपुरवाली) के साथ रानीडिह आए।
नारायणगंज आदमी भेजकर विजूसा को बुलवा लिया।
काली-पूजा के बाद जब पटना वापस आने लगे तो गंगापुरवाली ने कहा, “बिजै यहाँ दस दिन और रहकर 'साग-भाजी' लगा जाती। फिर भागलपुरवाली बहू तो धान कटाने के लिए एक महीना के बाद आवेगी ही।
उसी के साथ जाएगी!”. कर रामेश्वर बाबू को बात पसन्द आई। कहा, “ठीँकू है। “'नवान्ष्न' के बाद हीं विजया जाएगी, पटना ।
लेकिन परसों चिटूठी आई है-धान कटाने के लिंए इस बार नहीं आ सकती। मकान बन रहा है।
दिन-रात मजदूरों के सिर पर सवार रहना पड़ता है। अगले सप्ताह “ढलैया” शुरू होगी। इसलिए “शामा-चकेवा” के बाद विजया अपने छोटे मामा के साथ चली आवे पटना...जरूर-से-जरूर... ।
आज शाम तक विजया के छोटे मामा नारायणगंज से आ जाएँगे। कल गाड़ी से विजया पटना चली जाएगी।
के चुरमुनियाँ अपने घर का बस एक काम करती है।
साँझ को पूरब-टोले के साहू की दूकान से सौदा ला देती है-मकई, चना, नून, तेल, बीड़ी।
हिसाब जोड़ने में कभी एक पाई भी गलती नहीं करती। अपने दादा-दादी से ज्यादा हिसाब जानती है वह।
साहू की दूकान पर होनेवाली “गप! में चुरमुनियाँ “रस” डाल देती है-“अब बिजैयादि भी चली जाएंगी। कल ही जाएगी।”
“और गंगापुरवाली ?”
ऊ चली जाएंगी तो यहाँ कलमी आम का “बगान” कौन 'जोगेगी” रात-भर जगकर ?
चुरमुनियाँ की बात सुनकर सभी हँसे। रामफल की घरवाली ने पूछा, “और तुझे नहीं ले जा रही बिजैया ?”
“धेत्त! मैं क्यों जाऊँ ?”
सच्चिदा पाँच पैसें का कपूर लेने आया था। विजया के कल हीं जाने की खबर सुनकर स्तब्ध रह गया।
उज़ड़े हुए हिंगना-मठ पर खंजड़ी बजाकर सतगुरु का नाम लेनेवाला एकमात्र बाबाजी सूरतदास बैरागी कहता है, “सभी जाएँगे। एक-एक कर सभी जाएँगे... ।'
गाँव की मशहूर झगड़ालू औरत बंठा की माँ बोली, “ई बाबाजी के मुँह में 'कुलच्छन” छोड़कर और कोई बात नहीं।
जब सुनो तब-सभी जाएँगे! जब से यह बानी बोलने लगा है बूढ़ा बाबाजी, गाँव के 'जवान-जहाज' लड़के गाँव छोड़कर भाग रहे हैं।
पता नहीं, शहर के पानी में क्या है जो एक बार एक घूँट भी पी लेता है फिर गाँव का पानी हजम नहीं होता। गोबिन गया, अपने साथ पंचकीड़िया और सुगवा को लेकर। उसके बाद, बाभन-टोले के दो बूढ़े अरजुन मिसर और गेंदा झा... ।”
रामफल की बीवी ने बीच में ही बंठा की माँ को काट दिया, “अरजुन मिसर और गेंदा झा की बात कहती हो, मौसी ?
तो पूछती हूँ कि गाँव में वे दोनों करते ही क्या थे ?
