शाही सवारी आ रही थी।
लोग कतारबद्ध खडे थे।
राजा के प्रति प्रजा में सम्मान था, क्योंकि राजा सदा प्रजा के हितों का ख्याल रखता था और साधु, संतों तथा विद्वानों का हमेशा सम्मान करता था।
राजा की सवारी के आगे उसके वरिष्ठ अधिकारियों के रथ चल रहे थे और सबसे आगे पैदल सैनिक भीड़ को नियंत्रित कर रहे थे।
इस भारी जनसमूह में एक दृष्टिहीन साधु भी खड़ा था।
वह इस शाही सवारी के दृष्य को अनुभव करना चाहता था।
चूंकि वह देख नहीं सकता था, इसलिए कतार से हटकर एक ओर खड़ा हो गया। जब बैंड बाजों की आवाज निकट आई, तो एक सिपाही ने भीड़ से 'दूर हटो-दूर हटो' कहा।
यह सुनकर साधु जोर से बोला 'समझ गया।
' उसके बाद राजा के वरिष्ठ अधिकारियों के रथ एक-एक करके गुजरने लगे ओर सभी को सख्त लहजे में दूर हटने का आदेश देते रहे।
साधु हर बार जोर से बोलता 'समझ गया।' इसके पश्चात् राजा की सवारी आई।
राजा ने एक तरफ खड़े दृष्टिहीन साधु को देखा, वह तत्काल रथ से उतरा और साधु के पास जाकर हाथ जोड़ कर बोला- “आपने इस भीड़ में आने का कष्ट क्यों किया महात्मन, आपको इस भीड में चोट लग सकती है।
आप आदेश देते, तो मैं स्वयं आपकी सेवा में हाजिर हो जाता।
' साधु ने इस बार भी कहा- ' समझ गया।'
राजा ने पूछा- "आप क्या समझ गए महात्मन ?'
तब साधु बोला- “यही कि पहला व्यक्ति आपका सिपाही था और उसके बाद एक-एक करके आपके वरिष्ठ अधिकारी निकले और अब स्वयं आप हैं राजन।
' राजा ने पूछा- 'यह आप कैसे समझे महात्मन ?' साधु बोला- “मैंने सुना था कि इस राज्य की प्रजा बहुत सुखी है, क्योंकि यहां का राजा प्रजाहितकारी है।
जब आपने इतने विनम्र तरीके से मेरे पास आकर मुझसे बात की तो मैं यह समझ गया कि आप अवश्य राजा ही होंगे क्योंकि आप जैसे राजा के राज्य में ही प्रजा इतनी सुखी हो सकती है।
' सार यह है कि ऊंचे से ऊंचा मुकाम हासिल कर लेने के बाद भी हमें अंहकार से दूर रहकर विनम्र बने रहना चाहिए।
विनग्रता से हम सबका दिल जीत सकते हैं।
विनम्रता से हम अपने शत्रुओं को भी अपना बना सकते हैं।