एक राज्य की राजधानी में आधी रात को मूसलाधार वर्षा हो रही थी।
बिजली कड़क रही थी।
सारा नगर सो रहा था, किंतु राजमहल का द्वारपाल मातृगुप्त पहरा देते हुए अपने दुर्भाग्य पर विचार कर रहा था।
वस्तुत: वह एक बहुत अच्छा कवि था।
राजा विक्रमराज गुणीजनो को समुचित सम्मान देते हैं, यह सुनकर ही वह यहां आया था, किंतु राजा से मिलना संभव नहीं हो सका।
फिर उसने बड़ी कठिनाई से द्वारपाल की नोकरी हासिल की।
उसने सोचा कि द्वारपाल की नौकरी करते हुए कभी तो राजा से मुलाकात संभव होगी, तो वह मौका मिलते ही राजा को अपनी प्रतिभा से परिचित करा देगा। इस तूफानी रात में राजा विक्रमराज सोए नहीं थे।
टहलते-टहलते वह राजमहल की खिड़की क॑ पास आकर खड़े हो गए। तभी उनकी दृष्टि द्वारपाल पर गई।
उन्होंने प्रश्न किया- अभी कितनी घड़ी की रात्रि शेष हे ?
मातृगुप्त ने उत्तर दिया- “महाराज! अभी डेढ़ पहर रात्रि शेष हे ?”
महाराज ने पूछा- “यह तुम्हें कैसे पता हे ?' मातृगुप्त ने सोचा यही मौका है अपनी प्रतिभा से महाराज को अवगत कराने का।
उसने एक भावपूर्ण कविता के रूप में महाराज को उनके प्रश्न का उत्तर दिया।
अगले दिन राजा ने उसे अपने दरबार में बुला लिया। राजा ने कहा- 'द्वारपाल! अगर तुममें काव्य प्रतिभा है तो उससे सारे दरबार को अवगत कराओ।
मातृगुप्त ने अत्यंत भावपूर्ण व सुंदर कविताएं सुनाई।
सारे दरबारियों ने मातृगुप्त की कविताओं की प्रशंसा की और राजा ने मातृगुप्त को उचित मान सम्मान दिया।
कथा का निहितार्थ यह है कि प्रतिभावान व्यक्ति को उचित अवसर पर चूकना नहीं चाहिए।