आइस्टीन की मानवीयता

कहा जाता है कि सन्‌ 1945 में न्यू मैक्सिको में हुए परमाणु उर्जा के परीक्षण से पहाड़ ढहने लगे, नदियां सूख गई और पेड-पौधे मुरझा गए।

आइंस्टीन ने जब परमाणु शक्ति का यह विनाशकारी नजारा देखा, तो कहा- 'हमारी आधुनिक पीढ़ी ने सारी दुनिया के लिए शक्ति का अजस्त्र द्वार खोल दिया है।

शायद मानव सभ्यता के इतिहास में यह सबसे क्रांतिकारी उपलब्धि है।

' अमेरिका के सेनाध्यक्ष ने उनके सामने जापान में परमाणु उर्जा का बम के रूप में प्रयोग करने की योजना रखी, मगर उन्होंने अमेरिका के सेनाध्यक्ष को सख्त लहजे में समझाया कि यह मानवता के लिए ठीक नहीं है।

परमाणु उर्जा का उपयोग मानवता के विकास के लिए करिए न कि विनाश के लिए।

परन्तु अमेरिका ने उनकी बात को न मानते हुए हिरोशिमा व नागासाकी पर परमाणु बम का प्रयोग कर ही दिया।

जब अमेरिकी इस जीत का जश्न मना रहे थे तो आइंस्टीन का मन घोर पीड़ा से भरा हुआ था।

उन्हें लगा कि उनकी खोज यदि मंगलकारी होती, तो कितना अच्छा होता।

अपनी ग्लानि को कम करने के लिए आइंस्टीन ने इस खोज के रचनात्मक उपयोगों पर लेख लिखना शुरू किया।

यही नहीं परमाणु शस्त्रों पर रोक लगाने के लिए वे विश्वभर के नेताओं से मिले।

अपनी मृत्यु से दो दिन पूर्व रसेल के शांति प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने लिखा- 'केवल मानवता को याद करो और बाकी सब व्यर्थ है, भूल जाओ!

यदि तुम लोग ऐसा करोगे, तो धरती पर नया स्वर्ग उत्तर आएगा।

अन्यथा विश्व का नाश निश्चित है।' सार यह है कि जब भी कोई आविष्कार या खोज हो, उसका उपयोग मानवता के हित में किया जाना चाहिए।

आज के वैज्ञानिकों और देशों की सरकारों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।