'बिलल्ला' होकर इसके दरवाजे से उसके दरवाजे पर खैनी 'चुनियाते” और दाँत निपोड़कर भीख माँगते दिन काटते थे। अब श्वहर में जाकर 'होटिल' में भात राँधते हैं दोनों। पिछले महीने अरजुन मिसर आया था। अब बटुआ में पनडब्बा और सुर्ती रखता है। तोंद झिकल गया है।”
“तो तू भी रामफूल को क्यों नहीं भेज देती? तोंद निकल जाएगा।”
किसी ने कहा, “एह! सभी जाकर शहर में 'रिश्कागाड़ी' खींचते हैं। हे भगवान! अन्धेर है।”
जवाब मिला, “क्यों ?
रिक्शा खींचना बहुत बुरा काम है क्या? पाँच रुपए रोज की कमाई यहाँ किस काम मैं होगी, भला ?”
सभी ने देखा, कैवर्तटोलीका सच्चिदा, जो पाँच पैसे का कपूर लेने आया था, पूछ रहा'है, “बताइए ?
किसी ने कोई जवाब नहीं दिंया।
सच्चिदा चला गया तो चुरमुनियाँ ने होंठ बिदकाकर कहा, “इसके भी पंख फड़फड़ा रहे हैं।...ई भी किसी दिनठड़ेगा। फुर्र-र!”
हँहँहैहैँ! बहुत देर से रुकी हँसी छलुंक/पड़ी । लोग बहुत देर तक उसकी बात पर हँसते रहे। चुरमुनियाँ की दादी पुकारने लगी, “अरी ओ चुरमुनियाँ!”
रात में चुरमुनियाँ बड़घरिया-हवेली में ही सोती है, गंगापुरवाली दादी के साथ। दादी सुबह-शाम चाय पीती है और चुरमुनियाँ को चाय की आदत पड़ं गई है। आज रविवार है। आज रात में दो बार चाय पियेगी, गंगापुरवाली दादी।
लेकिन आज चाय पीने का जी नहीं होता। चुरमुनियाँ चुपचाप अपनी कथरी में सिमट-सिकुड़कर अँगीठी पर चढ़ी केतली में पानी की 'गनगनाहट” सुन रही है। दादी ने दिल्लगी के सुर में पूछा, “आज तुमको किसका “बिरह-बिजोग” सता रहा है जो इस तरह... ?”
चुरमनियाँ चिढ़ गई, “मुझे अच्छी नहीं लगती तुम्हारी यह बानी
'पो-है! अच्छी बानी की नानी रें। आखिर तुमको हुआ क्या है ?”
क्या जवाब दे चरमनियाँ!
सभी, एक-एक कर गाँव छोड़कर जा रहे हैं। सच्चिदा भी चला जाएगा तो गाँव की 'कबड्डी' में अकेले पाँच जन को मारकर दाँव अब कौन जीतेगा ?
आकाश छूनेवाले भुतहा-जामुन के पेड़ पर चढ़कर शहद का 'छत्ता” अब कौन काट सकेगा ? होली में जोगीड़ा और भड़ौआ गानेवाला-अखाड़े में ताल ठोकनेवाला...सच्चिदा भैया!
पिछले साल से होली का रंग फीका पड़ रहा है। आठ-नौ साल की चुरमुनियाँ की नन्ही-सी जान, न जाने किस संकट की छाया देखकर डर गई है। क्या रह जाएगा ?
चुरमुनियाँ गा-गाकर रोना चाहती है करुण सुर में-एक-एक पंक्ति को जोड़कर गाकर रोना जानती है, वह। धीमे सुर में उसने शुरू किया-'आ गे मइयो यो यो...
गंगापुरवाली दादी ने झिड़की दी, “ऐ-हे। ढँग देखो इस रत्ती-भर छिनाल का। नाक से रोने बैठी है भरी साँझ की बेला में। उठ, जाके देख बिजै काहे पुकार रही है।”
“गोलपारक क्या, भैया ?”
गाँव के नौजवानों के तन-मन में 'फुरहरी' लग रही है, फुलकन की शहरी-गप सुनकर। मजेदार गप! इस गप में एक खास किस्म की गन्ध है-फुलकनी के “बाबड़ी-केश' से जैसी गन्ध आती है, ठीक वैसी ही।
फुलकन फुलझड़ी उड़ा रहा है, “रजिन्नरनगर ?
