कर्तव्यनिष्ठा की अनूठी मिसाल पैदा की
मिथिला में गंगाधर शास्त्री नामक पंडित एक विद्यालय में अध्यापन का कार्य करते थे।
शास्त्री जी अपने कार्य को पूर्ण निष्ठा से करते थे।
उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र गोविंद को भी यही शिक्षा दी थी।
गोविंद भी उसी विद्यालय में अध्ययनरत था।
अपने पिता के समान वह भी अत्यंत शिष्ट, अनुशासित और अपना कार्य पूर्ण मनोयोग से करने वाला था।
उसके शिक्षक और सहपाठी उसके इन्हीं गुणों के कारण उससे बहुत स्नेह करते थे।
एक दिन शास्त्री जी के साथ गोविंद विद्यालय नहीं आया।
उसके मित्रों को उसकी अनुपस्थिति बहुत खली।
जब शास्त्री जी विद्यालय बंद होने के पश्चात् घर जाने लगे, तो बच्चों ने गोविंद के न आने का कारण पूछा।
शास्त्री जी भारी मन से बोले- “बच्चों! अब वह कभी नहीं आएगा।
उसे अचानक दिल का दौरा पड़ा और वह हमें छोड़कर चला गया।
बच्चे स्तब्ध रह गए।
उनकी आंखों में आंसू बहने लगे।
उन्हें हैरानी भी हुई कि इतने दर्दनाक हादसे के बावजूद शास्त्री जी पढ़ाने कैसे आ सके ?
बच्चों ने शास्त्री जी से जब इस विषय में पूछा, तो वे बोले- “मेरे दो परिवार हैं।
उस परिवार के बच्चे का बिछुडना असहनीय अवश्य है, किंतु उसके कारण इस परिवार के पा का हक मारता, तो दुख और बढ़ जाता।
गोविंद के लिए जो कर था, पूर्ण मनोयोग से किया, अब तुम्हारे लिए जो कर सकता हूं क्यों न करता ?
बच्चे अपने गुरु की विशाल हृदयता और कर्तव्यनिष्ठा को देखकर श्रद्धाभिभूत हो गए।
कथा का सार यह है “कि कर्तव्यनिष्ठा जहां हमें परम संतुष्ट और शांत: के है, लोक “में आदरणीय भी बनाती है।