सिंधुराज के राज्य में एक डाकू का बड़ा आतंक था।
वह धनी, निर्धन सबको लूटता था।
किसी पर दया नहीं करता था।
लोग हाथ जोड - जोड़कर गुहार लगाते किंतु उसका दिल नहीं पसीजता था।
हजारों निर्दोष लोगों की उसने हत्या की, क्योंकि जो उसका विरोध करता उसे वह मार डालता था।
सिंधुराज के राजा ने उस डाकू को पकड़ने में पूरा जोर लगा दिया।
आखिरकार सिंधुराज की सेना उस डाकू को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गई।
राजा ने उसे मौत की सजा सुनाई।
डाकू का पिता उसे जेल में मिलने के लिए आया तो उसने अपने पिता से मिलने से इंकार कर दिया।
कारण पूछे जाने पर वह बोला- “बचपन में मैंने पहली बार एक स्वर्ण मुद्रा की चोरी की थी।
जब वह स्वर्ण मुद्रा मैंने अपने पिता को लाकर दी, तो उन्होंने मेरी प्रशंसा की और पीठ थपथपाई।
यदि उसी दिन पिताजी मुझे चांटा लगाकर डांटते, तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता।'
कथा का सार यह है कि नींव की दृढ़ता या दुर्बलता पर ही भवन की मजबूती अथवा कमजोरी टिकी होती है।
इसी प्रकार बच्चों में बाल्यावस्था से डाले गए सुसंस्कार ही उनके सद्चरित्र को नींव होते हैं, जो उन्हें जीवन में अच्छा इन्सान बनाते हैं।
दूसरी और कुसंस्कार उन्हें पतन के रास्ते पर ले जाते हैं।