अब उसके बारे में कुछ मत पूछो, भैयो! साला, ऐसा सहर कि लगता है कि धरती फोड़कर “गोबर छत्ते” की तरह रोज मकान उगते जा रहे हैं।
होगा नहीं भला ? वहाँ कोई भी काम हाथ से थोड़ो होता है ? सुर्खी कुटाई से लेकर सिमटी-सटाई और चुना-पुताई-सबकुछ “मिशिन” से। बाल कटाने जाओ तो नाई एक ऐसा “'मिशिन' लगा देगा कि चटपट हजामत खत्म ।...दस कदम पर एक-एक गोलपारक... ।”
“गोलपारक क्या, भैया ?”
“अब क्या बतावें कि गोलपारक क्या है और कैसा होता है ?
वह देखने पर ही समझोगे। मुँह की बोली में उतने किस्म का रंग कहाँ से लावेंगे ?
समझो कि 'सीकी' की एक बहुत बड़ी सतरंगी 'डलिया” धरती पर रखी हुई है।
जब साँझ को लम्बे-लम्बे 'मरकली' के डंडे छटाक-छटाक कर जल उठते हैं और सौँझ के झुटपुटे में ठंडी-ठंडी हवा खाती हुई अंधनंगी लड़कियाँ...लड़की तो नहीं, समझो कि
'फिलिंइस्टार'...।”
“फिलिं...क्या... ?”
| कप ! फिलिंइस्टार भी नहीं समझते? अरे, पिक्चर की लड़की रे, पिक्चर की !”
“पिक्चर ?”
“अब तुम लोगों को क्या समझावें!.. माने, सिनेमा की छापी की लड़की समझे ?'
पिक्चर की लड़की, छापी की लड़की ?” क्या-क्या बोलता है, फुलकन ? क्या था और क्या से क्या होकर लौटा है! गाँव के नौजवानों की देह कसमसाने लगतीं है। फुलकन पटना में, 'रिश्कागाड़ी' खींचता है।...खींचता नहीं है, 'डलेवरी” करता है। फुलकन रिश्का-डलेवर है।
“अच्छा! रिश्का - डलेवरी कितने दिनों में सीखा जा सकता है ?”
'सिखानेवाला उस्ताद हो और सीखनेवाला 'जेहन' का तेज हो तो तीन ही दिन में हैंडिल” थिर हो जा सकता है।...असल 'चीजवा' है 'हैंडिल'!”
“गाँव के लड़कों ने लक्ष्य किया, फुलकन खास-खास बात में 'वा' लगाकर बोलता है-टिकटिवा, कगजवा, बतवा, चीजवा।
फुलकन ने अब पॉकेट से छापियों' का लिफांफा निकाला, “और देखो देखनेवालो...”
“ऐ हे! बाप...!”
फिलिं की छापी की तसवीर की लड़की ?”
“अँय! राह-घाट में इसी तरह “कच्छा-लँगोट' पहनकर चलती है ? कोई कुछ कहता नहीं ?
सभी “लहेंगड़े-लौडों' के सिर पर छापियाँ नाचने लगीं। नाचती रहीं।...रात में, सपने में भी छापी की लड़कियाँ नाचती रहीं और एकाध को “भरमा” भी गईं।
विजया को अचरज होता है! गाँव खाली होने का, गाँव टूटने का जितना दुख-दर्द इस छोटी-सी चुरमुनियाँ को है, उतना और किसी को नहीं। विजया इस गाँव में सात-आठ साल के बाद आई है तो क्या? है तो इस गाँव की बेटी।
जब से पटना जाने की बात तय हुई है, अन्दर-ही-अन्दर वह फूट रही है...रजनीगन्धा के डंठलों की तरह। वह पटना नहीं जाना चाहती। वह इसी गाँव में रहना चाहती है।...बाबूजी की याद आती है, माँ की याद आती है। मिल-जुलकर आती है। कलेजा टूक-टूक होने लगता है तो इमली का ल्क बूढ़ा पेड़, बाग-बगीचे, पशु-पंछी सभी उसे ढाढ़स बँधाते हैं। एक अदृश्य आँचल सिर पर हमेशा छाया रहता है।
यहाँ आते ही लगता है, बाबूजी बाग में बैठे हैं, माँ रसोई-घर में भोजन बना रही है। इसीलिए, मामा का गाँव-धर कभी नहीं भाया उसे। अपने बाप के 'डिह” पर वह
टूटी मड़ैया में भी सुख से रहेगी। लेकिन...। “बिजैयादि !'
