बनारस में एक पंडित जी का विशाल आश्रम था, जहां वे अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे।
उनके आश्रम के सामने एक बढ़ई बैठता था। वह बढ़ई अपना काम करते हुए मधुर भजन भी गाता रहता था।
हालांकि पंडित जी व उनके शिष्य भजनों की ओर गौर नहीं करते थे। एक बार पंडित जी गंभीर रूप से बीमार हो गए।
बीमारी की वजह से वह पढ़ा नहीं पाते थे।
अधिकांश शिष्य आश्रम छोड़ कर चले गए। कुछ सेवाभावी शिष्यों के सहयोग से आश्रम का काम चल रहा था।
सेवाभावी शिष्यों ने पंडित जी की बहुत सेवा की और उनका उपचार कई बैद्य-हकीमों से करवाया, किंतु पंडित जी स्वस्थ नहीं हो पा रहे थे।
अब पंडित जी बिस्तर पर लेटे-लेटे बढ़ई के भजनों को गौर से सुनने लगे।
धीरे-धीरे उनका ध्यान रोग से हटकर बढ़ई के भजनों की ओर रहने लगा।
एक दिन उन्होंने एक शिष्य को भेजकर बढ़ई को बुलवाया और उससे बोले- 'तुम बहुत अच्छे और मधुर वाणी में भजन गाते हो।
मेरा जो रोग बड़े-बड़े वेद्य ठीक नहीं कर पाए, वह तुम्हारे भजन सुनने से ठीक हो रहा है।
मैं तुम्हें यह सौ स्वर्ण मुद्राएं दे रहा हूं। रोज इसी तरह गाते रहना।
' बढ़ई सौ स्वर्ण मुद्राएं पाकर बहुत खुश हुआ। बिना कठिन मेहनत किए उसे यह धन प्राप्त हुआ, जिससे वह बहुत खुश था।
लेकिन स्वर्ण मुद्राएं लेकर धीरे-धीरे उसका ध्यान अपने काम से हटने लगा।
वह यह सोचने लगा कि बिना कठिन मेहनत किए और धन कैसे अर्जित हो ?
उसकी भजन से भी विरक्ति होने लगी। अपना बढ़ई का काम लगन से न करने से उसके काम की सफाई भी कम हो गई जिससे उसके ग्राहक धीरे-धीरे कम होने लगे।
दिन-रात वह चिंता में रहता कि इन स्वर्ण मुद्राओं को कोई चुरा न ले।
बढ़ई मेहनत से जी चुराने लगा। एक दिन बढ़ई की आत्मा जागी, उसने सोचा यह मेरे साथ क्या हो रहा है ?
फिर उसने गहराई से सोच विचार किया और स्वर्ण मुद्राएं लेकर पंडित जी के पास उनको वापिस करने पहुंच गया।
बढ़ई ने कहा- “पंडित जी, ये स्वर्ण मुद्राएं वापिस रख लिजिए।
मैं यह जान गया हूं कि बिना मेहनत से अर्जित धन इन्सान की सुख-शांति छीन लेता है।
जो सुख अपनी मेहनत की कमाई में है, वह पराए धन में नहीं।' अगले दिन से बढ़ई के मधुर भजन फिर से सुनाई देने लगे।
वस्तुतः बिना मेहनत के प्राप्त धन से अशांति पैदा होती है, जबकि मेहनत से अर्जित धन आत्मिक शांति प्रदान करता है।