जगाया जल संरक्षण का बोध

एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे।

उन्हें अपने शिष्य आनंद से ज्ञात हुआ कि संगारव नाम का एक ब्राह्मण पानी का अत्यधिक प्रयोग करता है।

वह शुद्धि पर जोर देता है और प्रतिदिन कई-कई बार स्नान करता है।

इससे अनावश्यक रूप से पानी का दुरुपयोग होता है।

आनंद ने गौतम बुद्ध से अनुरोध किया कि वो संगारव को शुद्धि का सही मार्ग दिखाएं।

बुद्ध ने आनंद की प्रार्थना स्वीकार की और संगारव के घर पहुंचे।

संगारव ने बुद्ध का उचित आदर सत्कार किया ।

तब बुद्ध ने संगारव से पूछा- 'जैसा कि लोग तुम्हारे बारे में कहते हैं, क्या यह सच है ?

क्या तुम प्रतिदिन कई-कई बार स्नान करते रहते हो ?

संगारव ने सहमति से सिर हिलाया। तब गौतम बुद्ध ने पूछा- 'आखिर इसमें तुम क्या लाभ देखते हो ?

संगारव ने उत्तर दिया- 'दिन में मुझसे जो भी पापकर्म होते हैं, मैं लगातार स्नान से उन्हें धो लेता हूं।

तब गौतम बुद्ध ने उसे समझाया- 'सबसे बड़ी शुद्धि मन की शुद्धि है।

यदि मन शुद्ध है तो स्नान करने या न करने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

अगर स्नान करने से ही पाप कर्म धुल जाएं तो हर पापी जानबूझकर पापकर्म करे और दिन में कई बार स्नान करके पापकर्म धो ले।

पापकर्म स्नान से नहीं सच्चे पश्चात्ताप से धुलते हैं।

अगर आप अपना मन व आचरण शुद्ध रखेंगे तो पापकर्म होंगे ही नहीं।

' गौतम बुद्ध ने यह भी समझाया कि जल एक ऐसा अमृत है जिसको व्यर्थ बहाना ठीक नहीं है।

हम अपनी आदतों में आंशिक परिवर्तन कर शुद्धि के सही अर्थ को अनुभव कर सकें और जीवन में उतार सकें, तब जीवनरूपी जल की बड़े स्तर पर रक्षा संभव है।

संगारव ने हाथ जोड़ कर गौतम बुद्ध को वचन दिया कि वह अब अपने मन को शुद्ध रखेंगे व जल को व्यर्थ नहीं बहाएंगे।