क्र 'चुर्मुनियाँ ने आज चोरी पकड़ ली, शायद! विजया जब से आई है, रोज रात में चुपचाप रोती है। रोज सुबह उठकर तकियै .का गिलाफ बदल देती है।
“बिजैयादि?” चुरमुनियाँ अब उठकर बैठ गई। गंगापुरवाली दादी करवट लेती हुई बड़बड़ाई, “क्यों गुल मचाकर जगा रही है, नाहक ?
विजया ने कनखी-नजर से देखा, चुरमुनियाँ सोई हुई गंगापुरवाली दादी का मुँह चिढ़ाती, होंठों को बिदकाकर।
इसका अर्थ होता है, 'तुमको क्या ? दो बार 'चाह' पी चुकी हो। यहाँ बिजैयादि कल से ही अन्न-पानी छोड़कर पड़ी हुई है।'
विजया ने देखा, चुरमुनियाँ उठकर बाहर गई। आकाश के तारों को देखा। फिर बड़बड़ाती अन्दर आई, “इह, अभी बहुत रात बाकी है”...
चुरमुनियाँ आकर विजया के पैताने में बैठ गई- और धीरे-धीरे उसके पैरों को सहलाने लगी।
“इस लड़की ने तो और भी जकड़ लिया है, माया की डोर से। उसने पैर समेटकर कहा, “खह क्या कर रही है ?
चुरमुनियाँ हँसी; “थीं तो जगी हुई ही। फिर जंवाब क्यों नहीं दिया ?”
“तुझे नींद नहीं आती ?”
चुरमुनियाँ ने गंगापुरवाली दादी की ओर दिखलाकर इशारे से कहा, “दादी की नाक इस तरह बोलती है मानो 'अरकसिया” आरा चला रहा हो"...
विजया को हँसी आई। उसने डॉट बताई, “क्यों झूठ बोलती है? दादी की नाक आज एक बार भी नहीं बोली है!” . . . ।
“तुम जगी नहीं थीं तो तुमने जाना*कैसे?” चुरमुनियाँ जीत गई। “जानती है बिजैयादि ? लगता है, सच्चिदा भी अब सहर का रास्ता पकड़ेगा।...जाओ भाई, सभी जाओ। यहाँ गाँव में क्या है? सहर में बोयस्कोप है, सरकस, सलीमा है... ।”
“सोने भी देगी?” विजया का जी हलका हुआ थोड़ा।
“नहीं ।
“कल रात से तो और तुमको नहीं पाऊँगी। आज रात-भर सताऊँगी।”
कुछ देर तक चुप्पी छायी रही। दोनों ने लम्बी साँस ली।
“बिजैयांदि ?” चुरमुनियाँ सटकर सो गई।
“क्या है रे ?”
“सहर के दुल्हे से सादी मत करना। विजया ठठाकर हँसना चाहती थी। उसने बहुत मुश्किल से अपनी हँसी को जब्त
करके पूछा, “सो क्यों? शहर के लोगों ने तेरा क्या बिगाडा है ?”
“मेरा क्या बिगाड़ेगा कोई!
“तो, किसका बिगाड़ेगा ?”
