रूढ़िवादिता दूर करने के लिए किया संघर्ष
शंकरदेव का जन्म असम के नौगांव जिले में हुआ था।
पारिवारिक और सामाजिक दबावों के समक्ष न झुकते हुए खासतौर से उन्होंने संतों और ब्राह्मणों वाली जीवनचर्या अपनाई।
एक ओर उन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन कर उसमें दक्षता हासिल की, तो दूसरी ओर श्रीमद् भागवत को अपने आचरण में उतारा।
फिर शंकरदेव ने धर्मप्रचार को अपना लक्ष्य बना लिया और युवावस्था में ही पदयात्रा पर निकल पड़े।
शंकरदेव भागवत के माध्यम से धर्म के नाम पर हो रहे आडंबरों पर प्रहार करते और सामाजिक विकृतियों को दूर करने का प्रयास करते।
यह देखकर पंडे-पुजारियों ने उनका घोर विरोध किया, किंतु वह अपने लक्ष्य पर अडिग रहे।
अन्य स्वार्थी महात्माओं की कथा का उद्देश्य दक्षिणा बटोरना होता था, जबकि शंकरदेव नि:शुल्क और निःस्वार्थ भाव से गांव-गांव जाकर कथा सुनाते, क्योंकि उनका उद्देश्य सद्वृत्तियों का प्रचार करना था।
आरंभ में पाखंडियों ने उनकी कथा का विरोध किया, किंतु वह संत वृत्ति के समक्ष टिक नहीं पाए।
इस प्रकार शंकरदेव ने अनेक कष्ट सहकर भक्ति को पाखंड से मुक्त कराया और उसके सही अर्थ से लोगों को हृदयंगम कराया।
सार यह है कि रूढ़िवादिता से लड़ने के लिए आत्मविश्वास और आत्मत्याग दोनों ही अपेक्षित हैं।
यह एक सामाजिक बुराई है, जिसे असीम धैर्य और अधिकतम प्रयास के बलबूते ही दूर करना संभव हो सकता है।