एनी बेसेंट वर्ष सन् 1893 में मद्रास पहुंची और थियोसॉफी के प्रचार में जुट गई।
यहीं उन्हें उपनिषदों के अध्ययन का अवसर मिला और तब उन्होंने जाना कि थियोसॉफी तो उपनिषदों का ही अनुसरण है।
फिर तो वे भारत-भूमि के प्रति श्रद्धाभाव से भर गई और उन्होंने कांग्रेस के कार्यो में स्वयं को समर्पित कर दिया।
अंग्रेजों के विरुद्ध कांग्रेस के संघर्ष में एनी बेसेंट भी शामिल हो गईं।
मन में बस एक ही इच्छा थी कि भारत का विगत गौरव पुन: उसे व्रापिस दिलाया जाए और फिर वह अपने ज्ञान से विश्व को आलोकित करे।
एनी बेसेंट ने “न्यू इंडिया" नामक पत्र निकालना शुरू किया, जो अंग्रेजों के विरुद्ध आग उगलने लगा।
तब मद्रास के गवर्नर ने उन्हें बुलाया और चेतावनी देते हुए कहा- श्रीमति बेसेंट! हम लोग आपको अंग्रेज जानकर छोड नहीं सकते।
यदि आपने यह सब बंद नहीं किया, तो आपकी हर गतिविधियों पर अंकुश लगा दिया जाएगा।
यह सुनकर एनी बेसेंट ने प्रभावी शब्दों में कहा- 'आप समर्थ हैं और मैं लाचार।
आप जो उचित समझें करें, किंतु इतना अवश्य कहूंगी कि ऐसा करके आप अपनी ही सरकार पर प्रहार करेंगे।
आखिर अंग्रेज सरकार ने उनको नजरबंद कर दिया।
तत्कालीन भारत के सचिव मैंटिग्यू की एनी बेसेंट के बारे में प्रतिक्रिया थी- 'केवल इस वृद्ध महिला को यदि हम अपने साथ मिलाने में सफल हो जाते, तो हमारा काम आसान हो जाता।
कथासार यह है कि हमें केवल सच का साथ देना चाहिए।
श्रीमति ऐनी बेसेंट ने अंग्रेज होते हुए भी अंग्रेजों की गलत नीतियों का साथ नहीं दिया।
उन्होंने कहा- ' भारत केवल भारतीयों का है और अंग्रेजों को उन्हें गुलाम बनाने का कोई हक नहीं है।'