पिता ने अपने ही पुत्र के खिलाफ फैसला सुनाया
केशिनी नाम की एक अत्यंत सुंदर कन्या को लेकर दैत्यराज प्रहलाद के पुत्र विरोचन और महर्षि अंगिरा के पुत्र सुधन्वा में परस्पर विवाद छिड़ गया।
वे दोनों ही उसे पाने की इच्छा रखते हुए अपनी-अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने लगे।
दोनों में खूब बहस हुई, किंतु हल नहीं निकल पाया। अंत में दोनों राजा प्रहलाद के पास जाकर बोले- “महाराज, हम दोनों में से श्रेष्ठ कौन है ?
आप इस प्रश्न का सही-सही उत्तर दें।' राजा प्रहलाद ने उन्हें अगले दिन आने को कहा।
अपनी समस्या का हल जानने के लिए राजा प्रहलाद महर्षि कश्यप के आश्रम में पहुंचे।
उन्होंने अपनी मन की दुविधा महर्षि कश्यप के सामने रखी।
महर्षि कश्यप ने कहा- “राजन, अगर तुमने सत्य को जानते हुए पक्षपात किया और असत्य उत्तर दिया, तो तुम अपने धर्म का नाश तो करोगे ही, अपनी पीढ़ियों के पुण्य को भी नष्ट कर डालोगे।
' राजा प्रहलाद महर्षि कश्यप को प्रणाम कर राजमहल लौट गए।
उन्होंने अगले दिन अपने पुत्र विरोचन को बुलाया और उससे कहा- “पुत्र, सुधन्वा तुमसे श्रेष्ठ है।
उसके पिता महर्षि अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ हें।
विरोचन ने हाथ जोड़कर उस फैसले को स्वीकार कर लिया।
महर्षि अंगिरा ने जब यह निर्णय सुना, तो यह आशीर्वाद दिया- “महाराज प्रहलाद! तुम पुत्र स्नेह से परे होकर अपने धर्म पर अडिग रहे।
मैं तुम्हारे पुत्र को शतायु होने का वर देता हूं।
वस्तुत: न्याय तभी सच्चा होता है, जबकि वह पक्षपातरहित ढंग से समदृष्टि रखकर किया जाए।