किसी और के पुत्र के लिए बेचा मंगलसूत्र
यह घटना ईश्वरचंद्र विद्यासागर के किशोरावस्था की है।
वे बाल्यकाल से ही बहुत सहदयी थे।
लोगों को सहायता करके उन्हें बेहद खुशी होती थी। यह गुण उन्हें अपनी मां से मिला था।
ईश्वरचंद्र जी की मां परम दयालु थी।
उन्होंने सदैव अपने पुत्र को यह शिक्षा दी थी कि अपनी स्वार्थपूर्ति से पहले दूसरों का हित देखो और सदा ऐसे कार्य करो, जिसमें लोक-कल्याण समाहित हो।
एक दिन ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने एक मित्र को लेकर घर आए ओर अपनी मां से बोले- “मां! यह अत्यन्त निर्धन है।
यह मेरी कक्षा में पढ़ता है, किंतु फीस के पैसे न होने के कारण इसे परीक्षा में बैठने नहीं दिया जा रहा।
हम इसकी सहायता करने के इच्छुक हें।' मां ने तत्काल अपना मंगलसूत्र उसे देते हुए कहा- “बेटे, इसे गिरवी रखकर तुम फीस चुकाकर परीक्षा दो।'
परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात् उस लड़के ने किसी तरह से पैसे चुकाकर गिरवी मंगलसूत्र छुड़वाया और मां को लाकर वापस करना चाहा तो मां ने स्नेहपूर्वक कहा- “बेटा, इसका नाम ही मंगलसूत्र अर्थात् दूसरों की भलाई व मंगल के कार्य करना है।
अत: इसे बेचकर आगे की पढ़ाई जारी रखो। लड़का मां की उदारता देखकर अभिभूत हो गया।
किसी असहाय की सहायता के लिए मंगलसूत्र बेचने का यह प्रसंग उन भारतीय महिलाओं की आंखें खोलने जैसा है, जो सुहाग के इस सूचक के प्रति अत्यंत संवेदनशील रहती हैं और किसी भी विपरीत स्थिति के बावजूद इसे कभी नहीं बेचती अथवा किसी को नहीं देती।
धन-दौलत, गहने, घर, दुकान, जमीन-जायदाद आदि किसी भी वस्तु के साथ मोह करना ठीक नहीं है। मोह करना है तो ईश्वर से करो।
कथा का सार है कि मानवीयता मंगलसूत्र से बड़ा धर्म है, जिसका निर्वाह हर हाल में किया जाना चाहिए।