दो मित्र थे।
एक बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का था और सदैव प्रभु चिंतन में लगा रहता था,
किंतु दूसरा मित्र घोर नास्तिक था।
वह कभी मंदिर नहीं जाता था और न ही घर में पूजा-पाठ करता।
दान-पुण्य में उसका कोई विश्वास नहीं था।
उसने जीवन का एकमात्र लक्ष्य अधिक से अधिक धन अर्जित करना बना रखा था।
वह दिन रात पैसे कमाने में लगा रहता और भौतिक सुख-सुविधाओं से उसने अपना जीवन ऐश्वर्य व भोग - विलास का पर्याय बना लिया था।
किंतु सुख व संतोष उसके जीवन में नहीं थे।
इसके विपरीत आस्तिक मित्र कम साधनों में संतुष्ट रहता और ईश्वर की भक्ति करता।
एक दिन नास्तिक मित्र उसके घर मिलने आया और उसका साधारण-सा घर व रहन-सहन देखकर बोला- 'तुम्हारे त्याग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है।
तुमने भगवान् की भक्ति में सारी सुख-संपन्नता को छोड़ दिया।
तुम इतने खुश कैसे रह लेते हो ?
' यह सुनकर आस्तिक मित्र बोला - 'मित्र! मैं अपने जीवन में बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हूं, किंतु त्याग तो तुम्हारा मुझसे बड़ा है क्योंकि तुमने तो दुनिया व सुख-संपन्नता के लिए ईश्वर को ही छोड़ दिया।
तुम कहो, प्रसन्न तो हो न ?
अपने मित्र की बात सुनकर नास्तिक को गहरा झटका लगा और उसे अपने असंतोष का कारण भी समझ में आ गया।
उसी दिन से उसके जीवन की दिशा बदल गई और उसका हृदय ईश्वर की ओर उन्मुख हो गया।
कथा का सार यह है कि ईश्वर की परम सत्ता है, जिसे अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में याद रखा जाना चाहिए।
उसकी कृपा से सदैव कल्याण ही होता है।