'तुम्हारा...बिजैयादि ? तू सादी ही मत करना । वे लॉग तुमको कभी फिर इस
गाँव में नहीं आने देंगे।”क्यों
“जब गाँव का आदमी ही गाँव छोड़कर सहर भाग रहा है तो सहर का आदमी अपनी “जनाना' 'को गाँव आने देगा भला ?”
“मुझे बाँध रखेंगे क्या ?”
“हाँ, बाँधकर रखेंगे। कमरे में बन्द करके ।”
गंगापुरवाली दादी उठकर बैठ गई और 'जाप! करने लगी। दोनों चुप हो गईं।
गंगापुरवाली दादी बाहर गई। विजया ने देखा, चुस्मुनियाँ सो गई है। वह धीरे-धीरे उसके झबरे बालों पर हाथ फेरने लगी।
सुबह उठकर बाहर निकलते ही चुरमुनियाँ चिल्लाई, “देख-देख बिजैयादि, 'लीलकंठ” देख लो!”
गोढ़ी-टोले से एक जिन्दा मछली ले आई चुरमुनियाँ और मिट्टी के बर्तन में पानी डालकर सामने रख दिया। फिर गाँव से उत्तर, बाबा जीन-पीर के थान की मिट्टी लाने गई। सुबह से ही वह काम में मगन है, चुपचाप | विजया के मामा ने कई बार छेड़कर चिढ़ाने- की चेष्टा की।
विजया ने भी कई बार चुटकीं ली। मगंर वह चुप रही । आज वह गंगापुरवाली दादी की गालियों का न जवाबःदेती है और न होंठों को बिदकाकर मुँह चिढ़ाती है।...कल कह रही थी, “जानती है बिजैयादि, “तुम चली जाओगी तो कल से दादी गाली भी नहीं देगी। दिन-रात्र मुँह फुलाकर बैठी रहेगी या आँख मूँदकर जाप क़रेगी।”
दोपहर को जब विजया के मामा भोजन करने बैठे तो चुरमुनियाँ ने मुँह खोला, “मामा, बिजैयादि को .भी अपने सामने बैठकर खाने को कहिए। कल से ही मुँह में...कुछ नहीं ।
लगा, बालू का बाँध अरराकर टूट गया है। फफककर फूँटकर रो पड़ी चुरमुनियाँ, बिजैयादि यहाँ से...भूखी-प्यासी...जाएगी ई-ई-ई!
चुरमुनियाँ की बरसती हुई, लाल-लाल आँखों में विजया ने कुछ देखा और वह सिहर पड़ी ।...रोते-रोते मर जाएगी यह लड़की।
उसने रुँधे हुए गले से चुरमुनियाँ को समझाना शुरू किया; “चल! पहले उठकर नहा ले! मैं तुम्हेरे साथ ही बैठकर खाऊँगी। उठ!
विजया के मामा को अचरज हुआ। आज तक विजया ने किसी बच्चे-बच्ची को इस तरह दुलार-भरे सुर में नहीं पुचकारा। वे जल्दी-जल्दी भोजन करके बाहर दालान पर चले गए।
विजया ने चुरमुनियाँ को नहलाया-धुलाया । गंगापुरवाली दादी ने बाहर निकलकर कई भदूदी गालियाँ दीं। किन्तु आज उसकी गाली सुनकर भी चुरमुनियाँ रोती है।... कल से दादी गाली देना भी बन्द कर देगी।
खाने के समय विजया' ने टोका, “पेट भरकर खा।”
चुरमुनियाँ बोली, “मैं भी वही कह रही थी तुमसे ।”
फिर दोनों हँस पड़ीं। हँसते-हँसते रोने लगीं।
बाहर मामा ने सूचना देने के लहजे में कहा, “तीन बज रहे हैं ।” अर्थात्, अब दो घंटे और। साढ़े छह बजे की गाड़ी पकड़ने के लिए पाँच बजे ही घर से निकल पड़ना होगा।
चुरमुनियाँ बोली, “जमराज!”
विजया हँसते-हँसते लोट-पोट हो: गई ।...मन की बात कही है चुरमुनियाँ ने।
देखते-ही-देखते सूरज ढल गया। अब, एक घंटा और!
