संत ने सिखाए दान के असली मायने
एक दानवीर राजा था।
राजा की दानशीलता की ख्याति सुनकर एक संत उसके राज्य में आए।
वे राजा से मिलने राजमहल पहुंचे और वहां दान लेने वालों की लंबी कतार में बेठ गए।
राजा ने दान देने के लिए दो कर्मचारी नियुक्त कर रखे थे।
जब संत की बारी आई, तो वे कर्मचारी से बोले- “भाई! में आपके हाथ से नहीं, राजा के हाथ से दान लूंगा, अन्यथा खाली हाथ ही लौट जाउंगा।
” राजा का सख्त आदेश था कि कोई भी याचक खाली हाथ न लोटे।
अत: संत की राजा से भेंट करवाई गई। राजा ने हाथ जोड़कर संत से उनकी इच्छा पूछी।
तब संत बोले- "राजन! मुझे बस इतना धन चाहिए, जिससे मैं स्वर्ग जा सकूं।
' राजा ने हैरानी से पूछा- 'महात्मन! धन से आप स्वर्ग कैसे जा सकते हैं ?
कृष्या स्पष्ट करें।' तब संत ने समझाया- “राजन! मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि केवल दान देने से न तो आप सुखी हो पाएंगे और न ही दान मांगने वालों के जीवन में कोई परिवर्तन हो पाएगा।
आप दान देते रहे तो एक दिन राजकोष खाली हो जाएगा।
' राजा ने उपाय पूछा, तो संत ने कहा- 'आप जो धन दान में खर्च करते हैं, उससे लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराएं।
इससे उन लोगों को काम मिलेगा, जो आज भिक्षावृत्ति पर पलने के अभ्यस्त हो चुके हैं।
आपने उन्हें जो सुविधाएं दी हैं, उससे वे कामचोर हो गए हैं।
आप उन्हें परिश्रम करना सिखाइए। असमर्थ व्यक्ति को भी समर्थ बनाने की कोशिश करें ताकि वह अपनी मेहनत से अपना पेट पाल सके।
यही सच्चा दान होगा।
सार यह है कि स्वावलंबन आत्मविश्वास की अनिवार्य शर्त है और इसी पर सामाजिक व राष्ट्रीय विकास आधारित होता हे।