किसी राज्य में एक ब्राह्मण बालक गोविंद बचपन से ही वैराग्य भाव रखता था।
आम बच्चों के उलट वे किसी भी वस्तु की मांग नहीं करता था।
अध्ययन और ईश स्मरण में ही उसका पूरा दिन व्यतीत होता था।
बालकों का नटखट स्वभाव भी उसमें नहीं था और न ही उनकी तरह प्रतिस्पर्धा करने की ललक थी।
उसकी माता उसका यह आचरण देखकर बड़ी हैरान होती थी, किंतु उसे स्वाभाविक रूप से बहुत स्नेह करती थी।
एक दिन मां के मन में बालक गोविंद को सोने के कंगन पहनाने का विचार आया।
उन्होंने अति सुंदर कंगन बनवाए और बालक गोविंद को बड़े ही लाड़-प्यार से पहना दिए।
कुछ देर बाद मां ने देखा कि बालक गोविंद के एक हाथ का कंगन गायब है।
यह देख मां परेशान हो गई।
बालक गोविंद से जब मां ने कंगन के बारे में पूछा तो वह उन्हें नदी किनारे ले गया और दूसरा कंगन एक अत्यंत गरीब व्यक्ति को यह कहकर दान दे दिया कि पहला भी उसने किसी अन्य गरीब को दे दिया था।
जब मां ने ऐसा करने का कारण पूछा तो बालक गोविंद बोले- 'मां मुझे ईश्वर को पाने के रास्ते पर चलना है।
आपने यदि मुझे मोह-माया की बेड़ियों में बांध दिया तो मैं यह कैसे कर पाउंगा ?
बालक गोविंद के ये उद्गार उसके महान् विरक्त जीवन का संकेत कर रहे थे।
सार यह है कि आसक्ति भौतिकता की ओर खींचती है, जिससे आध्यात्मिक लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाते।
अतः जिनकी प्रवृत्ति शरीर से आत्मा के संतोष की ओर है, वे मोह-माया से दूर ही रहते हैं।