सामान वगैरह बाहर दालान में भेजकर विजया ने चुरघुनियाँ को 'पूजा-घर' में पुकारा। गंगापुरवाली दादी रसोईघर में पकवान छान रही थी। चुरमुनियाँ अन्दर गई।
“देख चुरमुन, इधर आ। इस घर,में रोज झाड़-लेपन, साँझ-धूप बाती देना मत भूलना ।”
“तुमको कहना नहीं होगा। मैं घर के 'देवता-पित्तर' से लेकर गाँव के देवता-बाबा जीन-पीर के थान में रोज झाड़ू-बुहारी दूँगी-यह मनौती मैंने की है कि हे मैया गौरा पारबती !...कि हे बाबा जीन-पीर...हमारी बिजैयादि को कोई सहर में बाँधकर नहीं रखे ।...जिस दिन तू लौटकर आएगी; मैं देवी के” गहवर' में नाचूँगी...सिर पर फूल की डलिया लेकरं। तू लौट आवेगी तो सब कोई लौटकर आवेंगें। भूले-भटकें, भागे-पराए- सभी आवेंगे। तू नहीं आएगी तो इस गाँव में अब धरा ही क्या हैं? जो भी है, वह भी एक दिन नहीं रहेगा। सिर्फ गाँव की निसानी, घरों के डिहं...” ..
“नहीं चुरमुन, ऐसी बात मत बोल”
“तो, सत्त करो। मेरी देह छूकर कहो... ।”
चुरमुनियाँ अपलक नेत्रों से विजया को देखती रही। विजया भी उसकी आँखों में डूब गई, “चुरमुन, मैं शहर में नहीं रह सकूँगी। मैं लौट आऊँगी। यहीं जीऊँगी यहीं मरूँगी।...।'”
“नः नः, 'जातरा” के समय कुलच्छन-भरी बात मत निकालो मुँह से ।...जानती है बिजैयादि, मुझे कैसा लगता है, कहूँ?...लगतां है, तू मेरी बेटी है और मैं तुम्हारी माँ। तू मुझे...माने...अपनी माँ को हमेसा के लिए छोड़कर जा रही है।”
विजय चौंकी, तनिक। उसने चुरमुनियाँ के चेहरे पर.उमड़ने-घुमड़नेवाली घटाओं को देखा। वह बोली, “हाँ, तू मेरी माँ है।...तू ही मेरी माँ है।
चुरमुनियाँ आनन्द-विभोर हो गई, “बिजैयादि, जी छोटा मत करों। रोओं मत!...कलेजा मजबूत करो ।...'कहल-सुनल' माफ करना ।...अच्छा तो, पाँव लागों ।”
बैलगाड़ियाँ चल पड़ीं। दालान के पास, गंगापुरवाली दादी के साथ चुरमुन टुकुर-टुकुर देखती रही... ।
विजया उँगलियों पर जोड़ती है-ग्यारह महीने! ग्यारह-तीसे, तीन सौ तीस...?
चुह्मुनियाँ ने गैक ही कहा था। सच्चिदा भी शहर आ गया है और एक प्रायवेट कम्पनी में दरबानी करता है। गाँव से जो भी आता है, विजया सबसे पहले चुरमुनियाँ के बारे में पूछती है; फिर पूछती है, “गाँव छोड़कर क्यों आए?” सच्चिदा ने बताया, “चुर्मुनियाँ तो पूरी 'भगतिन' बन गई है। रोज भोर में नहाकर सिव मन्दिर जाती है।...लोग कहते हैं कि लड़की पर कोई “देव” ने सवारी की है।”
जिस दिन विवाह की बात पक्की हुई, विजया का कलेजा धड़का था। उसे चुरमुनियाँ की बात याद आई थी। शादी के समय भी चुरमुनियाँ की बात मन में गूँज गई थी ।
उसने ठीक ही कहा था। चुरमुनियाँ पर सचमुच कोई 'देव” की सवारी हुई है। विवाह के बाद, पाँच महीने भी नहीं बीते सुख-चैन से! विजया फिर उँगलियों पर कुछ जोड़ती है।
“अब .उसके पति इस बात को अच्छी तरह प्रमाणित करने पर तुले हुए हैं कि विजया को गाँव के किसी लड़के से प्रेम था और उसी के विरह में वह विवाह के बाद ही अर्ध-विक्षिप्त हो गई है...।
विजया के काका को वकील का नोटिस देकर पूछा गया कि इस धोखेबाजी के लिए उस पर मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाए ?
“विजया के पति पाँच हजार रुपए बतौर, हर्जाना के वसूल करना चाहते हैं, उसके काका से!...विजया कुछ भी नहीं जानती। कुछ भी नहीं समझती। कुछ समझने की चेष्टा भी नहीं करती। सिर्फ उँगलियों पर कुछ जोड़ती है। जोड़ती ही रहती है।
हिंगना-मठ के सूरतदास बाबाजी से एक पोस्टकार्ड लिखवाकर भेजा है, चुरमुनियाँ ने। कई डाकघरों में घूमती-भटकती हुई चिटूठी विजया के पति को कल मिली है, “बिजैयादि कब आओगी? अब नहीं ही आओगी ।” इसके बाद सूरतदास बाबाजी ने अपनी ओर से लिखा है, “चुरमुन एक महीने से बिछावन पर लबेजान है और दिन-रात तुम्हारा नाम... ।”
विजया अपने पति को कुछ भी नहीं समझा सकी कि यह चुरमुन कौन है, जिसकी बीमारी की खबर पाकर वह इस तरह बेचैन हो गई। विजया की बस एक
ही जिद-“मैं आज ही जाऊँगी। अभी...”
तब, हमेशा की तरह उसे घर में बन्द करके कुंडी चढ़ा दी गई। किन्तु इस बार विजया न रोई, न चीखी; न चिल्लाई, न दरवाजा पीटा, न बर्तन-बासन तोड़ा। करुण-कंठ से गिड़गिड़ाने लगी, “मैं आपके पैर पड़ती हूँ। आप जो भी कहिएगा, मानूँगी ।
मुझे एक बार अपने साथ ही गाँव ले चलिए। मैं खड़ी-खड़ी उस निगोड़ी को देख लूँगी। मरे या जीए। मैं उलटे-पाँव वापस चली आऊँगी-आप ही के साथ।”
“यह चुरमुनियाँ आखिर है कौन ?”
“मेरे गाँव की...एक...पड़ोसी की लड़की ।”
“लेकिन, लगता है तुम्हारी कोख की बेटी हो ।”
“हाँ, वह मेरी माँ है। माँ है...”
“मुझे देहाती-उल्लू मत समझना ।”
हर दिन की तरह, विजया अचानक चुप हो गई और आँख मूँदकर अपने गाँव-मैके रानीडिह भाग गई।
अब उसे कोई मारे, पीटे या काटे-घंटों अपने गाँव में पड़ी रहेगी।
वह...दूर से ही दिखलाई पड़ता है, गाँव का बूढ़ा इमली का पेड़। वह रहा बाबा जीन-पीर का थान ।...वह रही चुरमुनियाँ ।...रानीडिह की ऊँची जमीन पर...लाल माटीवाले खेत में...अक्षत-सिन्दूर बिखेरे हुए. हैं। हजारों गौरिया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में कचर-पचर कर रही हैं।
चुरमुनियाँ सचमुच पखेरू हो गई ? उड़कर आई है, खंजन की तरह!...विजया की तलहथी पर एक नन्हीं-सी जानवाली चिड़िया आकर बैठ,बई ।...चुरमुन रे! माँ...!
“डॉक्टर ने सूई गड़ाई या किसी' ने छुरा भोंक दिया?-कोई मारे या काटे, विजया अपने गाँव से नहीं लौंटेगी, अभी!